चुनावी बांडों संबंधी अहम फैसला

देश की आज़ादी के बाद 26 जनवरी, 1950 को लिखित संविधान अस्तित्व में आया। इसके बाद वर्ष 1951-52 में लोकतांत्रिक व्यवस्था के आधार पर देश भर में पहली बार चुनाव हुये। इसके बाद यह प्रक्रिया अब तक निरन्तर जारी है। शुरुआत में देश के एक निश्चित उम्र के नागरिकों को वोट डालने के अधिकार के संबंध में संशय ज़रूर पाये जाते थे परन्तु एक बार शुरू हुआ यह तरीका अपनी गति से चलता रहा और समय-समय पर सामने आई त्रुटियों को भी सुधारने का यत्न भी किया जाता रहा। कठिनाइयों एवं चुनौतियों का भी किसी न किसी ढंग-तरीके से हल करने की प्रक्रिया चलती रही। शुरुआती समय से लेकर अब तक चुनाव प्रक्रिया में व्यापक सुधार भी हुये तथा इसने अनेकानेक पड़ाव भी तय किये। 
चुनावों के दौरान राजनीतिज्ञों द्वारा धर्म एवं जाति-समुदाय पर आधारित पत्ते भी खेले जाते रहे।  ऐसे रुझान आज तक भी जारी हैं, परन्तु इस सबके बावजूद देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया जारी है। वैसे इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया की एक बड़ी त्रुटि यह अवश्य रही है कि पार्टियों एवं उम्मीदवारों की ओर से अधिक से अधिक धन खर्च करके चुनाव जीतने की की कोशिश की जाती है। समय व्यतीत होने से इसमें काले धन का उपयोग कहीं अधिक बढ़ चुका है। यह भी एक बड़ा कारण है कि आज जन-साधारण के लिए किसी भी स्तर के चुनाव लड़ना बेहद कठिन हो गया है। इसीलिए जन-साधारण वोट देने के योग्य ही रह गया है तथा धन-कुबेर अपने शाही खर्चों से सत्ता पर काबिज़ होने में सफल हो जाते हैं।
बड़े यत्नों के बावजूद चुनाव के दौरान बेहिसाब काले धन के उपयोग को रोका नहीं जा सका। चुनाव आयोग भी इस संबंध में कोशिशें करने के बावजूद असमर्थ दिखाई देता रहा है। इसी क्रम में जनवरी 2018 में वित्त मंत्री होते हुए अरुण जेतली द्वारा राजनीतिक पार्टियों के लिए लोगों से चंदा एकत्रित करने संबंधी एक चुनावी बांड योजना का कानून बनाया गया था। इस योजना के अनुसार कोई भी नागरिक, कम्पनी या संस्था स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की इस उद्देश्य के लिए निर्धारित की गई 29 शाखाओं में से किसी एक से एक हज़ार से लेकर एक करोड़ रुपये तक के चुनावी बांड खरीद सकती थी तथा वह किसी भी मान्यता प्राप्त पार्टी जिसने पिछले चुनावों में कम से कम एक प्रतिशत वोट लिए हों, को चुनावों के लिए दान के रूप में यह राशि दे सकती थी। बड़ी बात यह कि इन खरीदे गये चुनावी बांडों के संबंध में सब कुछ गुप्त रखा जाता था तथा विवरण सार्वजनिक नहीं किया जाता था। उस समय अरुण जेतली का यह दावा था कि इससे चुनावों के लिए धन जुटाने में पारदर्शिता आएगी तथा काले धन के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा, परन्तु समय व्यतीत होने के साथ ही क्रियात्मक रूप में यह व्यवस्था बड़ी सीमा तक त्रुटिपूर्ण ही साबित हुआ, क्योंकि छोटे से लेकर बड़े धन-कुबेर अथवा कम्पनियां इन बांडों को खरीद कर यह राशि गुप्त ढंग से चुनाव लड़ रही राजनीतिक पार्टियों को देती रही हैं। इन बांडों पर किसी तरह का कोई सरकारी कर भी नहीं लगता था। क्रियात्मक रूप में इसका लाभ सत्तारूढ़ पार्टी को अधिक हुआ, क्योंकि बड़ी कार्पोरेट कम्पनियों तक पहुंच सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी की ही होती है। वह ही बैंक बांडों द्वारा अधिक धन हासिल करने में सफल रहती है। बैंक द्वारा उसे यह जानकारी भी मिल जाती है कि कौन-सा व्यक्ति या कम्पनी किस विपक्षी दल को धन देती है। इसी कारण बड़े व्यापारी अथवा कम्पनियां विरोधी पार्टियों को अधिक धन देने से संकोच करती हैं।
सत्तारूढ़ पार्टी को दिये जाते धन संबंधी  विवरण को छुपाया नहीं जा सकता इसलिए प्रत्यक्ष रूप में इसका लाभ सत्तारूढ़ पार्टी को अधिक होता रहा है। बाद में विवरण सामने आने से यह बात और भी परिपक्व हो गई कि इसका ज्यादातर लाभ सिर्फ एक राजनीतिक पार्टी को ही हुआ, जिसे अन्य पार्टियों के मुकाबले में कहीं अधिक राशि प्राप्त हुई। इस योजना के लागू होने के बाद कांग्रेस पार्टी सहित कई अन्य ़गैर-सरकारी संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया। अब सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बांड के कानून को रद्द करने का आदेश दिया है। हम इसे चुनाव सुधारों के लिए समय-समय पर किये गये यत्नों एवं लिये गये फैसलों के सन्दर्भ में एक अहम फैसला समझते हैं, जो टेढ़ा हो गये तराज़ू को कुछ संतुलित करने में सहायक होगा। इस तरह चुनाव प्रक्रिया में और पारदर्शिता आने की सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद चुनावों में अथाह खर्च किये जाते काले धन के दुरुपयोग को कैसे रोका जाना है, यह देश और समाज के सामने अभी भी एक बड़ी चुनौती है। इसे दूर करके ही लोकतंत्र की उचित भावना को उजागर किया जा सकेगा।
—बरजिन्दर सिंह हमदर्द