भूख की बदहाली

बच्चों का भूख से जूझना सबसे बड़ा जुल्म नहीं तो और क्या है। कुछ ही दिन पहले संयुक्त राष्ट्र द्वारा जो खाद्य संकट संबंधी रिपोर्ट जारी की है उसने हमारे आदर्श और बेहतरीन मानवीय व्यवस्था को हिला कर रख दिया है। खाद्य संकट पर जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले साल 28 करोड़ से ज्यादा लोग भूख से जूझते रहे हैं, जिसमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे ही हैं। यह क्षुब्धकारी आंकड़ा माना जा रहा है। हम सभ्यता की बुलंदियों पर पहुंच कर भी इस बुरी दशा में हैं। यह सोच कर ग्लानि होती है। आंकड़ों के मायाजाल में उलझी ‘विकास’ की अवधारणा की भयावह तस्वीर देख कर मन तो दुखी होता ही है। रिपोर्ट में जिनकी दशा गम्भीर बताई गई है वे पांच देश हैं यानि फिलस्तीन, दक्षिणी सूडान, यमन, सीरिया और हैती। हैती की स्थिति बेहद गम्भीर बताई गई है, जहां के सात लाख से ज्यादा लोग अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों द्वारा निर्धारित भूख के पैमानों के उच्चतम स्तर पर हैं जो 2016 यानि रिपोर्ट आने की शुरुआत से करीब चार गुना ज्यादा बताये गये हैं। इस परिणाम से लोगों का भूख से पीड़ित होना और साल दर साल इस संख्या का बढ़ते चले जाना एक वैश्विक मानवीय त्रासदी को सामूहिक लापरवाही दर्शाता है जिस ओर सभी देशों को ध्यान देना चाहिए। इज़रायल-हमास युद्ध को सात महीने हो गये हैं। इस वजह से गाजा से करीब ग्यारह लाख लोग भूख के पैमाने के पांचवें स्तर तक पहुंच गये हैं। जुलाई तक वहां अकाल जैसी स्थितियों की आशंका जताई जा रही है। इसके अतिरिक्त 2024 की शुरुआत में अल नीनो के चरम में पूर्वी अफ्रीका के कुछ हिस्सों में खास कर मलावी, जाम्बिया और ज़िम्बाव्वे में सूखे की स्थितियां पैदा की, जिससे पहले ही अभावग्रस्त इन क्षेत्रों की मुश्किलों में इज़ाफा हुआ है। अब साल के अंत तक ऐसी ही स्थितियों के बने रहने की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं, जो चिंतित करने वाली हैं ही। सूडान सोमालिया की हालत काफी बुरी है। गृह युद्ध से जूझते अफ्रीकी देशों की भूख व गरीबी बरसों से चली आ रही है। अफ्रीका के कुछ हिस्सों में खासकर मलावी, जाम्बिया और ज़िम्बाव्वे में सूखे के हालात पैदा किये। इससे अभावग्रस्त इन देशों में मुश्किलें बढ़ी हैं। पिछले साल बत्तीस देशों में भूख से जूझते 3.60 करोड़ पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों का कुपोषण का स्तर गम्भीरतम माना गया और करीब अढ़ाई करोड़ बच्चों को भोजन न मिल पाना मानवता के लिए बड़ा सवाल है। इस वजह से बच्चे कई बीमारियों के शिकार हुए। संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने इस करुणापूर्ण स्थिति पर बयान दिया है। कहा है कि मानवीय विफलताओं का ही प्रतीक है। संयुक्त राष्ट्र हालिया वर्षों में विभिन्न देशों में चलाए जा रहे अपने कार्यक्रम की विफलता का ठीकरा बेशक फंडिग की कमी होने पर फोड़े, लेकिन उसके लगातार अप्रासंगिक होते जाने की वजह उसकी वे व्यवस्थाएं ठहरती हैं, जिनमें कुछ चुने हुये देशों के हितों को प्राथमिकता मिली है। पिछले आठ सालों से जारी इन रिपोर्टों से औपचारिकता ही निभ रही है। लेकिन अगर भूख से लड़ते बच्चों को बचाना है तो भोजन की आपूर्ति में क्रांतिकारी बदलाव लाने होंगे। इस गम्भीरतम समस्या को अपनी और ज़रूरी समझते हुए अनेक देशों को आगे आना चाहिए। पाकिस्तान और श्रीलंका में भी हालात ज्यादा कारगर नहीं होते नज़र आ रहे। दोनों देश कज़र् और महंगाई से इतने खौफज़दा हैं कि अपनी भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य की रक्षा नहीं कर पा रहे। जबकि भारतीय और विदेशी महानगरों में भूख बढ़ाने के उपाय किये जा रहे हैं। महानगरों में इतना राशन वेस्ट किया जाता है जिससे अनेक लोगों का पेट भर सकता है।

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