‘जब गदहे बाप बन गये’

बेशक हम दीक्षित हो चुके हैं, नई ज़िन्दगी के नए शब्दकोष से अपने जीवन में उसे उतार लेने के लिए भी तैयार थे, लेकिन हमारा समय कभी आया ही नहीं, हम तो रियायती अनाज की दुकानों के बाहर धक्का-मुक्की करते रह गये, और जिन गदहों को हम बाप बनाने के लिए तैयार बैठे थे, उन्होंने अपनी कुर्सियां ही नहीं छोड़ीं। जब उम्र ने उनके चेहरे पर बारह बजाये, उनके कुर्सी छोड़ने का वक्त आया तो उनके नाती-पोते पहलवानी सीख चुके थे। एक गदहा तो उनका ही अपना आगे आया। इस बीच उनके अपनों की कतार लग चुकी थी। उन्होंने और तो कुछ सीखा नहीं, एक दूसरे के नीचे से कुर्सी छीनने का गुर अवश्य सीख लिया। 
यह गुर सीधा था, कोई किसी का नहीं। आदमी सीढ़ी बन चुका है। जब तक काम सधे, उसका इस्तेमाल करो। फिर जब अपनी छत नज़र आये, तो उसकी सीढ़ी को टांग मार आगे बढ़ते देर न लगाओ। सीढ़ियों को भूतपूर्व बनते देर नहीं लगती। आया राम गया राम पिछले युग में एक गाली था, आज विशेषता बन गया है। नेता साल में उतने कपड़े नहीं बदलते, जितने आजकल दल बदल लेते हैं।
क्यों बदला दल? इसलिये नहीं कि पिछला दल जन-विरोधी था, और आपका वहां दम घुट रहा था। इसलिए कि वहां चुनाव लड़ने के लिए उन्हें टिकट नहीं मिल रही थी। टिकट की छोड़िये, यहां तो संगठन में उचित पद भी नहीं मिल रहा था। बस ऐसी सीढ़ी को धत्ता बता दिया, जो उन्हें कहीं लेकर नहीं जाती। जो कल तक आपके नायक थे, वह आज खलनायक बन गये, और उन्हें गाली देने का नाम क्रांति बन गया। जो जितना ऊंचा चिल्लाये, उतना ही बड़ा क्रांतिकारी। मौन तपस्या, सेवा, साधना, बलिदान का कोई अर्थ नहीं रह गया। ऐसे लोग ज़िन्दगी की कतार में कल भी आखिरी आदमी थे, आज भी आखिरी आदमी हैं, और कल भी रहेंगे। अधिक से   अधिक तरक्की करेंगे तो नेता जी की शोभा यात्रा में ज़िन्दाबाद कह एक उठा हुआ हाथ बन जाएंगे।
ऐसे लोगों के लिए ज़िन्दगी में किसी का दुमछल्ला बन जाना एक उपलब्धि बन जाता है। ‘वो हमारा अपना आदमी है’ ऐसे लोग आपके कान में फुसफुसा कर कहते हैं और आपके हर गलत काम को सही कर देने की दक्षता दिखला देते हैं। अरे गलत काम  हो तभी तो इनकी ज़रूरत पड़ती है बल्कि आजकल तो सही काम करवाने के लिए भी इन बीच के आदमियों की ज़रूरत पड़ती है। कभी इन्हें इलाज कहा जाता था, आज देश का सांस्कृतिक संस्तरण होने के बाद इसे सम्पर्क संस्कृति कह दिया जाता है।
आजकल नई संस्कृतियां हवाओं से उतरने लगी हैं। एक का नाम है ‘शार्टकट संस्कृति’ जिसका चर्चा आज घर-घर में है। इसके पैरोकार आज घर-घर में मिलते हैं। इनका काम टेढ़े रास्तों को सीधा करवाना होता है। महीनों का काम मिनटों में करवाना होता है। 
पिछले दिनों हल्ला हो गया कि देश की एक महान प्रतिष्ठित अकादमी ने उन किताबों को इनाम बांट दिए, जो छपी निश्चित तिथि के बाद लेकिन यारों ने क्योंकि इनाम बांटने वाले पटा रखे थे, इसलिए उनका प्रेषण पहली तिथि में डाल कर उन्हें इनाम दे दिया गया। अरे यह तो छोटी बात है। लोग तो अपने खर्चे पर पुस्तक छपवा, अपने खर्चे पर उसका सम्मेलन करवा स्वयं ही अभिनंदित होने लग गये हैं। अब बताइए यहां किसी अल्लाह के मेहरबान होने की ज़रूरत क्या है। लोग तो अपने अल्लाह खुद ही बन गये हैं। सारी उम्र कला के मैदान में पटखनी खाने के बाद खुद अपने अल्लाह बन गये, और अपने गले में स्वयं मैदान के पहलवान हो जाने का खिताब लटका लिया।
बात यहां तक ही समित नहीं रही। अब तो इसकी दुकानदारी भी बाकायदा नियमित हो गई है। आपको अकादमिक डाक्टरेट की डिग्री लेनी है न। नामित। खुले आम इश्तिहार छपते हैं। इसकी बाकायदा फीस चुकाइए। आपकी आर्थिक क्षमता जांच कर आपको डिग्री दे दी जाएगी। आपको ‘भारत गौरव’ का अवार्ड लेना है न।नामित। डेढ़ लाख रुपए दाखिला फीस है। फीस के साथ प्रार्थना भेज दीजिये। आपको शानदार समारोह में अवार्ड दे दिया जाएगा। यह कैसा ज़माना आया रे, बन्धु। हम पेशेवर गोष्ठी आयोजकों से कहते हैं, आपका काम तो कार्पोरेट हो गया, फीस चुकाओ नामित डाक्टर हो जाओ। फीस चुकाओ तो भारत गौरव हो जाने का तगमा लगाओ। अब न ज़रूरत रही स्वनामधन्य, अल्लाहों की मेहरबानी लगाने की। बस पैसा फैंको, और तमाशा देखो बन्धु।