लोहे की दीवारों के पार द्वार

इन लोहे की दीवारों को पार करके मुक्ति मार्ग पर निकल जाना कितना कठिन होता है? यह लोहे की दीवार कहीं खड़ी नज़र नहीं आती, लेकिन जगह-जगह इसका वजूद नये खून के रास्ते में आकर खड़ा हो जाता है। दीवारें हिलती नहीं और उसके साथ सिर टकरा-टकरा कर पछाड़ खाता हुआ कानून हार जाता है। तब नयापन पुराने में तबदील हो जाता है, और उसके खून की गर्मी की आंच ठंडी ही नहीं, बासी हो जाती है। खून अपने को खून कहलाने पर शर्मिन्दा हो जाता है। बेहतर होता, पहले ही इसे पानी कह दिया जाता। उसे बता दिया जाता कि रगों में दौड़े फिरने के तुम नहीं हो काबिल। गर्म होने से पहले ही जो जम जाये उसे क्या आप अपनी रगों में फिरकी की तरह दौड़ता हुआ खून कहोगे?
क्या उसे वह बेचारा आदमी नहीं कहोगे, जो एक ही खिड़की पर तुरंत अपना सब काम कर देने के विश्वास के साथ आया था, लेकिन अब एक लम्बी कतार में एक सदी जैसे इंतज़ार के बाद, बाहर आ गया है, उस बीच के आदमी को ढूंढने के लिए, कि जिसके सही सम्पर्क के मिल जाने की कृपा से खिड़कियों के पीछे ऊंघते हुए कर्मचारी जाग उठते हैं। उनके रुके हुए सर्वर चल पड़ते हैं, और इनका अनन्त के अधर में लटका हुआ काम चुटकियों में होता हुआ दिखाई देता है।
आप हर दीवार गिरा कर एक नये समाज नई संस्कृति के निर्माण की बात कर रहे थे न। जी हां, दीवार गिरने का नारा तो लग गया। नये खून ने नये युग का निर्माण कर दिया, आपने इसका नारा भी लगा दिया। इसकी सफलता का उत्सव भी मना लिया, लेकिन यह कैसी नई सुबह थी जिसने उनकी गलियों को वही पुराना अंधेरा भेंट कर दिया। यह कैसी विकास दर की तरक्की थी, कि जिसने देश के अस्सी करोड़ लोगों को रियायती राशन देने की तिथि को पांच बरस का और विस्तार दे दिया। यह कैसी नई संस्कृति थी जो बीच के लोगों और मध्यजनों की सम्पर्क संस्कृति की बैसाखियों के बिना दो कदम भी नहीं चल पाती।
अपने पैरों पर चल कर कर्त्तव्य पथ कैसे पूरा कर लेती, नये खून की धमक, जबकि उसके दाखिले के द्वार पर एक ऐसा मशीनी ढांचा बैठा है, जो भ्रष्टाचार को शून्य स्तर पर भी न सहने के दावों के बावजूद सिर से पांव तक भ्रष्ट व्यवस्था की कालिख से लिथड़ा है। हम इसे सफेदी का एक नया संस्करण बनाने का उपक्रम करते रहते हैं। कर नहीं पाते।
जी हां, हम दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला युवा देश बन गये हैं, लेकिन इन युवकों को नई दुनिया के जागरण का प्रशिक्षण देने वाली संस्थानों के दाखिले पर तो उन्होंने नकल माफिया के ताले लगा दिये। आप लोहे की दीवारों की बात करते हैं, यहां तो एक समानान्तर और नियोजित व्यवस्था खड़ी हो गई जहां मेहनत के स्थान पर सिफारिश चलती है। परीक्षा में योग्यता के सही आकलन की जगह आपके मामा या फूफा के द्वारा ‘पर्चा लीक’ का एक नया सत्य उजागर होता है। सत्य उजागर हो जाये, तो भी इस व्यवस्था को जड़ से उखाड़ कर फेंकना नहीं है। इसके स्थान पर एक जांच कमेटी बिठा दो जो पता करे कि इस व्यवस्था में त्रुटि कहां रह गई? कायाकल्प के नाम पर यहां संशोधनवाद चलता है और तब झल्ला कर ठंडा होता हुआ खून कह देता है, ‘बन्धु, यह महान देश है, यहां सब चलता है।’
हां यहां सब चलता है। नौजवानों की दाखिला परीक्षाएं ही नहीं, इस कथित उभरते संवरते समाज की पूरी ज़िन्दगी ही जैसे ठेके पर दे दी गई है। विकास गति को तेज़ करने के नाम पर हमने एक नई शार्टकट संस्कृति को जन्म ही नहीं दिया बल्कि उसकी सर्वग्रासी सत्ता को भी स्वीकार लिया है।
दासता की मानसिकता से छुटकारा पाने के नाम पर शीर्षक बदलने के बावजूद हम उमर की तपती सड़क पर खुले बन्दों नंगे पांव चलना नहीं सीख पाये। यह एक सड़क है और सत्तावन गलियां, लेकिन खुली सड़क पर अपना सीना तान चलने का साहस हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी नहीं जानते। बस हर कामयाब आदमी को अपने लिए एक-एक चोर गली चाहिए, जो उसे महानता की नई मंज़िल तक ले जा सके। आप एक सड़क की जगह सत्तावन गलियों की बात कहते हैं। यहां तो सत्तावन सौ गलियां भी कम पड़ जायें, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गया है यह देश और हर व्यक्ति अपनी हथेली पर सरसों का फूल नहीं, पूरा खेत उगा लेना चाहता है।
इसीलिए तो आज सड़कों का सीधा राह गुम हो गया। सच, आदर्श, और ईमानदारी की पैरवी करने वाले अतीत बन गये। चोर गलियों के नम्बरदार वर्तमान ही नहीं भविष्य की चाकरी करते भी नज़र आते हैं। आज जो मसीहा की चाकरी करते हुए उसका ज़िन्दाबाद बनते हैं, कल वह भी इसी चोर दरवाज़े  से नये युग का मसीहा बन जाना चाहते हैं।
बन्धु, ज़माना शून्य से उतर कर आये मसीहाओं का है, उनके मुखौटों का है। समाज हो या साहित्य, कला हो या सौन्दर्य बोध। आज लगता है सब पैमाने बदल गये। ‘हर शाख पर उल्लू बैठे हैं, इस चमन का यारो क्या होगा?’ यह चिन्ता तो बहुत पुरानी हो गई। मन तो युग नव-चिन्तन का है, कि चलो शाख पर ध्यान मग्न उन उल्लुओं से ही कैसे काम चलाया जाये? काम चलाने का एक तरीका तो महिमामण्डन का है। उसके लिए आपके पास प्रशस्ति गायन का गुण होना चाहिए। कला वीथियों से लेकर समाज के ऊंचे झरोखों से, ये गायक ही तो झांक रहे हैं, और आपको असमता के उतार चढ़ाव से समतावाद का संदेश देते हैं। अनुकम्पा की बन्दर बांट से नये उद्यम का संदेश देते हैं। आरोपित को अभियुक्त नहीं, क्रांतिवीर कह देने का संदेश दे अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं। उधर नई पीढ़ी रुकी है दाखिला द्वार पर, उस जांच कमेटी की रिपोर्ट का इंतजार करते हुए, जो उनके सपनों भरी ज़िन्दगी के सब रास्ते हमवार कर देगी। रुकी ही तो है। आज रुकी है, कल चल पड़ेगी।