बासमती की अनेक किस्में विकसित करने वाले वैज्ञानिक डा. अशोक कुमार सिंह

गत सप्ताह रविवार 30 जून को डा. अशोक कुमार सिंह डायरैक्टर तथा उप-कुलपति आई.सी.ए.आर.-इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट नई दिल्ली संस्थान में 30 वर्ष की सेवा करने के बाद सेवानिवृत्त हो गए। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़े तथा आई.ए.आर.आई. से पी.एच.डी. करने वाले डा. सिंह संबंधी बहुत विशेषण इस्तेमाल किए जा रहे हैं, परन्तु सबसे बड़ा उप-नाम जो मैं समझता हूं उनका यह है कि वह किसानों को बहुत प्यार करते हैं। कोई भी किसान जो उन्हें मिलने गया, निराश होकर नहीं लौटा। उनसे मिलने के बाद प्रत्येक किसान कहता था, ‘मेरा डा. ए.के. सिंह।’ उन्हें किसानों तथा कृषि उद्योगपतियों से पूरा सम्मान तथा प्यार मिला। उनके द्वारा बासमती क्षेत्र में एक इन्कलाब लाया गया। बासमती की किस्में विकसित करने वाला उच्च दर्जे का माहिर वैज्ञानिक बासमती की लगभग 20 किस्मों के विकास में जुटा रहा। बहुत ऊंचे-ऊंचे स्थानों से ये घोषणाएं होती रहीं कि जल्द ही बासमती की एक ऐसी किस्म किसानों को दी जाएगी, जिसके लक्ष्ण बासमती के तथा उत्पादन धान जितना होगा, परन्तु यह सपना ही रहा, जो डा. सिंह ने अपनी किस्म पूसा बासमती-1509 विकसित करके साकार कर दिया। कम समय में पकने वाली डा. सिंह की पूसा बासमती-1509 किस्म से बहुत-से किसान 28 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक उत्पादन ले रहे हैं। उन्होंने बासमती की ऐसी किस्म विकसित की जिसका उत्पादन धान जितना है और मुनाफा इससे दो-अढ़ाई गुना, पानी की खपत भी कम। इस किस्म का चावल पूसा बासमती-1121 किस्म जो विश्व के दूसरे देशों को निर्यात की जा रही है, के साथ निर्यात में उल्लेखनीय हिस्सा डाल रही है। कई अन्य किस्में जैसे पूसा बासमती-1718, पूसा बासमती-1692, पूसा बासमती-1728 आदि देने के बाद हाल ही में इस वैज्ञानिक ने बासमती की तीन और सफल किस्में पूसा बासमती-1847, पूसा बासमती-1885 तथा पूसा बासमती-1886 विकसित करके भी किसानों को दीं, जो झुलस तथा भुरड़ रोगों से मुक्त हैं। इस वैज्ञानिक के प्रयासों से भारत 46 लाख टन बासमती निर्यात करके 40,000 करोड़ रुपये तक की विदेशी मुद्रा कमा रहा है।
पंजाब की फसली विभिन्नता में डा. सिंह की किस्में बहुत प्रभावी सिद्ध हुई हैं। शुरू-शुरू में फसली विभिन्नता कार्यक्रम में बासमती की काश्त का दर्जा बहुत नीचे था, जो अब सबसे ऊपर आता है। लगभग 5 लाख हैक्टेयर रकबा आई.ए.आर.आई. की बासमती की किस्मों की काश्त के अधीन है। डा. सिंह की झोली में रफी अहमद किदवई पुरस्कार, ब्रलोग अवार्ड, भारत रत्न सी. सुब्राह्मणयम पुरस्कार, डा. बी.पी. मैमोरियल पुरस्कार तथा कई अन्य अवार्ड हैं, परन्तु सबसे बड़ा पुरस्कार उन्हें जो मिला, वह पंजाब के 10,000 किसानों पर आधारित पंजाब यंग फार्मर्स एसोसिएशन द्वारा वर्ष 2018 में डा. अमरीक सिंह चीमा अवार्ड से उन्हें सम्मानित करना था। इस अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि को हासिल करने वाले चावल के ब्रीडर वैज्ञानिक की बासमती के क्षेत्र में विश्व में पहचान है। पंजाब के भू-जल का स्तर कम होने की समस्या के दृष्टिगत इस वैज्ञानिक ने हाल ही में ‘हर्बीसाइड रज़िस्टैंट’ बासमती की दो किस्में पूसा बासमती-1979 तथा पूसा बासमती-1985 सीधी बिजाई के लिए इस वर्ष किसानों की सेवा में पेश कीं। ये किस्में किसानों के पास आने के बाद सीधी बिजाई का रकबा बढ़ने की उम्मीद बंध गई है।
उत्तर प्रदेश के बाराहत (गाज़ीपुर) में 1 जुलाई, 1962 को जन्मे डा. सिंह का मानना है कि उत्तर-पश्चिम भारत विशेषकर पंजाब, हरियाणा आदि क्षेत्रों के किसानों के लिए विकास का मार्ग बासमती में से निकला है, क्योंकि यहां धान-गेहूं फसली चक्कर प्रमुख है। डा. सिंह ने अपने पद की व्यस्तता के बावजूद किसानों के खेतों का दौरा लगातार जारी रखा, जिससे किसानों को धान की बजाय बासमती की काश्त करने के लिए बड़ा उत्साह मिला। उनकी सोच यह रही कि किसानों की आय कैसे बढ़ाई जाए? किसानों की आय बढ़ाने के लिए उनकी आंखों के आगे विकसित देशों के किसानों के उच्च स्तर के मंज़र हमेशा घूमते रहे और उन्होंने इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बासमती पर काम करके लगातार सफल प्रयास किये। अपनी व्यस्तता के बावजूद उन्होंने 150 खोज पत्र लिखे और एक किताब लिख कर भी प्लांट ब्रीडिंग के विद्यार्थियों को दी। डा. सिंह के योगदान की पंजाब की कृषि पर अमिट छाप है। किसानों को उम्मीद है कि सेवानिवृत्ति के बाद भी वह किसानों के साथ रिश्ता बनाए रखेंगे और उन्हें विशेषकर बासमती के क्षेत्र में अपने नेतृत्व से लाभ पहुंचाते रहेंगे।