सोच का स्वतंत्रता दिवस कब मनाएंगे ?

स्वतंत्र भारत के 77 वर्षों के दौरान बहुत कुछ बदल गया है। बदलाव लाज़िमी भी था। बहुत विकास कर लिया देश ने प्रत्येक क्षेत्र में, आधुनिकता ने अपने पांव सभी ओर पसारे हैं, साईंस की तरक्की से, तकनालोजी आज हमारी ज़िन्दगी का अहम हिस्सा बन गई है। स्वास्थ्य, पढ़ाई, खेलें आदि सब आज तकनालोजी पर निर्भर है। जब हम विकास करते हैं, हमारा देश चांद तक पहुंच गया देखते हैं, तो मन को खुशी होती है और भीतर जोश भरना बहुत ही स्वाभाविक है।
स्वतंत्र भारत ने अपनी सोच में भी तरक्की की। महिलाओं को शिक्षित होने के अवसर मिले, समाज में उनकी पहचान बढ़ी, प्रत्येक क्षेत्र में उनकी स्वीकार्यता बढ़ी है और महिलाओं को जहां जो अवसर मिला, उन्होंने अपने-आप को सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
आज की नारी अपनी ताकत को समझ गई है और उसमें आत्म-विश्वास बढ़ा है। आज महिला को यह स्थान उसके अपने बलबूते, अपनी सोच पर मिला है।
बहुत अलग तरह की गुलामियों, हर तरह के अत्याचार सहन करके आज 21वीं सदी की महिला की सोच भी सचमुच प्रत्येक पक्ष से स्वतंत्र हुई है। चाहे बात करें मध्य वर्ग या उच्च वर्ग की, काफी सीमा तक सोच के पक्ष से ये समान ही हैं। 21वीं सदी की स्वतंत्र महिला बच्चों के साथ मातृ भाषा में बात न करना, अपने शरीर को न भी जचते हों और हर प्रकार के नये फैशन के परिधान नकल करके पहनने, दूसरों की चीज़ों की ओर देख कर उनका मुकाबला करना, दूसरों के बच्चों की तरक्की से अपने बच्चों की तुलना करना, अपने मित्रों, रिश्तेदारों की तरक्की पर खुश न होना आदि जैसी संकीर्ण मानसिकता वाली बुराइयों की अभी भी गुलाम है और यह सूची बहुत लम्बी है, जो खत्म नहीं हो सकती। क्या यह सूचि स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र सोच वाली महिला को शोभा देती है?
एक ओर साइंस एवं तकनालोजी नित्यप्रति हमें नई ऊंचाइयों पर ले जा रही है तथा एक ओर हम अंध-विश्वासों के चक्कर में फंसते जा रहे हैं। हमारी नई पीढ़ी जिसकी सोच आज बिल्कुल सच के निकट एवं पारदर्शी है, हम उन्हें भी यह सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं कि वहमों-भ्रमों के पीछे पड़े बिना तरक्की हासिल नहीं हो सकती, हमारी नई पीढ़ी जब अपने पूर्वजों को, धार्मिक स्थानों को प्राथमिकता न देकर कई कथित स्थानों या शख्सियतों के पहल देते देखते हैं तो बहुत स्वतंत्र सोच वाली पीढ़ी के मन, दिमाग को कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता, वह फिर भीतर ही भीतर दुविधा के शिकार हुए रहते हैं। 
घर में नारी चाहे दादी, नानी चाहे मां के रूप में हो, बच्चे इनकी शिक्षाओं आदि को देख कर बड़े होते हैं और वही बातें अपने जीवन में किसी सीमा तक अपनाते भी हैं। क्या हम इस नई सोच को पुरातन तथा पिछड़ी बनाना चाहते हैं।
आज की स्वतंत्र सोच वाली महिला क्यों अपनी सोच को नकारात्मक बना रही है। सोशल मीडिया ने आज हर किसी के जीवन में क्रांति ला दी है, परन्तु इस क्रांति का हम लाभ नहीं उठा रहे, अपितु हमने अपनी शख्सियत पर गर्व करना तथा निखारना छोड़ दिया है और अंधाधुंध सोशल मीडिया के कारण अन्यों को अपनाना शुरू कर दिया है। प्रत्येक का जीवन आज बहुत ही भाग-दौड़ वाला तथा तनावपूर्ण हो चुका है।
हर कोई जश्न मना कर, दोस्तों-मित्रों को मिल कर तनाव-मुक्त होना चाहता है, परन्तु अक्सर आजकल विशेषकर महिलाएं एक-दूसरे को मिलती हैं, फोटो खींच कर दिखावा भी करती हैं, परन्तु क्या आज हमारे मन में दिखावे के अतिरिक्त सच्ची-सुच्ची मित्रता की भावना या एक-दूसरे के लिए सकारात्मक सोच भी होती है, जिस प्रकार की सोच, शारीरिक भाषा, व्यवहार तथा रहन-सहन से हम अपने-आप को स्वतंत्र भारत की स्वतंत्र एवं आधुनिक नायिका समझ रहे हैं, वास्तव में वह हमारा एक भ्रम है, इस भ्रम को नई स्वतंत्र, सकारात्मक सोच से बदलना आवश्यक है।
अपने घर, अपने बच्चों बारे सोचने के  अतिरिक्त अपने आस-पास के प्रति भी चिन्तित हों, समाज के बेसहारा लोगों बारे, धरती के कम होते साधनों तथा बढ़ते प्रदूषण आदि बारे भी सोचना शुरू करें। एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र महिला को ‘मैं’ वाले घोंसले से बाहर निकल कर अपनी सोच, अपने मन को नया करना पड़ेगा, ‘हम’ वाले रवैये से जोड़ना पड़ेगा, तभी हमारे फेफड़े खुल कर सांस ले सकेंगे और तभी ‘21वीं सदी की स्वतंत्र सोच वाली महिला’ की बात से न्याय होगा। 

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