पूरे विश्व की नज़र मोदी की यूक्रेन यात्रा पर

23 अगस्त को यूक्रेन का नेशनल फ्लैग डे है। किसी देश के इतिहास में उसके राष्ट्रीय ध्वज दिवस का बहुत महत्व होता है। इसे हम अपनी आज़ादी की जंग की पृष्ठभूमि से भी समझ सकते हैं। राष्ट्रीय ध्वज दिवस किसी देश की आज़ादी की जंग में शहीद हुए सैनिकों को सलाम करने और देश के नागरिकों व सशस्त्र बलों के बीच मौजूद पारस्परिक संबंधों को बढ़ाने का दिन होता है। ऐसे खास दिन जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की की एक दूसरे से गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए तस्वीर पूरी दुनिया की मीडिया में छपेगी तो उसका एक खास संदेश होगा। वैश्विक कूटनीति के गलियारे में इस तस्वीर के एक एक रेशे के अर्थ निकाले जायेंगे। ठीक वैसे ही जैसे पिछले महीने यानी जुलाई 2024 में मोदी ने जब अपने तीसरे कार्यकाल की विदेश यात्रा की शुरुआत रूस यात्रा से करके पूरी दुनिया को चौंका दिया था। वह समय इसलिए भी बेहद संवेदनशील था, क्योंकि जिस दिन मोदी मास्को में थे, उसी दिन रूस ने यूक्रेन के कीव शहर में बच्चों के एक अस्पताल हमला किया था, जिसमें कई मासूम बच्चों ने अपनी जान गंवाई थी।
हालांकि खुल करके तो सिर्फ  ज़ेलेंस्की ने ही तब कहा था कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री का एक खूनी राष्ट्रपति से गले मिलने की तस्वीर भयावह है, लेकिन क्योंकि ठीक उसी समय नाटो का शिखर सम्मेलन भी अमरीका में चल रहा था, इसलिए मोदी की उस मास्को यात्रा से न तो यूरोप के देश खुश थे, न ही अमरीका। सब ने अपनी अपनी तरह से तंज भी किया था और वैश्विक कूटनीतिक के विश्लेषकों ने इसे तब भारत पर रूस के दबाव के रूप में इसका विश्लेषण किया था। जबकि ठीक उसी तरह आज की तारीख में दुनियाभर के कूटनीतिक विशेषज्ञ भारत पर अमरीका के कूटनीतिक दबाव की बात कर रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि न तो अब भारत पर रूस के दबाव का नतीजा था और न ही इस समय कीव की यात्रा भारतीय प्रधानमंत्री पर अमरीका के दबाव का नतीजा है।
वास्तव में प्रधानमंत्री मोदी ने जो साहस दोनो जगहों की यात्रा करके दिखाया है उसके बड़े गहरे और दूरगामी मायने हैं। भारत का यह जोखिम उसे एक शांति दूत के रूप में भी स्थापित कर सकता है। दरअसल भारत के प्रधानमंत्री ने न तो कभी नई दिल्ली से और न ही मास्को में रहते हुए भी कभी रूस के पक्ष में कोई बयान दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साल पहले भी और हाल की अपनी मास्को यात्रा के दौरान भी, वही बात दोहरायी थी कि यह वक्त जंग का नहीं है। खासकर मास्को में राष्ट्रपति पुतिन के सामने आंख से आंख मिलाकर यह बात कहना अपने आपमें एक बड़ा संदेश है। भारत ने हमेशा क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता की पवित्रता की बात दोहरायी है, इस बात से पूरी दुनिया परिचित है। इसलिए चीन की तरह भारत के प्रधानमंत्री मास्को जाकर भी रूस के पक्षधर या उसके पाले में खड़े होने का संदेश नहीं देते। भले प्रधानमंत्री मोदी की मास्को यात्रा को यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की ने तब ‘शांति प्रयासों के लिए विनाशकारी झटका’ बताया हो, लेकिन इस समय प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह का जोखिम ले रहे हैं, उसके अंतिम सिरे में शांति की भरपूर संभावनाएं हैं।
हालांकि दूसरों की तो छोड़िये खुद भारत के कई कूटनीतिक विशेषज्ञ खास तौर पर रक्षा मामलों के जानकार इसे सही समय पर की जाने वाली सही यात्रा नहीं मान रहे। मशहूर कूटनीतिक विशेषज्ञ ब्रह्मचेलानी ने सोशल मीडिया एक्स पर प्रधानमंत्री मोदी की इस यात्रा को खराब निर्णय माना है। उनके शब्दों में, ‘इस समय मोदी की यूक्रेन यात्रा काफी बुरी साबित हो सकती है। यूक्रेन की घुसपैठ के बाद रूस उस पर बड़े हमले की तैयारी कर रहा है और अमरीका युद्ध विराम में कोई दिलचस्पी नहीं ले रहा।’ कुल मिलाकर ब्रह्मचेलानी का मानना है कि अगर मोदी की मौजूदगी में रूस यूक्रेन पर जबरदस्त हमला करता है तो इससे भारत की किरकिरी होगी, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमरीका जिस तरह महज हथियार देकर यूक्रेन से अपनी ज़िम्मेदारी का पल्ला झाड़ रहा है और जिस तरह क्रैमलिन अढ़ाई साल गुजर जाने के बाद भी जंग के किसी निर्णायक मोड़ पर पहुंचता नहीं देख रहा, उससे सच तो यह है कि दोनों ही तरफ के लड़ाकू युद्ध खत्म होने का कोई वाजिब व सम्मानीय बहाना ढूंढ रहे हैं। ऐसे में अगर भारतीय प्रधानमंत्री दिलेरी से कोशिश करते हैं तो कौन जाने यह श्रेय उनका इंतज़ार कर रहा हो? दअरसल इतनी लम्बी खिच रही जंग से यूरोप भी उकता गया है, क्योंकि उसके प्रतिबंधों की सख्ती रूस का तो बाल बांका कर नहीं पा रही, उल्टे उसके ही ऊर्जा समीकरण गड़बड़ा गये हैं और अब लगने लगा है कि जोश-जोश में या अमरीका के पीछे आंख मूंदकर चलने से यूक्रेन का बोझ उनके कंधे पर आ गिरा है।
कुल मिलाकर रूस और यूक्रेन जंग की फिलहाल स्थिति अब यह है कि उससे हर कोई छुटकारा पाना चाहता है, लेकिन अपनी तरफ से कोई पहल करता नहीं दिख रहा। ऐसे में अगर भारत यह जोखिम मोल लेकर जंग रूकवाने की कोशिश करता है, तो एक साल पहले के मुकाबले आज सौ फीसदी ज्यादा सफलता की उम्मीद है। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर