धन से बढ़ कर नाम

प्राचीन काल में भारत के एक नगर में शिवरतन नामक एक पंडित रहते थे। वह बहुत विद्वान थे। लेखन उनका व्यवसाय था। उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा धन ही नहीं, यश भी कमाया था। उनकी रचनाएं देश प्रेम, चरित्र निर्माण और मानवता आदि गुणों से ओतप्रोत थीं। 
उस समय वीरसिंह नामक एक भयंकर डाकू का आतंक चाराें तरफ छाया हुआ था। लोग उसके नाम से थर-थर कांपते थे। किसी को भी दिन-दहाड़े लूट लेना और कत्ल कर देना उसके बाएं हाथ का खेल था। दया उसके हृदय में नाममात्र भी नहीं थी। 
एक दिन अपने गिरोह के साथ वीर सिंह ने शिवरतन के घर पर धावा बोल दिया। वह अपनी बंदूक पंडित जी की तरफ करते हुए खड़ा हुआ। 
‘पहले जलपान कर लीजिए ठाकुर साहब, ऐसी भी क्या जल्दी है?’ शिवरतन ने शांत भाव से कहा। 
‘मैं फालतू बातें नहीं सुनना चाहता। मैं जो कह रहा हूं, वही करो,’ वीरसिंह ने कड़कती आवाज में कहा। 
‘यह लीजिए,’ तिजोरी की चाबी फेंकते हुए शिवरतन ने कहा, ‘तिजोरी के पहले खाने में सोना व आभूषण हैं, दूसरे खाने में जवाहरात हैं और तीसरे खाने में रोकड़ वगैरह हैं। चांदी यहां जमीन में दबाकर रखी गई है। जितनी चाहे ले लो।’ 
वीरसिंह के साथियों ने देखते ही देखते सारा माल तुरंत अपने कब्जे में कर लिया। 
शिवरतन को लूटकर जब वीरसिंह चलने को हुआ, तब पंडित जी ने कहा, ‘ठाकुर साहब, जलपान तो कर ही लेते। यहां जल भी है और मौका भी है। फिर न जाने कहां मौका लगे।’ 
‘तुम्हें माल जाने का गम नहीं है, पंडितजी,‘ वीर सिंह बोला, ‘आज तक हमने इतनी डकैतियां डालीं पर किसी ने भी इस तरह हंसी-खुशी अपना माल नहीं दिया। कहीं किसी को मारा-पीटा, कहीं डराया-धमकाया, कहीं कत्ल भी करने पड़े लेकिन आपने सारा माल स्वेच्छा से दे दिया। मुझे ताज्जुब हो रहा है।’ 
‘मैंने अपने जीवन में खूब धन और यश कमाया है, ‘शिवरतन ने गर्व से कहा, ‘अपनी एक-एक रचना से मुझे अपार धन प्राप्त हुआ है। अभी मैंने ‘पारसमणि’ की रचना की है। उससे अपार धन और नाम की प्राप्ति होगी। मेरी रचनाओं की पाठक बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। मैं धन के लिए नहीं, नाम के लिए जीता हूं। नाम धन से बढ़कर है।’
‘यह पारसमणि क्या है?’ वीरसिंह ने पूछा।
‘पारसमणि मेरी नई रचना है जिसमें भारत ने प्राचीन आदर्श महापुरूषों के चरित्र, त्याग और उत्तम आचरणों का वर्णन किया गया है। इसके अध्ययन से पाठक अपना जीवन उन जैसा ही महान बना सकते हैं। ईश्वर की बनाई हुई पारसमणि लोहे को सोना बना देती है, पर यह पारसमणि मनुष्य को महापुरूषों जैसा बनाएगी,’ पंडितजी ने कहा। 
तब तो हम यह पारसमणि ही लेंगे, वीरसिंह बोला, ‘हमें तुम्हारा माल नहीं चाहिए। हम आज से डकैती भी नहीं डालेंगे।’ 
पंडितजी मुस्कुराते हुए बोले, ‘पारसमणि भी ले जाओ वीरसिंह और माल भी।’ 
वीरसिंह व उसके साथियों पर पंडितजी के व्यवहार व पारसमणि पुस्तक का इतना असर पड़ा कि वे माल वहीं छोड़कर वापस चले गए और उसी दिन से उन्होंने डकैती डालना भी छोड़ दिया। (उर्वशी)

#धन से बढ़ कर नाम