अलौकिक अध्यात्म का रोमांचक आख्यान महाकुंभ
अगर आपके कान बचपन से ही अपनी परवरिश के दौरान महाकुंभ के किस्से सुनने के आदी रहे हैं, तो यकीन मानिये पहली बार जब आप महाकुंभ के विहंगम दृश्य से दोचार होंगे, तो स्तब्ध रह जाएंगे। कुछ कहते सुनते या व्यक्त करते ही नहीं बनेगा। मैंने महाकुंभ पर अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन की यह टिप्पणी पहली बार कुंभ का औचक एहसास करने के बाद पढ़ी थी, इसलिए मैं दंग रह गया था कि यह शब्दश: बिल्कुल वैसी ही टिप्पणी थी, जैसी कि मैंने पहली बार 22 साल की उम्र में महाकुंभ से दोचार होने के बाद महसूस की थी। मीलों तक भगवा वसनों में लिपटे साधु संतों की कतारें, प्रतिध्वनि का एहसास कराते उनके मंत्रोच्चार, जहां तक नज़रें देख सकती हैं, वहां तक फैला जन सैलाब, यह एक ऐसा लैंडस्केप होता है, जो कुंभ के अलावा आप कहीं नहीं देख सकते। शायद यही वजह है कि जितने भी विदेशी लेखकों, पर्यटकों और विभिन्न क्षेत्रों के महान व्यक्तित्वों ने कुंभ को देखा है, उनके लिए इसका वर्णन अनिवर्चनीय सा रहा है। इसमें शामिल हुए हैं तो उनकी स्थिति इसका वर्णन न कर पाने वाली रही है।
ह्वेनसांग जैसा बेहद तटस्थ यात्री जिसने पहली बार 7वीं शताब्दी में भारत का विस्तार से ‘फर्स्ट हैंड एकाउंट’ दर्ज किया था। वह बेहद तटस्थ और किसी चीज के वर्णन के दौरान भावनाओं को काबू में रखने वाला इतिहासकार भी महाकुंभ को देखकर अचंभित और अभिभूत रह गया था। उसने लिखा है कि धार्मिक भक्ति का यह आयोजन अद्वितीय है।
अमरीकी कवि और लेखक एलन गिंसबर्ग ने महाकुंभ के अनुभव को व्यक्त न किया जा सकने वाला अद्वितीय अनुभव बताया है। वह कहते हैं इससे भारतीय संस्कृति की गहराई और आध्यात्मिकता का एहसास किया जा सकता है। मार्क ट्वेन तो पत्रकार भी थे और वह किसी चीज का महिमामंडन करने से बचते थे। अपनी संतुलित रिपोर्टों के लिए जाने जाने वाले मार्क ट्वेन ने महाकुंभ को लेकर लिखा है, ‘इसमें बिना किसी दिखावे के आध्यात्मिक उद्देश्य से जितनी विशाल संख्या में लोग आते हैं, वह आश्चर्यचकित करती है।’ शायद महाकुंभ इंसानी भावनाओं और कल्पनाओं को पराकाष्ठा की हद तक झकझोर देने वाला अनुभव होता है। यही कारण है कि एक सामान्य हिंदू बचपन से ही जिसके कानों में महाकुंभ के किस्सों की लंबी स्मृतियां मौजूद होती हैं, वह जब पहली बार साक्षात कुंभ से दो-चार होता है तो उसकी विराटता और भव्यता को देखकर रोमांच से अभिभूत हो जाता है, तब वह इस पर कोई टिप्पणी कर सकने की स्थिति में नहीं रहता। महाकुंभ सचमुच बेहद गहन और अद्वितीय अनुभव है। पहली बार महाकुंभ को अपनी आंखों से देखने वाला कोई उससे पहले, उतनी बड़ी भीड़ नहीं देखी होती और वह भी बिल्कुल ठहरी हुई, बिना किसी उग्रता, बिना किसी बेचौनी के श्रद्धा और भक्ति में डूबी हुई। खासकर जब गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम प्रयागराज में महाकुंभ का आयोजन होता है, तो वह भावनाओं को तो आह्लादित करता ही है, आंखों को भी आश्चर्य में फैल जाने को मज़बूर कर देता है।
महाकुंभ का वातावरण इतना भाव और भक्तिपूर्ण, आध्यात्मिकता से ओतप्रोत होता है कि उसके वर्णन के लिए ठीक-ठीक शब्द नहीं मिलते। बस आप भावनाओं की दिव्यता और भव्यता से पुलकितभर होते रहते हैं। अगर कहें कि ये दुनिया का सबसे बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मेला है तो यह इसको पूरी तरह से नहीं व्यक्त करेगा। यह इतनी किस्म की भावनाओं का विशाल सम्मेलन है कि जहां सही मायनों में कोई एक एहसास ही नहीं रहता।
दिव्यता, भव्यता और भक्ति सब कुछ इस एहसास के सामने फीका पड़ जाता है। जब आप पहली बार कुंभ में डुबकी लगाते हैं, तो पता नहीं वह कौन सा ऐसा मनोविज्ञान है कि आप बेहद हल्कापन का एहसास करते हैं। लगता है वाकई शरीर का सैकड़ों मन का बोझ डुबकी लगाते ही पानी में बह गया। कुंभ में स्नान करते ही मन और शरीर एक अलौकिक किस्म की दिव्य ऊर्जा से भर जाता है। महाकुंभ के दौरान आंखों के अनंत छोर तक साधु संतों को देखना, उनके स्थिरप्रज्ञ वचनों को सुनना, जीवन को विराट रहस्य से भर देता है। सामूहिकता का इससे बड़ा एहसास शायद ही कहीं और देखने को मिलता हो, जितना बड़ा एहसास महाकुंभ में होता है।
लगता है महाकुंभ में धर्म और प्रकृति आपस में घुल मिल गये हों। कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा था। इसका तो पता नहीं पर महाकुंभ की भीड़ में आध्यात्मिकता का एक अदृश्य सुरूर का एहसास होता है। शायद यही वजह है कि हर 12 साल बाद हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में लगने वाले महाकुंभ में शामिल होने के लिए दुनिया के कोने-कोने से करोड़ों हिंदू तो आते ही हैं, अब लगातार उन विदेशी पर्यटकों की संख्या भी हर गुजरते साल के साथ बढ़ती जा रही है, जो धर्म से ज्यादा इसमें आध्यात्मिकता के पुलकभरे एहसास को महसूस करने के लिए आते हैं।
हालांकि बिल्कुल तथ्यात्मक ढंग से यह कह पाना मुश्किल है कि महाकुंभ की शुरुआत कब हुई? अगर इसके प्रस्थान किसी बिंदु का कुछ अनुमान लगाया जा सकता है, तो वह यह है कि हिंदू धर्म के पौराणिक ग्रंथों में जो समुद्र मंथन की कथा मिलती है, उसी मंथन से निकले अमृत कलश को, दैत्यों से बचाने के लिए जब देवता लेकर आकाश मार्ग से भागते हैं तो छीना-झपटी में जिन चार जगहों में अमृत की बूंदें टपक गयी थीं, उन्हीं जगहों पर हर 12 साल बाद पूर्ण कुंभ का आयोजन होता है। ये चार जगहें हैं- हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक। जहां तक महाकुंभ के उल्लेख की बात है तो इसका उल्लेख कई हिंदू धर्म ग्रन्थों में मिलता है। भागवत पुराण, विष्णु पुराण, रामायण और महाभारत में कुंभ का वर्णन मिलता है। इससे इतना तो तय है कि कम से कम पांच हजार सालों से तो आध्यात्म का यह मेला निरंतर आयोजित हो रहा है। लेकिन इतने साल होने के बावजूद इसका आकर्षण जरा भी फीका नहीं पड़ा। कुंभ का जादू आज भी उतना ही पुरकशिश है, जैसे जादू के बारे में हम सदियों से लोगों से सुनते आ रहे हैं। शायद इसीलिए सनातन परंपरा का यह आध्यात्मिक आख्यान जिसे हम महाकुंभ कहते हैं, चिर नूतन है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर