अनुभवी निर्देशक और लेखिका सई परांजपे

कुछ दिन पहले यह खबर आयी कि सई परांजपे, जो अब 86 बरस की हो गईं हैं, ने अपना मूल हस्तलिखित ड्राफ्ट्स व पटकथाओं का संग्रह अशोका विश्वविद्यालय के आर्काइव ऑ़फ कंटेम्पररी इंडिया को दान कर दिया है। यह अच्छा है क्योंकि संग्रह वहां सुरक्षित रहेगा और शोध छात्रों के काम आ सकेगा। यह खबर पढ़कर याद आया कि सई परांजपे को बुरा लगता था जब कोई उन्हें ‘महिला निर्देशक’ कहता था; क्योंकि वह लैंगिक समता की झंडाबरदार थीं और खुद को केवल ‘निर्देशक’ कहलवाना पसंद करती थीं, लेकिन यह भी तथ्य है कि जिस दौर में उन्होंने अपनी तीन क्लासिक फिल्मों-स्पर्श (1980), चश्मे बद्दूर (1981) व कथा (1983) का निर्देशन किया तो वह ही एकमात्र महिला थीं जो मुंबई में फिल्मों का निर्देशन कर रही थीं। 
इसमें शक नहीं है कि पुरुष प्रधान फिल्मोद्योग में सई परांजपे ने अपनी फिल्मों के माध्यम से विशेष व प्रभावी स्थान हासिल किया। उनकी सफलता में उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है। उनके नाना आरपी परांजपे पहले भारतीय थे, जिन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में मैथमेटिकल ट्राईपोस टॉप किया। उनकी मां शकुंतला परांजपे जो अपने माता पिता की इकलौती बेटी थीं, ने कैंब्रिज से ग्रेजुएशन किया, जिनेवा में इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन में काम किया, रुसी पेंटर यौरा स्लेपटज़ोफ्फ से शादी की और इस शादी के टूटने से पहले दो साल तक यूरोप में रहीं। इसके बाद पुणे लौट आयीं अपनी छह माह की बेटी सई परांजपे के साथ।  भारत लौटने पर शकुंतला ने फिल्मों में काम किया, जिसमें वी शांताराम की ‘दुनिया न माने’ (1937) भी शामिल है। बाद में वह विधायक और राज्यसभा की सदस्य भी रहीं। इस व्यस्तता के बावजूद उन्होंने अपनी बेटी पर भी खूब ध्यान दिया। सई परांजपे को उन्होंने संस्कृत व स्विमिंग सिखायी, उन्हें कला व संगीत की क्लास में लेकर गईं। जब उन्होंने देखा कि सई परांजपे में कहानी सुनाने की प्रतिभा है, तो उन्होंने ऐसा रूटीन स्थापित किया जिसके तहत उनकी बेटी रोज़ एक कहानी लिखती थी। फिर कहानी के इस संग्रह को प्रकाशित कराया गया और उस समय सई परांजपे की आयु मात्र 8 साल थी। सई परांजपे ने अपनी आत्मकथा ‘ए पैचवर्क कुइल्ट’ (2020) में अपनी मां के बारे में लिखा, ‘उनके पद चिन्ह मेरे हर रचनात्मक प्रयास में देखे जा सकते हैं।’
सई परांजपे ने अपना कॅरियर रेडियो व दूरदर्शन के साथ आरंभ किया, फिर वह थिएटर से होती हुई फिल्मों में आ गईं। यह अनुभव भी फिल्मों में बहुत काम आया। उन्होंने दूरदर्शन के लिए नेत्रहीन बच्चों पर एक टेलीफिल्म बनायी थी। इन बच्चों के होम के नेत्रहीन प्रधानाचार्य से वह बहुत प्रभावित हुईं। इसी को आधार बनाकर उन्होंने फिल्म ‘स्पर्श’ बनायी, जिसमें नसीरुद्दीन शाह नेत्रहीन प्रधानाचार्य की भूमिका में थे, जिन्हें विलाप करती एक युवा विधवा (शबाना आज़मी) से प्यार हो जाता है। ताशकंद फिल्म फेस्टिवल में जाने-माने फिल्म वितरक व निर्माता गुल आनंद ने सई परांजपे की पहली फिल्म ‘स्पर्श’ (1980) देखी थी, जोकि नेत्रहीनों की समस्याओं पर संवेदनशील व गंभीर फिल्म थी। गुल आनंद को यह फिल्म बहुत पसंद आयी, लेकिन इसके बावजूद वह चाहते थे कि सई परांजपे उनके लिए एक ऐसी फिल्म बनाएं जो हंसी मज़ाक, मौज मस्ती से भरी हो, जिसे देखने के बाद अच्छेपन का तो एहसास हो, लेकिन उसमें कोई सामाजिक उपदेश या संदेश न हो।
गुल आनंद की बातें सुनकर सई परांजपे को अपना टेलीप्ले ‘धुआं धुआं’ याद आ गया जो उन्होंने दूरदर्शन के लिए बनाया था। इस नाटक में केवल हास्य था और हास्य के अतिरिक्त कुछ नहीं था। इसमें तीन दिल फेंक कॉलेज के छात्र एक बरसाती में रहते हैं और दिन में खुली आंखों से सपने देखते रहते हैं। एक दिन वह एक जवान लड़की को नागिन की सी चाल में चलते हुए देखते हैं। वह एक-दूसरे को चुनौती देते हैं कि कौन उस लड़की से दोस्ती करने में सफल होगा? एक-एक करके तीनों कोशिश करते हैं, तीनों को ही मुंह की खानी पड़ती है यानी वे तीनों बुरी तरह से नाकाम रहते हैं। लेकिन लौटने पर तीनों ही अपनी कामयाबी की झूठी कहानी बनाकर सुनाते हैं। 
गुल आनंद को यह कहानी पसंद आयी, लेकिन वह इसमें एक संशोधन चाहते थे कि तीन दिल फेंक आशिकों में से एक को हीरो मटेरियल बना दिया जाये यानी समझदार, पढ़ाकू, मदद करने वाला, कठिन परिश्रमी, जिसकी प्रेम कथा फूलों की तरह खिलनी चाहिए न कि धुएं में उड़ जाये। फिल्म का शीर्षक भी ‘धुआं धुआं’ की जगह कुछ और रखा जाये। हालांकि शीर्षक बदलने के लिए सई परांजपे पहले तैयार नहीं थीं, लेकिन बाद में वह तैयार हो गईं। इस तरह क्लासिक ‘चश्मे बद्दूर’ की नींव रखी गई, जिसमें फारूक शेख, रवि बासवानी, राकेश बेदी, दीप्ती नवल और सईद जाफरी प्रमुख भूमिकाओं में थे। ‘चश्मे बद्दूर’ की सफलता से अचानक मुंबई में सई परांजपे की मांग बढ़ गई। लेकिन बड़े बैनर के निर्माता भी उन्हें कम बजट देने के लिए ही तैयार थे। आखिरकार उन्हें निर्माता सुरेश जिंदल मिले, जिन्होंने बासु चटर्जी की ‘रजनीगंधा’ और सत्यजीत रे की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में पैसा लगाया था। जिंदल को भी कॉमेडी फिल्म चाहिए थी। इसलिए सई परांजपे ने ‘कथा’ बनायी जिसे मुंबई की एक चाल में सेट किया गया। कछुए और खरगोश की लोककथा से प्रेरित इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। लेकिन सई परांजपे को कभी भी अपनी फिल्मों के लिए वह श्रेय नहीं मिला जिसकी वह हकदार थीं। वैसे वह भले ही ‘महिला निर्देशक’ के टर्म को पसंद न करती हों, लेकिन तथ्य यह है कि उनकी तैयार की गई नींव पर ही अनेक महिला फिल्मकारों ने अपनी इमारतें खड़ी की हैं।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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