थोड़ी सी छांव

ये कैसा सच था? यह मैं क्या पढ़ रहा था? यही सच था तो ऐसा क्यों था? ये सृष्टि की डायरी के मात्र तीन पन्ने उसके जीवन का सच बयान कर रहे थे। सृष्टि एक प्राध्यापिका के साथ एक कवयित्री भी है और हम साहित्यिक गोष्ठियों में एक साथ काव्य पाठ करते, मुलाकातें होतीं और सुनते सुनाते। इन्हीं गोष्ठियों में सृष्टि को लगा कि मैं उसकी कविताओं को रंग रूप दे सकता हूं और वह पहली बार घर आई और अपनी डायरी मुझे ऐसे सौंप गयी, जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु को सौंप रही हो और बोली- सर! मेरी इन कच्ची पक्की कविताओं को थोड़ा देख लीजिए। यदि आप कहेंगे तो एक कविता संग्रह मैं भी प्रकाशित करवा लूंगी! 
इस तरह सृष्टि मेरे लिखने पढ़ने की मेज़ पर अपनी डायरी रखकर चली गयी थी। कुछ दिन डायरी ऐसे ही पड़ी रही, फिर एक दिन जैसे उसकी कविताओं ने चिड़ियों की तरह चहचहा कर मुझे अपनी ओर बुला लिया। मैंने डायरी में से कवितायें पढ़नी शुरू कीं और एक जगह कविताएं न होकर उसकी अपनी ज़िंदगी का सच मेरे सामने था, पूरे तीन पन्नों में लिखा हुआ! क्या सृष्टि इन्हें डायरी सौंपते समय भूल गयी थी या वह इन पन्नों को मुझ तक पहुंचाना चाहती थी? मैं कुछ समझ नहीं पाया लेकिन ये पन्ने करवा चौथ जैसे नारी के जीवन के महत्त्वपूर्ण दिन पर लिखे गये थे, इसलिए बहुत मायने रखते हैं! वैसे तिथि को देखकर पता चला कि ये पन्ने पांच साल पहले लिखे गये थे यानी पांच साल से सरोज कितनी कशमकश में ज़िंदगी गुजार रही है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। मैं आपके सामने सृष्टि की डायरी के पन्ने रखने जा रहा हूं-जस के तस! 
आज इस करवाचौथ पर न मैं खुश हूं और न ही मेरे मन में कोई उमंग है! न जीने को दिल करता है और न ही मरने को! मैं अजीब सी स्थिति में जी रही हूं। मन में ढेरों सवाल उठ रहे हैं पर पूछूं तो किससे? आज मेरी हालत ऐसी है कि किसी से भी अपने दिल की हालत बयान नहीं कर सकती! बस, एक घुटन में जी रही हूं, जैसे किसी गैस चैम्बर में बंद कर दी गयी हूं। मैं सब बंधन तोड़कर आज़ाद होना चाहती हूं। पर पता नहीं ये परिवार, रीति रिवाज, समाज और मेरे संस्कार रास्ता रोके खड़े हैं मेरा! सबके बीच बेबस हो जाती हूं। मेरे दो बेटे हैं, जिनसे मैं बहुत प्यार करती हूं। वे मेरे सबसे बड़े बंधन हैं। उनके लिए मैं अपनी जान भी दे सकती हूं। मैं उनसे कभी अलग नहीं हो सकती, वे मेरे अभिन्न अंग हैं। 
आज करवाचौथ पर बहुत से बधाई के मैसेज भी आ रहे हैं, जो कह रहे हैं कि हर ब्याहता स्त्री अपने परिवार, कैरियर, खुशियों और अपनी आज़ादी को परिवार पर कुर्बान कर देती है, कर देनी चाहिए, ऐसे भी संकेत हैं। यदि स्त्री इन हदों के बाहर जाती है तो उसके अपने ही उसे लौटने व सही राह पर चलने की हिदायतें देने लगते हैं। यही नहीं उसे उसके इरादों को तोड़ने की कोशिश करते हैं। 
क्या बताऊं, ईश्वर ने मुझे ऐसे व्यक्ति के साथ पवित्र बंधन में बांधा, जो बिल्कुल मुझसे विपरीत है जैसे कालिदास व विलोम! न मेरे जैसी परवरिश न ही मेरे जैसे विचार! दो विपरीत ध्रुव हों जैसे हम दोनों! मुझे कोई सुकून नहीं मिला आज तक! मैं घुट-घुट कर जी रही हूं, जीती जा रही हूं। बस समय काट रही हूं। काटे नहीं कटते दिन, ये रात जैसी हालत है मेरी। 
देख रही हूं कि आज अखबार में भी स्त्री के लिए करवाचौथ के महत्त्व पर पन्ने भरे पड़े हैं। करवाचौथ पर स्त्री को सजने संवरने के टिप्स दे रखे हैं पर मुझे किस, सजना के लिए सजना है जो मैं इन पन्नों को पढ़कर समय क्यों खराब करूं? पुरुष तो इतना ही चाहता है कि उसकी पत्नी सजे संवरे और दिन भर भूखी रहकर उसके नाम की माला जपती रहे। हर काम पति की मज़र्ी से करे। वही काम करे, जिसमें पति की खुशी हो। बस, उसके कदमों पर चले, ज़रा भी इधर-उधर न हो! स्त्री का प्रभुत्व पुरुष को कभी स्वीकार नहीं। सदियों से वह करवाचौथ जैसे संस्कार और परंपरा के नाम पर स्त्री को उलझाये रखना चाहता है। हम महिलाएं खुद कमा रही हैं लेकिन पति के उपहार की राह देखतीं भूखी रहकर दिन काट देती हैं! पुरुष समाज ने बचपन से ही ऐसी सोच बना दी है हमारी! ये संस्कार हमारे बंधन बनते चले गये। कोई भी महिला इन संस्कारों से बाहर नहीं जा सकती और जाये तो परिवार टूट जाये! स्त्री अपने पति के इशारों पर नाचती है, समाज में पतिव्रता दिखने के लिए।
हे ईश्वर! मुझे इन बंधनों से मुक्ति दे दो!
ये कौन सी सृष्टि मेरे सामने थी? ये सृष्टि का कौन सा चेहरा था? साहित्यिक गोष्ठियों में वह बहुत शांत सी, हल्की सी मुस्कान बिखेरती मिलती थी। फिर यह सृष्टि मन की किन गुफाओं में कहां छिपी बैठी थी और कब से? सच में हर इन्सान के अनेक चेहरे होते हैं। सृष्टि का यह चेहरा मुझे झकझोर कर रख गया! वह गोष्ठियों में थोड़ा सकुचाती हुई आती थी भाग लेने, जैसे कोई चोरी कर रही हो और पकड़े जाने के डर से परेशान भी रहती हो। तभी वह बार-बार कहती थी कि सर! संडे को रखा करो गोष्ठियां!

(क्रमश:)

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