दिल्ली के रण में कांग्रेस बैकफुट पर क्यों ?
दिल्ली चुनावों में आने वाले हर दिन के साथ कांग्रेस की भूमिका पर्दे पर धुंधला होती जा रही है। आलाकमान के एक फोन से पूरी राज्य इकाई के तेवर ढीले पड़ने की खबरों के बीच असली सवाल कहीं गुम गया कि आखिर आलाकमान ने दिल्ली में तेज़ी से जनाधार बढ़ा रही अपनी ही पार्टी को रोक क्यों दिया? कई जानकार इसे त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा को लाभ पहुंचने से जोड़ रहे हैं, जो एक अधूरा सच हो सकता है।
दलीय राजनीति का मूल उद्देश्य अपनी पार्टी के हित में निहित होता है। ऐसे में कांग्रेस अपना संवरता जनाधार गंवाने की स्थिति तक भाजपा विरोध की राजनीति करे, यह किसी किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। राजनीतिक दल हारते हुए चुनाव में भी अपना जनाधार बचाने के लिए पूरा दमखम झोकते हैं, ताकि भविष्य में मुख्य प्रतिद्वंदी बने रहने का संकेत बना-बचा रहे। इसीलिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर कांग्रेस अचानक बैकफुट पर क्यों आ गयी? कम से कम यह तो नहीं ही कहा जा सकता कि केजरीवाल ने जॉर्ज सोरोस से सोनिया की क्लास लगवा दी होगी।
कुछ लोग इसे ‘इंडिया’ गठबंधन का चौतरफा प्रेशर भी मान रहे हैं कि दिल्ली में कांग्रेस के मुखर होने पर शेष दल उसे गठबंधन से बाहर कर देंगे। यदि ऐसा ही है तो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने दिल्ली, बंगाल, उत्तर प्रदेश और बिहार में अपने उम्मीदवार कैसे उतार लिए? यही नहीं, यदि गठबंधन का इतना ही प्रेशर है तो हरियाणा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने ‘आप’ से समझौता क्यों नहीं कर लिया? और सबसे महत्वपूर्ण यह कि गठबंधन के जिन दलों का विरोध बताया जा रहा है, क्या उनके राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को आगे भी ऐसे ही बाहर का रास्ता दिखाए जाने का संदेश इसमें निहित नहीं है, जिसे कांग्रेस पार्टी भी बखूबी जानती है।
असल में पर्दे पर जो दिख रहा है, नेपथ्य का खेल उससे एकदम अलग है। आज विपक्ष के सभी दल अलग-अलग राज्यों और संस्कृतियों के पहरुआ होकर भी एक ही धुरी से नियंत्रित हो रहे हैं। सभी विपक्षी दलों के जनाधार में 10-15 प्रतिशत हिन्दू वोट के अलावा 20 प्रतिशत का मुस्लिम वोट बैंक ही आज सबसे अहम किरदार निभा रहा है। दशकों तक कांग्रेस के लिए एकतरफा होने वाला मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण इस दशक में अपनी मांगों और आवश्यकताओं के लिए भी सजग हो चुका है। कांग्रेस ने सिर्फ मुस्लिमों का इस्तेमाल किया, इस विचार के मुखर होने के बाद से जमीयत, जमात, आइमीम, दारूल और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे अलग-अलग इस्लामिक संगठनों ने आपसी सामंजस्य के माध्यम से राजनीतिक दलों को साधने की युक्ति ढूंढ ली है। इन संगठनों के समन्वयक सियासत के मंच पर न भी दिखाई दें मगर इनके निर्देशों का पालन किए बिना मुस्लिम वोट साधने की चाह रखने वाला कोई भी राजनीतिक दल चुनावों में जीत की गणित लगा ही नहीं सकता।
विपक्षी राजनीति के केंद्र में बैठा यह अदृश्य इस्लामिक समन्वयक जहां कहीं भी जिस भी दल के लिए इशारा कर दे, भाजपा के समक्ष वही दल इस एकमुश्त 20 प्रतिशत मुस्लिम वोट बैंक का अधिकारी बन जाता है। यही कारण है कि अदृश्य इस्लामिक समन्वयक अब कांग्रेस के बजाय क्षेत्रीय दलों पर ज्यादा भरोसा कर रहा है क्योंकि स्थानीय दलों के पास कांग्रेस से अधिक बड़ा हिन्दू वोट बैंक है, विशेषकर दिल्ली में। यहां आज भी गैर-मुस्लिम वोटों में ‘आप’ की पहुंच कांग्रेस के मुकाबले बहुत गहरी है। ऐसे में इस्लामिक समन्वयक अब कांग्रेस को समर्थन देने के इच्छुक नहीं हैं और बिना मुस्लिम वोट के दिल्ली में कांग्रेस को अपनी स्थिति का पूरा अंदाज़ा भी है। यही नहीं, मुस्लिम समन्वयक को दिल्ली में नाराज़ करके कांग्रेस पार्टी शेष भारत और भावी चुनावों में अपनी ज़मीन को और अधिक कमज़ोर नहीं करना चाहती। यही कारण है कि कांग्रेस ने बड़ी सहजता से दिल्ली चुनावों में खुद को पीछे कर लिया है। कांग्रेस के इस प्रकार अचानक अपने कदम वापस खींचने को मीडिया का नैरेटिव धड़ा अनाप-शनाप तरीके से परिभाषित कर विपक्षी राजनीति का काम आसान करने में जुटा है ताकि बहुसंख्यक समाज को पर्दे के पीछे इस स्तर तक मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण की जानकारी न हो सके।
एक सच यह भी है कि खुद दिल्ली भाजपा के कार्यकर्ता त्रिकोणीय चुनाव की स्थिति में जीत का गणित मज़बूत होता देख रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस का अचानक ही बैकफुट पर चले जाना भाजपा को बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि शायद पार्टी की स्थानीय इकाई खुद को ‘आप’ से सीधी भिड़ंत के लायक समझती ही नहीं है जबकि भाजपा के लिए अब एकमात्र विकल्प आमने-सामने की लड़ाई ही शेष है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व और स्थानीय संगठन यदि समय रहते वोट बैंक के इस ध्रुवीकरण को भांप कर उसके आगे की नीति कर कार्य कर सका तो केजरीवाल की टीम निश्चित रूप परेशानी में पड़ सकती है अन्यथा कांग्रेस के प्रदर्शन के भरोसे बैठने की स्थिति में भाजपा को कांग्रेस के हाथों अपना ही वोट बैंक गंवाना पड़ेगा। (अदिति)