आर्थिक विकास के साथ लोकतंत्र की रक्षा भी ज़रूरी

आज़ादी के 77 वर्ष के व्यतीत हो जाने के बाद स्वाधीनता एवं लोकतंत्र की आस्था का सही मूल्यांकन किया जाना चाहिए। लोकतंत्र की यथार्थ सीमाओं में आर्थिक विकास और प्रयास हमें वैश्विक स्थापना प्रदान करते हैं। आर्थिक विकास के बिना लोकतांत्रिक व्यवस्था हमें मजबूत आधार स्तम्भ नहीं दे सकती। मज़बूत वित्तीय प्रबंधन और संवैधानिकता की जुगलबन्दी से देश के चहुमुखी विकास को मूर्तरूप दे सकते हैं। हमें स्वतंत्रता अथक मेहनत एवं संघर्ष के बाद प्राप्त हुई है। 
स्वाधीनता के बाद हमारे संवैधानिक इतिहास में लोकतंत्र की संरचना को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इस महान लोकतंत्र की आस्था और विश्वास को हमें अनंत काल तक बनाए रखना है और इसके साथ ही स्वाधीनता को भी चिरकाल तक अस्मिता की तरह संजोए रखने की आवश्यकता है। जाति भेद, रंग भेद और सामाजिक कुरीतियों को नज़रअंदाज़ कर लोकतंत्र की अंतर्निहित शक्ति को और ताकतवर बनाना है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही भारत की सरकारें वर्ष 2022 तक यह प्रयास करती रहीं कि एक नवीन, मजबूत भारत का उदय हो, जहां अमीरी-गरीबी, जाति, संप्रदाय और सामान्य और दलित वर्ग भेद पूर्णता समाप्त हो जाए, पर भरसक प्रयास के बाद भी ऐसा हो नहीं पाया है। वर्तमान में भारत की सामाजिक, आर्थिक विभिन्नता एवं विषमता देश के आर्थिक तथा वैश्विक छवि के लिए अवरोध साबित हो सकते हैं। देश में विभिन्न नीतियों के विरुद्ध राष्ट्रीय सम्पत्ति की तोड़-फोड़, आपसी असहमति में हिंसा देश के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छे संकेत नहीं है। भारत को एक सशक्त आंतरिक नीति एवं सामाजिक सौहार्द्र की आवश्यकता है तब ही हम विकास के पथ पर आगे प्रशस्त हो सकते हैं। भारत की सफल विदेश नीति एक अच्छी नीति की शुरुआत है और विदेशों में भारत की एक अलग पहचान भी महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, पर केवल विदेश नीति से ही देश की 141 करोड़ जनता का पेट भरना और उसे विकास की राह में ले जाना मुमकिन नहीं है। देश की अवाम को सशक्त योजनाओं और आर्थिक तंत्र के मजबूत होने के साथ-साथ उत्पादन में आत्मनिर्भरता से ही मजबूत बनाया जा सकता है, तब जाकर देश की गरीबी एवं भूखमरी पर निजात पाई जा सकती है। धर्मनिरपेक्षता के मजबूत कंधों के सहारे देश को साम्प्रदायिक सद्भाव के मार्ग पर ले जाने के साथ-साथ शांति और सौहार्द्र का वातावरण तैयार किया जा सकता है। देश में शांति, सौहार्द और उत्पादन में आत्मनिर्भरता ही विकास के सच्चे पैमाने हैं। 
पंचवर्षीय योजनाओं में लगातार गरीबी उन्मूलन, कृषि विकास की योजनाएं, विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी, स्कूली एवं कॉलेज की शिक्षा, स्वास्थ्य की तमाम परेशानियों को दूर करने के लिए बड़ी-बड़ी आर्थिक योजनाएं बनती रही हैं, परन्तु न तो पूरी तरह इन योजनाओं पर अमल हो पाया और न ही भरपूर वित्तीय संसाधनों का समुचित दोहन ही हो पाया।  वैसे तो यह कल्पना की गई थी कि स्वतंत्रता के पश्चात भारत की सरकारें ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देकर शहर तथा गांव की सरहदों को मिटाने का प्रयास करेगी। हमारा लोकतांत्रिक ढांचा इतना समावेशी और मजबूत नहीं हो पाया कि हम देश के सम्पूर्ण विकास के लिए कटिबद्ध हो पाए। संसद, विधायिका और कार्यपालिका में तालमेल की कमी के कारण भारत में विकास कल्पना के अनुरूप मूर्त रूप नहीं ले पाया। हमें नवीन भारत की संकल्पना के साथ-साथ गरीबी उन्मूलन प्रयास को बहुत सशक्त एवं दमदार बनाना होगा। केवल गरीबों को मुफ्त में अनाज देकर उनकी गरीबी दूर नहीं की जा सकती है। गरीबों को अनाज देने के साथ-साथ उनके हाथों को काम और आजीविका के साधन भी देने होंगे। तब जाकर देश की स्थिति सुधर सकती है। हमें गरीबी के अनेक स्वरूपों को जड़ से खत्म करना होगा। इसके लिए हमें पिछड़ी जाति, दलित, दिव्यांग, महिलाओं, गरीब बच्चों के लिए सर्वाधिक योजनाओं को महत्व देकर निशुल्क शिक्षा, रोज़गार गारंटी तथा कौशल विकास तथा पारदर्शी स्वास्थ्य योजनाओं को हर पंचवर्षीय योजना में लागू करना होगा। यह सर्वविदित है कि सरकार द्वारा बनाई गई योजनाओं के सफल क्रियान्वयन से ही नवीन भारत का मार्ग प्रस्तुत हो सकता है। भारतीय समाज में जातिवाद एक बड़े नासूर की तरह हम सबके समक्ष खड़ा है। जाति-पाति को खत्म करने के लिए स्वतंत्रता के प्राप्ति के पश्चात कई महान पुरुषों ने अपना जीवन लगा दिया था।  उनके समुचित प्रयास के बाद भी जातिवाद को आज भी देश में खत्म नहीं किया जा सका है। राजनीतिक समीकरण के कारण यह और उभर कर सामने आया है, जिसका फायदा राजनीतिज्ञ अपने चुनाव के समय वोटर को अपने पक्ष में करने के लिए उठाते हैं। 
भारत पूरे विश्व में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र माना जाता है। सांप्रदायिकता को रोकने के लिए संसद में अनेक संशोधन हुए हैं, इसके बावजूद देश में धार्मिक सौहार्द बनाने में सफलता नहीं मिली है। 
-मो. 90094-15415