एक साथ चुनाव कराने की तैयारी कितनी सार्थक ?

2029 में ‘एक देश-एक चुनाव’ यानी देश में लोकसभा और विधानसभा चुनावों के साथ निकाय व पंचायत चुनाव भी एक साथ कराने की स्वीकृति कैबिनेट ने दे दी है। नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल के सौ दिन पूरे होने पर गृहमंत्री अमित शाह ने आत्मविश्वास के साथ कहा है कि 2029 के पहले एक साथ चुनाव का प्रबंध कर दिया जाएगा। साफ  है, सरकार अपने इस महत्वाकांक्षी वादे को क्रियान्वित करने के प्रति संकल्पबद्ध है। इसी क्रम में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट की अनुशंसाओं को भी मंत्रिमंजल ने मंजूर कर लिया। साफ  है केंद्र सरकार ने विपक्षी दलों को स्पष्ट संकेत दे दिया है कि सरकार अपने एजेंडे पर आगे बढ़ती रहेगी। उम्मीद है कि शीतकालीन सत्र में एक देश-एक चुनाव कराने के नज़रिए से शीतकालीन सत्र में इस विधेयक और इस प्रक्रिया को पूरा करने वाले संशोधन विधेयकों को पारित कराने की शुरुआत संसद में हो जाएगी। हालांकि कांग्रेस समेत करीब 15 राजनीतिक दल इसका विरोध कर रहे हैं जबकि भाजपा समेत 32 राजनीतिक दल इसके समर्थन में हैं।
एक साथ चुनाव करवाए जाते हैं तो इस समय जिन राज्य सरकारों का कार्यकाल शेष होगा, वे लोकसभा चुनाव तक ही पूरा मान लिया जाएगा। वैसे भी आज़ादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ साथ होते रहे हैं, लेकिन 1968 और 1969 में समय से पहले ही कुछ राज्य सरकारें भंग कर दिए जाने से यह परम्परा टूट गई। अब इस व्यवस्था को लागू करने के लिए संविधान में करीब 18 संशोधन करने होंगे। इनमें से कुछ बदलावों के लिए राज्यों की भी अनुमति ज़रुरी होगी। यदि स्थानीय निकाय और पंचायत चुनाव भी साथ-साथ होते हैं तो फिर निर्वाचन आयोग मतदाता सूची तैयार कराएगा। इस हेतु अनुच्छेद 325 में परिवर्तन करना होगा। साथ ही अनुच्छेद 324-ए में संशोधन करते हुए निगमों और पंचायतों के चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ करा लिए जाएंगे। संविधान के अनुच्छेद 368-ए के तहत इस संशोधन विधेयक को आधे राज्यों से भी पास करवाना ज़रूरी होगा। इसी अनुरूप केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भी अलग से संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ेगी।
इस रिपोर्ट से पहले संसदीय समिति भी देश में एक साथ चुनाव कराने की वकालात कर चुकी थी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यदि लोकसभा, विधानसभा, नगरीय निकायों और पंचायतों के चुनाव एक साथ होते हैं तो लम्बी चुनाव प्रक्रिया के चलते मतदाता में जो उदासीनता छा जाती है, वह दूर होगी। एक साथ चुनाव में वोट डालने के लिए मतदाता को एक ही बार घर से निकल कर मतदान केंद्र तक पहुंचना होगा, अतएव मतदान का प्रतिशत बढ़ जाएगा। यदि यह स्थिति बनती है तो चुनाव में सरकारी धन कम खर्च होगा। 2019 के आम चुनाव में करीब 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे और 2024 के चुनाव में लगभग एक लाख करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। एक साथ चुनाव में राजनीतिक दल और प्रत्याशी को भी कम धन खर्च करना होगा। दरअसल अलग-अलग चुनाव होने पर हारने वाले कई प्रत्याशी एक बार फिर किस्मत आज़माने के मूड में आ जाते हैं, वहीं विधायकों को भी लोकसभा और सांसदों को विधानसभा का चुनाव लड़ा दिया जाता है। ऐसी स्थिति में जो सीट खाली होती है, उसे फिर से छह माह के भीतर भरने की संवैधानिक बाध्यता के कारण चुनाव कराना पड़ता है। नतीजतन जनता के साथ-साथ प्रत्याशी को भी चुनाव प्रक्रिया से जड़ी उदासीनता झेलनी पड़ती है। इस कारण सरकारी मशीनरी की जहां कार्य संस्कृति प्रभावित होती है, वहीं मानव संसाधन का भी हृस होता है। 
चूंकि संविधान के मुताबिक केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग इकाइयां हैं। इस परिप्रेक्ष्य में संविधान में समानांतर किन्तु भिन्न-भिन्न अनुच्छेद हैं। इनमें स्पष्ट उल्लेख है कि इनके चुनाव प्रत्येक पांच वर्ष के भीतर होने चाहिए। लोकसभा या विधानसभा जिस दिन से गठित होती है, उसी दिन से पांच साल के कार्यकाल की गिनती शुरू हो जाती है। इस लिहाज से संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि एक साथ चुनाव के लिए कम से कम 18 अनुच्छेदों में संशोधन किया जाना ज़रूरी होगा। विधि आयोग, निर्वाचन आयोग, नीति आयोग और संविधान समीक्षा आयोग तक इस मुद्दे के पक्ष में अपनी राय दे चुके हैं। ये सभी संवैधानिक संस्थाएं हैं। यदि विपक्षी दल सहमत हो जाते हैं तो दो तिहाई बहुमत से होने वाले ये संशोधन कठिन कार्य नहीं हैं। 2024 में मोदी सरकार की बहाली हो गई है, इससे एक साथ चुनाव की उम्मीद बढ़ गई है। इस दौरान ईवीएम समेत अन्य चुनावी उपकरणों की ज़रूरत पूरी कर ली जाएगी।
अनेक असमानताओं, विसंगतियों और विरोधाभासों के बावजूद भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सूत्र से बंधा है। निर्वाचन प्रक्रिया राष्ट्र को एक ऐसी संवैधानिक व्यवस्था देती है, जिससे भिन्न स्वभाव वाली राजनीतिक शक्तियों को केंद्रीय व प्रांतीय सत्ताओं में भागीदारी का अवसर मिलता है। नतीजतन लोकतांत्रिक प्रक्रिया गतिशील रहती है, जो देश की अखंडता व संप्रभुता के प्रति जवाबदेह है। देश में मानव संसाधन सबसे बड़ी पूंजी है। गोया, यदि बार-बार चुनाव की स्थितियां बनती हैं तो व्यक्ति का ध्यान बंटता है और समय व पूंजी का क्षरण होता है। इस दौरान आदर्श आचार संहिता लागू हो जाने के कारण प्रशासनिक शिथिलता दो-अढ़ाई महीने तक बनी रहती है, जिससे विकास कार्य और जन-कल्याणकारी योजनाएं प्रभावित होती हैं। एक साथ चुनाव से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनाव ड्यूटी का मानसिक तनाव नहीं झेलना पड़ेगा।
एक साथ चुनाव के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि देश प्रत्येक छह माह बाद चुनावी मूड में आ जाता है, लिहाजा सरकारों को नीतिगत फैसले लेने में तो अड़चनें आती ही हैं, साथ ही नीतियों को कानूनी रूप देने में अतिरिक्त विलम्ब भी होता है। यह तर्क अपनी जगह जायज़ है। वैसे भी राजनीतिक दलों की महत्ता तभी है जब वे नीतिगत फैसलों को अधिकतम लोकतांत्रिक बनाने के लिए अपने सुझाव दें व उन्हें विधेयक के प्रारूप का हिस्सा बनाने के लिए नैतिक दबाव बनाएं। 
बार-बार चुनाव की स्थितियां निर्मित होने के कारण सत्तारूढ़ राजनीतिक दल को यह भय बना रहता है कि उसका कोई नीतिगत फैसला ऐसा न हो जाए कि दल के समर्थक मतदाता नाराज़ हो जाएं। लिहाजा सरकारों को लोक-लुभावन फैसले लेने पड़ते हैं। भारत में यदि एक साथ चुनाव की प्रक्रिया 2029 से होती है तो केंद्र व राज्य सरकारें बिना किसी दबाव के देश व लोकहित में फैसले ले सकेंगी। सरकारों को पूरे पांच साल विकास व सुशासन को सुचारू रूप से लागू करने का अवसर मिलेगा।

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