रिश्तों की परिभाषा 

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

‘पिता जी! यहां रहूंगा तो जीवन में आगे नहीं बढ़ पाऊंगा। विदेश में ऊंचाई की बुलंदियों को छुऊंगा। यहां रहकर मैं अपनी जिंदगी बर्बाद नहीं कर सकता। मेरी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी। आपकी देखभाल करने के लिए सुमित है न। वैसे भी मैं आपसे मिलने के लिए आता रहूंगा। मुझे मत रोकिये। मुझे जीवन में कुछ करना है।’ प्रभात बोला।  ‘यहां भी रहकर तू जीवन में आगे बढ़ सकता है। यहां भी तू ऊंचाई की बुलंदियों को छू सकता है। अपने देश की मिट्टी में पला-बड़ा। अपने देश में रहकर लोगों की सेवा कर ऊंचाई की नई बुलंदियों को छू सकता है। यहां भी तेरे जैसे लोगों के लिए अवसर की कमी नहीं है। यहां भी सफलता तेरी कदम चूमेगी। मेरा कहा मान ले। मुझे इस उम्र में अकेला छोड़कर दूर मत जा।’ अनिल बाबू नितांत उदास स्वर में बोले। 
‘इस देश में क्या रखा है? न दौलत है न शौहरत। केवल जीवन में उदासी है। विदेश में दौलत-शौहरत के साथ-साथ जीवन में आनंद ही आनंद है। इस अकेलापन दूर करने का एक ही उपाय है। आप भी यहां की सारी जमीन-जायदाद बेचकर मेरे साथ विदेश चलिये। वहां हम लोग एक नयी जिंदगी की शुरुआत करेंगे। यहां रहकर क्या कीजिएगा? चलिये मेरे साथ इस अकेलापन से दूर और जीवन को सुखमय बनाइये।’ वह मुस्कुराते हुए बोला। 
‘मैं अपनी जन्मभूमि को छोड़कर नहीं जा सकता। यहां हमारे पुरखों की यादें जुड़ी हैं। फिर तेरी मां की यादें भी यहीं बसी हैं। मैं इस देश मिट्टी में पला-बड़ा। फिर इस देश की मिट्टी की खुशबू मेरे तन-मन में बसी है। गंगा-यमुना की अविरल धारा, बाग-बगीचे में कूकती कोयल की कूक और कहां? अपने देश की संस्कृति जैसी संस्कृति और कहां? अब मेरी एक ही इच्छा है कि मेरी चिता की राख अपने देश की मिट्टी और गंगा में समाहित हो जाए। मैं अपने देश को छोड़कर नहीं जा सकता।’ और अनिल बाबू विदेश जाने से साफ मना कर दिये। 
प्रभात अनिल बाबू की इच्छा के विपरीत विदेश चला गया। कभी-कभी फोन पर पिता का हाल-चाल ले लिया करता था। फिर उसका फोन आना भी बंद हो गया। अनिल बाबू भी प्रभात को फोन नहीं करते थे। वे सुमित को ही अपना बेटा मानने लगे। सुमित भी उन्हें अपने पिता की तरह मान-सम्मान देता था। अनिल बाबू को कभी इस बात का एहसास नहीं होने दिया कि वो पराया खून है।  कुछ वर्षों बाद पता चला कि प्रभात विदेश में ही शादी कर अपना घर बसा लिया है। उन्हें शादी में बुलाना तो दूर की बात उनकी ओर मुड़कर भी देखा भी नहीं।  सुमित की पढ़ाई पूरी हो गयी थी और उसे सरकारी नौकरी लग गयी लेकिन अनिल बाबू के प्रति उसके मन में कोई बदलाव नहीं आया बल्कि उनके प्रति प्रेम और अनुराग बढ़ता ही गया। अनिल बाबू सुमित की शादी कर अपने टूटे अरमान को पूरा किया। उनके घर में बहू आ गयी और बच्चों की किलकारी से घर-आंगन में गूंजने लगी।  अचानक एक दिन अनिल बाबू की तबियत बिगड़ गयी। सुमित उन्हें डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर काफी जांच के बाद बोले- ‘अब इनका जीवन बहुत कम दिनों का है।’  यह सुनकर सुमित अवाक रह गया और बोला- ‘डॉक्टर, आप ऐसा क्यों बोल रहे हैं? उन्हें ऐसी कौन-सी बीमारी है कि उनका बचना मुश्किल है? फिर उस बीमारी का इलाज भी तो होगा।’ 
‘आपके पिता की दोनों किडनी खराब हो गयी है। यदि कोई अपनी एक किडनी उन्हें दे दे तो उनकी जान बच सकती है। फिर इसमें लाखों रुपये खर्च होंगे।’ डॉक्टर बोले। अनिल बाबू अपनी आंखें बंद किये ये सारी बातें सुन रहे थे। 
‘डॉक्टर! आप पैसों की चिंता मत कीजिए। इनकी जान बचाने के लिए मैं अपनी किडनी दूंगा। आप ऑपरेशन की तैयारी कीजिए।’ सुमित उत्साहित स्वर में बोला।  ‘सुमित! तू यह क्या करने जा रहा है? ऐसा मत कर। अपनी जिंदगी को क्यों दांव पर लगा रहा है? मेरे मर जाने से किसी का कुछ नुकसान नहीं होगा, लेकिन तेरी जिंदगी अनमोल है। तू अब अपने परिवार की चिंता कर।’ अनिल बाबू उसकी ओर देखते हुए बोले। 
‘मुझ कुछ नहीं होगा। अपने पिता को मौत के मुंह में जाते नहीं देख सकता। आप मेरे परिवार के मार्गदर्शक हैं। आपके बगैर मेरा परिवार अधूरा है। आप कुछ मत सोचिये। मैं प्रभात भैया को खबर कर दूंगा।’ सुमित बोला।  ‘वह नहीं आयेगा। वह अपनी दुनिया में मस्त है। तू क्यों मेरे लिए कष्ट उठा रहा है? मुझे मेरे हाल पर छोड़ दें।’ अनिल बाबू सुमित का हाथ थामकर बोले। 
‘मैं अपना फर्ज निभाने से पीछे नहीं हटूंगा। प्रभात भैया आये न आये। आपका ऑपरेशन होकर रहेगा।’ इतना कहकर वह डॉक्टर के साथ चला गया।  सुमित के जानकारी देने के बावजूद प्रभात नहीं आया। उनका ऑपरेशन सफल रहा। अपना खून उन्हें देखने तक नहीं आया लेकिन पराया खून उन्हें नई जिंदगी दे दी। यह सोचकर उनकी आंखों से आंसू बहने लगे।  सुमित उनके बहते आंसू को पोछते हुए ध्यान भंग किया- ‘आप किस सोच में डूबे हैं। ज्यादा मत सोचिये। जो होना था सो हो गया। अब यहां से चलने की तैयारी कीजिए।’  ‘जिसके लिए क्या कुछ नहीं किया, वही बेगाना हो गया। जिसके लिए कुछ नहीं किया, वही बेटे होने का फर्ज निभाया। अपना खून दगा दे गया और समाज जिसे पराया खून कहता था वही जीवन दिया। मैं तुम्हारे इस त्याग के आगे नतमस्तक हो गया। तूने मुझे रिश्तों की परिभाषा बता दिया।’ अनिल बाबू बोले।  ‘आपने मेरे परिवार को सहारा दिया। फिर पिताजी के गुजरने के बाद आपने जो अपनापन और प्यार दिया उसे मैं कैसे भूल सकता हूं? आप न होते मैं फुटपाथ पर पड़ा दर-दर की ठोकर खा रहा होता। आज मैं जो भी हूं आपकी बदौलत। ऐसी बातें कर मुझे शर्मिंदा मत कीजिए। आपसे मेरा पिता-पुत्र का रिश्ता है। जन्म देने वाले से बड़ा पालन करने वाला होता है और रिश्तों की परिभाषा हर कोई थोड़े ही समझता है। अब अधिक सोच-विचार मत कीजिए। चलिये घर में आपकी बहू और बच्चे आपके आने की प्रतीक्षा में पलकें बिछाये बैठे हैं।’ सुमित मुस्कुराकर बोला। ‘हां, चलो! बच्चों की बहुत याद आ रही है।’ और अनिल बाबू मुस्कुराते हुए सुमित का हाथ थामे घर की ओर चल पड़े। (समाप्त)

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