भारत की सुरिन्दर कौर तथा पाकिस्तानी रेशमा
मैंने इस कॉलम में लाहौर में जन्मी सुरिन्दर कौर के बारे में लिखते हुए मांग की थी कि यदि कोई लाहौर में जन्मा, अभी भी जीवित है तो मैं उसके बारे जानना चाहूंगा। जिन दो पाठकों ने सम्पर्क किया, उनमें से लाहौर में जन्मा तो कोई नहीं, परन्तु उन्होंने मेरी मांग का सम्मान करते हुए कुछ नई बातों पर प्रकाश डाला है। पहल करने वाला मेरा मित्र डा. सरबजीत सिंह छीना है जिसके घर सुरिन्दर कौर ठहरती रही हैं। पहली बार का सबब यह बना कि बटाला निवासी फोटोग्राफर हरभजन सिंह बाजवा ने अपने शहर में सुरिन्दर कौर का 70वां जन्म दिन मनाना था तो अमृतसर से डा. छीना को भी साथ ले गया। इसलिए कि कार्यक्रम के बाद डा. छीना सुरिन्दर कौर को साथ भी दे सकता था और अगले दिन सुबह शताब्दी एक्सप्रैस में बिठा भी सकता था। वे दोनों रात के अढ़ाई बजे छीना के घर लौटे तो छीना परिवार ने अपनी पसंदीदा गायिका की वे ज़रूरतें पूरी कीं, जिससे दोनों परिवारों की पक्की साझ बन गई। इतनी ज़्यादा कि वह जब भी अमृतसर आतीं, छीना परिवार के पास ही रहतीं। एक दौरे के बिना जब गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी ने उन्हें डाक्ट्रेट की डिग्री प्रदान करनी थी तथा उनके रहने का विशेष प्रबंध किया गया था।
दूसरी प्रतिक्रिया भी ऐसे व्यक्ति की है, जो गायिकी का प्रेमी है। उसने जिस गायिका की बात की है, वह पाकिस्तान की रेशमा हैं। कहने को वह भी पंजाबन हैं, परन्तु उनका पंजाब अब पाकिस्तान में है। यह व्यक्ति कुलदीप सिंह साहिल है। राजपुरा का रहने वाला तथा रेशमा का प्रशंसक।
रेशमा का नाम भारत तथा पाकिस्तान के शीर्ष गायकों की पहली कतार में आता है। टप्परवास कबीले में पैदा हुई पाकिस्तान की इस गायिका को अपने जन्म के बारे में सिर्फ इतना ही पता था कि 1947 के विभाजन के दो वर्ष पहले अर्थात 1945 में पेशावर के किसी कैम्प में पीपल के पेड़ के नीचे हुआ था। फिर इनके कबीले ने बीकानेर में आकर डेरा लगाया, जहां तहसील रत्नगढ़ के वह पुराने निवासी थे।
उनके पिता हाजी मुहम्मद मुश्ताक बंजारा थे, जो ऊंटों के काफिले के साथ जाते थे और पश्चिम के क्षेत्र से ऊंट, घोड़े, गाय तथा भैंसें लेकर राजस्थान लौट जाते थे। रेशमा अभी बहुत छोटी थीं कि देश को विभाजन का संताप झेलना पड़ा। उन्हें भी पाकिस्तान जाना पड़ा और बंजारों के इस काफिले ने सिंध की राजधानी कराची (पाकिस्तान) को अपने निवास स्थान के रूप में चुन लिया।
रेशमा ने कभी किसी उस्ताद से गायिकी की शिक्षा हासिल नहीं की थी और न ही किसी घराने में जन्म लिया था। बस गायिकी उनकी रूह में बसी हुई थी। अभी वह मात्र दस वर्ष की थीं, जब रेडियो तथा टैलीविज़न निर्माता सलीम गिलानी ने एक श्रद्धालु के रूप में उन्हें गांव सेवन में शाहबाज़ कलंदर की दरगाह पर लगे मेले में ‘दमा दम मस्त कलंदर’ कव्वाली गाते हुए सुना। गिलानी ने बालिका की कला पहचानी, उसकी तारीफ की और उसे अपना पता लिख कर देते हुए कराची रेडियो स्टेशन आने का निमंत्रण देकर चले गए। वह पर्ची लेकर रेडियो स्टेशन पहुंच गई, तो उनकी आवाज़ में रेडियो के लिए पहला गीत रिकार्ड किया गया :
हो लाल मेरी पत रखियो
भला झूले लालन
सिंधड़ी दा, सेवन दा
सखी शाहबाज़ कलंदर
दमा दम मस्त कलंदर
अली दम दम दे अंदर
अली दा पहला नम्बर।
यह गीत रिकार्ड करवा कर वह फिर अपने काफिले के साथ चली गई। रेडियो डायरैक्टर समेत उनके श्रोता भी उनके बारे कुछ नहीं जानते थे कि वह कहां रह रही है। गिलानी ने विभिन्न अखबारों/पत्रिकाओं में उनकी तस्वीर वाला विज्ञापन प्रकाशित करवाया ताकि उसे पुन: रेडियो पर पेश किया जा सके। रेशमा ने काफी समय के बाद मुल्तान में किसी पत्रिका में अपनी तस्वीर देखी तो डर गईं। किसी समझदार व्यक्ति ने असल बात बताई तो उनकी हैरानी का भी कोई अंत नहीं था और खुशी का भी। उनका गायिका के रूप में नया जन्म हो चुका था।
वह पूरी आयु अपनी कला को शाहबाज़ कलंदर की दुआ बताती रहीं। उन्होंने अपने देश को अपने दीन की अलामत इस्लाम तथा गायिकी को इबादत स्वीकार करते हुए जीवन भर न अपना दुपट्टा सिर से उतरने दिया और न ही कोई असभ्य गीत गाया।
निदेशक वज़ीर अफज़ल वह शख्सियत थे जिन्होंने पहली बार रेशमा से फिल्म ‘लक्खा’ के लिए गीत रिकार्ड करवाए थे। इसके बाद उन्होंने बड़ी संख्या में फिल्मी गीत गाये। उन्होंने ज़्यादातर प्रसिद्ध पंजाबी शायर तथा गायक मंज़ूर हुसैन झल्ला के लिखे गीत गाकर गायिका के रूप में अपनी पहचान बनाई। उनके लगभग सभी गीत लोकप्रिय हुए, परन्तु कुछ गीत उनकी पहचान बन गए। जैसे :
अक्खियां नूं रहिण दे, अक्खियां दे कोल कोल
चन्न परदेसिया, बोल भावें ना बोल
पंजाबी, उर्दू, हिन्दू, सिंधी, डोगरी, पहाड़ी, राजस्थानी तथा पुशतों आदि दर्जन से अधिक भाषाओं में गीत गाने वाली वह एकमात्र गायिका थीं। अंतिम समय में गले के कैंसर की शिकार होते हुए भी वह मुश्किल से गाती रहीं। उन्हें निम्नलिखित शब्दों से सुकून मिलता था।
‘दर्द काफी है बेखुदी के लिए
मौत मुलाज़िम है ज़िन्दगी के लिए’
इधर व ऊधर के दोनों पंजाबों को समर्पित रेशमा 1996 में इंडो-पाक संगीत सम्मेलन के लिए आईं तो खुद से 16 वर्ष बड़ी सुरिन्दर कौर को मिल कर बड़ी खुश हुईं। 2003 में राजस्थान मेले के लिए आईं तो उन्होंने अपनी जन्म भूमि के निवासियों को राजस्थानी गीतों से मंत्र-मुग्ध किया।
रेशमा ने भारत सहित अपनी कला का प्रदर्शन अमरीका, कनाडा, इंग्लैंड, रूस, तुर्की, नार्वे, डेनमार्क, रोमानिया आदि सहित कई अन्य देशों में भी किया। भारत में मिले मान-सम्मान के अतिरिक्त रेशमा को जनरल ज़िया-उल-हक से लेकर परवेज़ मुशर्रफ तक की सरकारों से भी मान-सम्मान तथा सहायता मिलती रही। 2005 में उन्हें पाकिस्तान का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ प्राप्त करने का गौरव हासिल हुआ। उन्हें पाकिस्तान के राष्ट्रपति द्वारा ‘़फक्र-ए-पाकिस्तान’ तथा ‘लीजैंड ऑफ पाकिस्तान’ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। रेशमा को पुन: कैंसर हो गया और लम्बा समय तक कोमा में रहने के बाद 3 नवम्बर, 2013 को 67 वर्ष की आयु में सदैव के लिए अलविदा कह गईं।
जहां रेशमा को उस तरफ के पंजाब के उच्चकोटि के मान-सम्मान मिले, सुरिन्दर कौर को भी भारत में पदमश्री सम्मान से नवाज़ा गया। यह बात अलग है कि इस सम्मान की सिफारिश करने वाली पंजाब सरकार नहीं, अपितु हरियाणा सरकार थी। वैसे सुरिन्दर कौर भी आयु के अंतिम पड़ाव में कई रोगों से पीड़ित थीं और उन्होंने अंतिम श्वास अमरीका जाकर त्यागे, जहां उनकी बेटी इलाज के लिए लेकर गई थी। दोनों गायिकाएं ज़िन्दाबाद!