बदलती सभ्यता की सही पहचान

जीवन में बहुत अच्छे और बहुत बुरे दोनों तरह के लोगों से पाला पड़ा करता था। लोग कहते भैय्या तस्वीर के दो रुख होते हैं, एक अच्छा और एक बुरा। आप बुरे में भी अच्छे की तलाश कर लेना, जो तुझे कष्ट दे तेरे पीछे पड़ जाए, उन्हें भी गले से लगा ले तेरी ज़िन्दगी अच्छी भली कट जाएगी। न भी कटी तो तुझे फिसड्डी रह जाने का एहसास हमेशा नहीं सताएगा। जी हां, बात उपदेश से शुरू हो गई। लगता है आजकल लोगों को आपके दोष बता कर उपदेश देने का मज़र् हो गया है। बेशक जीवन में प्रेरणा आपको चाहिए। मां-बाप के उदाहरण से प्रेरणा नहीं मिलती तो इसे छोड़िए, आइए किसी और से प्रेरणा ले लें। मां-बाप की ओर देखते थे, तो बहुत मेहनती लगते। दिन-रात आपके लिए परिश्रम उन्होंने किया। अपना उदाहरण दे इन्होंने आपको जीने की सड़क पर अपने मज़बूत कदमों से खड़े रहने की प्रेरणा दी।
लेकिन देखते ही देखते ज़िन्दगी कितनी बदल गई? दृढ़ इरादों के साथ शून्य से कुछ बन कर दिखा देने वाले कहां रहे मां-बाप। यहां तो वे काम के नाम पर रियायतें बांटने वालों के सामने सिर नवाते नज़र आते हैं। जो कामयाब हो गया उसका झण्डा उठाते हुए नज़र आते हैं। कभी एक छतरी का आसरा लेते और फिर उसे दूसरी छतरी का आसरा लेते हुए नज़र आते हैं। कौन कहां खड़ा है, कुछ नज़र ही नहीं आता। उम्र भर वे अपने लिए खड़ा होने की जगह तलाशते रहे और जाते-जाते आपको संदेश दे गये, कि ‘बेटा तेरा काम होना चाहिए। आजकल सीधी उंगली से घी निकलता इसलिए उंगली टेढ़ी भी करनी पड़े तो परवाह नहीं’, इसलिए तो जो नई सन्नति की जमात अब पैदा हो रही है, वह कहीं टेढ़ी की जगह सीधी उंगली वाली पैदा हो जाए, तो मातम हो जाता है। बस बदलते हुए युग को पहचानने वाले शोकाकुल हो कर कह देते हैं, भला यह क्या कमाएगा और क्या खाएगा? बस बन्द गली का आखिरी मकान या कतार से छूटा रह कर ही जीवन बिताएगा और आखिरी वक्त तक यही सोचता रहेगा कि ज़िन्दगी तो बदली ही नहीं, क्रांति तो हुई ही नहीं, कि जिसके हो जाने का सन्देश उसको जन्म-घुट्टी में नहीं मिला था।
आप कहेंगे भई कैसा नया जन्म और नया सन्देश? पहले परिवार नियोजन का ज़माना नहीं था। नवजात का जन्म अचानक हो जाता था। हो जाने पर बहुत दिन पैदा करने वाले माथे पर हतभाग्य कह कर चिन्ता करते रहते कि पहले जो पैदा हुए उनका ही ज़िन्दा रखने का कोई जुगाड़ नहीं कर पाते, यह एक और चला आया। देश की आबादी को सबसे बड़ी आबादी वाले देश की उपाधि तक पहुंचा देने वाले देश का सम्मान बन गया।
इस सम्मान से कैसे सम्मानित हो जाते कि जो पहले पैदा हो गए, उनकी ही रोज़ी-रोटी का कोई ठिकाना नहीं। देश डिज़िटल हो गया, कृत्रिम मेधा से आपके लिए आसमान जीतने का भ्रम पैदा करने लगा। बड़ा आदमी पहले दूसरों को कठपुतली बना अपना काम साधता था, अब रोबोट की तलाश क्यों करे। यहां तो ज़िन्दा लोग ही रोबोट हुए जा रहे हैं। कामयाब लोग जो कह दे उसका श्रद्धा से पालन करते हैं, न पालन कर पाते हैं तो जाते हैं बीस के भाव में। बिना चेहरे वाले लोगों की भीड़। कब पैदा हुए, कहां जिये, कहां मरे? कुछ पता ही नहीं चलता। कभी यादों की बारात सबके साथ-साथ चलती थी, अब जीना इतना कटु हो गया कि उनकी यादों को संजो कर पाओगे भी तो क्या? यादों के बगैर भाव शून्य ज़िन्दगी लिए कोई महोदय चल बसे, तो जानने वाले कह देते हैं, ‘अच्छा हुआ छुटकारा पा गया। उसके लिए अब इस ज़िन्दगी में बचा ही क्या था।’
जनाब ऐसी दर्द भरी सांस लेते हुए संवाद न बोलिए। देखते नहीं हो यहां कहते कुछ हो, हो कुछ जाता है। चले थे देश की आबादी पर नियंत्रण करने। अपनी प्रजनन दर तो घटा ली। अब सिर पर विजातीय वर्ग की प्रजनन दर बढ़ कर आपका वोट प्रतिशत कम करके आपकी वोटों की संख्या पैदा हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। जल्दबाज़ी में आपके जाति-पुरुष भी अब अपनी-अपनी प्रजनन दर बढ़ाने का सन्देश दे रहे हैं। क्योंकि जैसे उनके मुहल्ले के वोट बढ़े, हमें भी तो पीछे नहीं रह जाना है। संख्या बल का जवाब तो संख्या बल को बढ़ाने से ही होगा। बुद्धिबल को कौन पूछता है? पहले किसी बुद्धि शून्य को देख कर हमदर्दी कर देते थे, लो देख लें अक्ल बड़ी कि भैंस। अब साफ नज़र आ रहा है, भई बड़ी तो भैंस ही होती है, जो गोबर के साथ-साथ दूध का वरदान भी दे देती है। अक्ल वाला तो जाली प्रमाण पत्र बनवा कर सात समुद्र पार चला गया था। अब वहां निज़ाम बदल रहे हैं। वहां गद्दियों पर बैठे लोग कहते हैं कि हम अपने अक्ल वालों की फिक्र करें या जाली प्रमाण-पत्र वाले इन डौंकी बन आए नाखुदाओं की। जनाब आप वापस चलिये और अपने देश के तबेले में अपनी जगह तलाश कीजिए। यहां तो अपने ही अपनी तरक्की पर एकाधिकार का झंडा उठा रहे हैं। आपके लिए यहां जगह नहीं। कभी हमारे देश में नम्बर दो नागरिक बन कर आए थे, अब नम्बर एक होकर अपनी औलाद को भी अपने आप नम्बर एक का दर्जा दिलवा देना चाहते हैं। यह नहीं होगा।
जाइए वापस अपने गांव और ‘म्हारो देश है सर्वश्रेष्ठ।’ का मधुर गीत गाइए। बेशक लौटते हुए लोगों को यह गीत गाने से कोई हिचकिचाहट नहीं। जानते हैं, उनके कर्णधारों के बयान भी आ गए हैं। ‘लौट आइए हम आपका स्वागत खुली बाहों से करने के लिए तैयार हैं।’
लेकिन यह खुली बाहें है कहां? उन्हीं तबेलों में हैं न जहां कि भैंसे आदमियों से बड़ी हैं, और देश में होने वाली दुग्ध क्रांति में पानी मिलाकर उसे दोगुना और चौगुना कर रही हैं।
इस देश में लौटते हैं तो पाते हैं जगह-जगह नये स्वागत पट्ट लग गए हैं। जब-जब यहां किसी कोने में चुनाव दुंदुभि बजती है, तो हमारे स्वागत पट्टों में नई जवानी आ जाती है। नई इबारतें उभरती हैं कि देखो इन बरसों में हमने नए-नए काम धंधों का विकास करके निठल्लों को काम देने की समस्या का हल कर लिया। अब बेकारों की भीड़ रोज़गार दिलाऊ खिड़कियों के बाहर नहीं लगती, रियायती अनाज की रेवड़ियां बांटने वाली दुकानों के बाहर लगती है। हम अब किसी को भूख से मरने नहीं देते, यह कितना दिलासा भरा वाक्य है। हां कोई पिछड़े इलाकों में अपनी मेहनत का मूल्य न पा, या साहूकार का कज़र् न चुकाने की दहशत से मर गया, तो इसे भूख से मरना तो नहीं कह सकते।
भई, यह इतर कारणों से होने वाली मौतें हैं। इनका कारण हम तलाश लेंगे। कारण तो कई और विडम्बनाओं के भी तलाशने पड़ेंगे। कई बरसों से साख दने वाली मुट्ठी बांध कर हम बढ़ती महंगाई को खत्म करने की कोशिश कर रहे थे। सफल हुए हैं। आंकड़ों और सूचकांकों में हमने महंगाई खत्म कर दी है। अपनी मंडियों में नहीं कर पाए तो चिन्ता न कीजिए। हमने तो आपको बताया था न कि अपनी हथेली पर सरसों जमाने की कला सीख लीजिए। संस्कृति उत्थान के नाम पर शार्टकट संस्कृति के चोर दरवाज़े खोल लीजिये। बेशक कुछ दरवाज़े खुल गए हैं, लेकिन अभी पूरी सफलता प्राप्त नहीं हुई। आदर्श, नैतिकता, ईमानदारी और मेहनत-मेहनत चिल्लाने वाले चन्द लोग अभी बाकी हैं, जो रुकावट बन जाएंगे। चिन्ता न कीजिए, ये लोग भी नये युग का नया रास्ता जल्द ही पहचान लेंगे। बदलती सभ्यता की नई तमीज समझने में आखिर वक्त तो लगता ही है।

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