वक्फ संशोधन बिल : आपत्तिजनक धाराएं हटाई जाएं
3 अप्रैल सुबह को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत के साथ नया वक्फ बिल पास हो गया था। पूरा दिन इस बिल पर होती बहस ने यह प्रभाव दिया कि भाजपा या राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) जिस नए कानून को मुसलमान खास तौर पर कमजोर मुसलमानों की तकदीर बदलने वाला करार दे रहा था, उसके पक्ष में एक भी मुस्लिम लोकसभा सदस्य बोलता दिखाई नहीं दिया। देश के लगभग सभी अल्पसंख्यकों के प्रवक्ता भी इस के खिलाफ ही दिखाई दिये। इस प्रकार का प्रभाव बन रहा है कि देश के अल्पसंख्यक भाजपा की नीतियों के खिलाफ इकट्ठा हो रहे हैं, परन्तु यदि भाजपा चाहती तो इस एक्ट के बीच के कुछ विवादित बातों को वापिस लेकर इस बिल पर विपक्षी दलों के साथ सहमति बनाकर सर्व-सम्मति के साथ भी पास करवा सकती थी लेकिन हम समझते हैं कि भाजपा सर्व-सम्मति नहीं चाहती थी। वह तो इस बिल को अपनी जीत और बहुसंख्यक भाईचारे को अपने पक्ष में कतारबंदी के लिए ही उपयोग करना चाहती थी।
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय रेलवे की मालकी वाली 33 लाख एकड़ ज़मीन और भारतीय सेना की मालकी वाली 17 लाख एकड़ ज़मीन के बावजूद वक्फ बोर्ड चाहे देश में तीसरा सबसे बड़ा भू-स्वामी है और उसके पास 9 लाख 40 हज़ार एकड़ जमीन तथा हज़ारों अन्य जायदाद हैं और इस में भ्रष्टाचार का बोलबाला भी है। यह वक्फ बोर्ड गरीब ज़रूरतमंद मुसलमानों की मदद करने और उनका जीवन स्तर ऊंचा उठाने में भी बहुत सफल नहीं हुआ। यह भी ठीक है कि इसमें बड़े सुधारों की ज़रूरत है। नये बिल में किये जा रहे कई सुधार प्रशंसनीय भी हैं पर कुछ बातें केन्द्र सरकार की हठधर्मिता पर स्पष्ट रूप में यह प्रभाव देने के लिए पाई जा रही हैं कि इसके द्वारा मुस्लिम हिन्दू कतारबंदी और तीखी हो क्योंकि इस बिल के पास होने पर मुसलमान इसके खिलाफ आंदोलन चलाएंगे और उस आंदोलन से होने वाली परेशानियों से भाजपा इससे हिन्दू बहु-संख्यक को अपने पक्ष में उपयोग करने की कोशिश करेगी। वैसे ज़रूरी नहीं कि अत्याचार के खिलाफ खूनी ब़गावत ही की जाए। कई बार सिर्फ दिल में ऩफरत भरना ही काफी होता है। सबा अकबराबादी के ल़फ्ज़ों में :-
ज़ुल्म के दौर में इकराह-ए-दिली काफी है,
एक खूं-रेज़ ब़गावत हो, ज़रूरी तो नहीं।
(इकराह-ए-दिली : दिल की सहमति न होना)
इसलिए हमारा मुस्लिम तथा विरोधी पक्ष के नेताओं को निवेदन है कि यदि वे इस कानून के खिलाफ कोई संघर्ष करना चाहते हों तो ध्यान रखें कि यह शांतिपूर्ण रहे और आम लोगों के लिए परेशानी का सबब न बने।
सरकार अभी भी सोचे
बेशक वक्फ का नया एक्ट लोकसभा में पास हो गया है और उसका राज्यसभा में पास हो जाना भी लगभग यकीनी है। राष्ट्रपति द्वारा दोबारा विचार के लिए भेजने का तो सवाल ही नहीं, बल्कि इसका कानून बन जाना तय है, परन्तु जहां हम इस कानून के 90 प्रतिशत से अधिक हिस्से के समर्थक हैं, वहां आज भी चाहेंगे कि सरकार उन कुछ बातों को इस कानून में से वापिस लेने के बारे में खुद ही विचार करे, क्योंकि यह साफ प्रभाव देता है कि सरकार ने ये धारायें डालकर देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक के साथ जैसे जानबूझ कर धक्का किया हो और ये बातें देश के अन्य अल्पसंख्यकों के लिए भी ठीक नहीं हैं। शायरा अंजना सिंह सेंगर के ल़फ्ज़ों में : -
बर वकत सियासत ठीक नहीं
बे-बात की हुज्जत ठीक नहीं।
वास्तव में कल पूरा दिन वक्फ बिल और लोकसभा की बहस सुनने के बाद जो एहसास हुआ, उसके अनुसार मुख्य विरोधों और आपत्तिजनक नुक्तों में सबसे बड़ा नुक्ता है मुसलमानों द्वारा दान की गई जायदाद के प्रबंधन के लिए वक्फ बोर्ड में गैर-मुसलमानों की शमूलियत ज़रूरी करना। वक्फ बोर्ड का सी.ई.ओ. अभिप्राय मुख्य कार्यकारी अधिकारी गैर-मुस्लिम बन सकता है और इसमें शामिल किये जाने वाले 3 सांसद और कोई पूर्व जज भी गैर-मुस्लिम हो सकते हैं। यह साफ और स्पष्ट रूप में मुसलमानों को उकसाने वाला ही नहीं अथवा उनके निजी मामले में दखल ही नहीं, बल्कि यह सभी अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरे की घंटी बजाने वाली बात है। कल को उनके कार्यालयों में भी ऐसा किया जा सकता है जबकि किसी भी हिन्दू कार्यालय में ऐसा नहीं होता। यहां तक कि एक हिन्दू प्रमुख संस्थान में तो स्थानीय ज़िला मैजिस्ट्रेट सदस्य होता है, पर शर्त यह है कि यदि ज़िला मैजिस्ट्रेट हिन्दू नहीं तो वह खुद की जगह कोई हिन्दू अफसर ही भेजेगा। ऐसे नियम बहुत सारे अन्य हिन्दू मंदिरों के ट्रस्टों पर भी लागू हैं।
दूसरा बड़ा विरोध इस बात पर है कि वक्फ के लिए जायदाद देने वाला या वक्फ बनाने वाला कम से कम 5 वर्ष से इस्लाम का पालन कर रहा हो? दूसरा कि यह हिन्दुओं, सिखों, ईसाइयों या किसी अन्य पर लागू नहीं तो मुसलमानों पर क्यों? जिसकी जायदाद है, वह जब चाहे जिसको चाहे, दान करे, बांटे या बेचे। कल को कोई हिन्दू किसी गुरुद्वारा को कोई दान ही नहीं दे सकेगा? या सिख भी ऐसा नहीं कर सकेगा। महाराजा रणजीत सिंह ने जहां श्री दरबार साहिब अमृतसर के लिए सोने की सेवा करवाई, वहीं मंदिरों को भी बड़ी मात्रा में सोना दान किया था। क्या यह गलत था?
वक्फ बाई यूजर भाव जो ज़मीन वक्फ द्वारा लम्बे समय से कई स्थानों पर तो सदियों से प्रयुक्त की जा रही है, अब झगड़े वाली ज़मीन बन सकती है। हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि नया कानून पहली ज़मीनों पर लागू नहीं होता पर जिस प्रकार हर मस्जिद के नीचे मंदिर ढूंढा जा रहा है, उसी प्रकार यह कानून भी कई नये झगड़े खड़े कर सकता है। हालांकि देश में सैंकड़ों ऐसे मंदिर मस्जिदें हैं कि उनके नीचे मंदिर नहीं बल्कि बोध मंदिरों के निशान भी मिलते हैं, जो साफ प्रभाव देते हैं कि ये मंदिर भी बोध संस्थानों को तोड़ कर ही बनाये गये थे। बिल की एक धारा यह भी कहती है कि यदि वक्फ की किसी ज़मीन पर कोई 12 साल से काबिज़ है तो उसको मालिकी का हक मिल सकता है। यह भी दोबारा विचारणीय है।
हालांकि ऐसी 14 से अधिक धारायें हैं जिनका मुस्लिम समाज और विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं, पर हमारा सरकार से निवेदन है कि इनमें से 4 धारायें तो सरासर धक्का ही लगती हैं, इसलिए कानून पास करवा लिए जाने के बावजूद यह देश की एकता के हित में है कि सरासर धक्का न हो और अल्पसंख्यकों में डर का माहौल न बने। इसको ध्यान में रखते हुए सरकार इन पर खुद ही दोबारा से विचार करे ताकि देश के लोगों का सरकार पर विश्वास बढ़े।
पंजाब को फिर पुलिस राज की ओर न धकेलें
पंजाब में जो कुछ हो रहा है, चाहे वह एक अच्छी नीयत के साथ ही हो रहा हो, पर इसका परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा। पंजाब पहले यह भुगत चुका है कि पंजाब पुलिस बेलगाम हुई है तो आम लोगों के साथ धक्का हुआ है। इस समय भी कर्नल पुष्पिन्दर सिंह बाठ के साथ पुलिस की मारपीट इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है। बेशक पंजाब सरकार पंजाब पुलिस की कारगुजारी से संतुष्ट है और पिछले दिनों में पंजाब में लगातार बढ़ रहे पुलिस मुकाबलों को वह पंजाब में बढ़ती अपराध दर रोकने के लिए सही मान रही है और नशा रोकने के लिए यूपी का बुलडोज़र माडल अपनाया जा रहा है पर समय की सरकार को याद रखना चाहिए कि जब सज़ा देने की ताकत पुलिस के पास आ जाती है तो इन्साफ नहीं होता। हमारे पास पंजाब के काले दौर की कितनी उदाहरण हैं कि पुलिस वालों ने निजी रंजिश, तरक्की लेने के लिए और लोगों की आपसी दुश्मनी में पैसे लेकर भी पुलिस मुकाबले किये हैं। इस प्रकार कितने ही बेगुनाह भी मार दिये गये और लाशें खुर्द-बुर्द कर दी गई थीं। इसलिए समय की सरकार को निवेदन है कि किसी भी हालत में पंजाब को पुलिस के रहमो-करम पर न छोड़ें। इन्साफ को अपना काम करने दें। हां, जो ज़रूरी है, वह यह है कि यदि किसी पुलिस अधिकारी के बनाये 10 केसों में से 4 भी बरी होते हैं तो उसके खिलाफ विभागीय कार्रवाई भी ज़रूर हो ताकि एक तो वह झूठा केस न बना सके और दूसरा केस कमज़ोर न बने। इन्साफ पुलिस की धक्का करने की शक्ति से नहीं मिलना बल्कि पुलिस को अपना काम पूरी जिम्मेदारी के साथ और ठीक ढंग से करने के समर्थ बनाने से ही लोगों को इन्साफ मिलेगा। यह बहाना कि अदालत में सज़ा नहीं होती, पुलिस के अधिकार बढ़ाने के लिए उपयोग करना किसी तरह भी ठीक नहीं। यदि सज़ा नहीं होती तो उसके कारण भी तो पुलिस अधिकारियों द्वारा केस की ठीक तरह छानबीन न करना, ठीक तरह केस की एफ.आई.आर. न लिखना और सबूत इकट्ठे न करना, गवाही न देना आदि होते हैं। यह पुलिस की गलती है और इसका पुलिस को ईनाम नहीं सज़ा मिलनी चाहिए।
भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी
बड़ा-बे-अदब हूं, सज़ा चाहता हूं।
(अल्लामा इकबाल)
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