नये समय का नया धर्म-ग्रन्थ
वह संघर्षरत रहे जीवन भर, तभी आज अपने नाती-पोतों को अपनी कुर्सी पर बिठा गए हैं। उनके संघर्ष का अंत नहीं, क्योंकि राजनीति में नये खून की आमद के नाम पर अपने नाते-रिश्तेदारों और संगी-साथियों को जन-सेवा के नाम पर अपनी स्थापना सेवा को मंडित कर कुर्सियों पर बैठने के दरवाज़े खोल दिए हैं।
कभी इस देश में वाणी और भाषणों का बड़ा महत्त्व था। आपको बोलने वाले की भाषा न भी आती हो, उसकी वाणी की ईमानदारी और उत्तेजना आपको देश और समाज के लिए कट मारने के लिए प्रतिबद्ध कर देती थी। कटिबद्ध लोग हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूम लेते थे।
आज आम आदमी के जीवन से सही वाणी ़गैर-हाज़िर हो गई। अब रह गया एक टकसाली समर्थन, और अभिव्यक्ति के नाम पर ऊंचे जयघोषों का सैलाब। जय घोष उस बदलाव के लिए जो आसमान तक गया, लेकिन ज़िन्दगी में नज़र नहीं आया। आंकड़ों में नज़र आया, लेकिन असल ज़िन्दगी तक पहुंच नहीं सका। सफलता के ये आंकड़े उत्सव में पग-पग पर तबीदल हो जाते हैं। लोग उत्सवधर्मी कहलाने लगे हैं, जीवन धर्मी नहीं बन सके हैं।
पर्यावरण प्रेमियों ने सौंन्दर्य बोध की एक नई संस्कृति रच दी है, लेकिन आज भी शहर की मुख्य सड़कों पर कूड़े के डम्प उसका हुलिया बिगाड़ते रहते हैं। जिन्हें सफाईर् कर्मचारी नहीं, सफाई के मसीहा कहा जाता था, वे काम करने की मान-मनौव्वल के बावजूद कभी काम पर नहीं आते हैं। जिन्हें कर्त्तव्य पथ पर निरन्तर अग्रसर होते हुए राष्ट्र निर्माण की नई मंज़िलें तय करनी थीं, उन्होंने धरने लगा, सड़कों पर आवागमन बन्द करके रोष प्रदर्शन के नये रिकार्ड बना दिए हैं। शिकायतों पर विचार होता है, संवादों के लिए बैठकों पर बैठकें होती रहीं, जीने की जवानी नहीं लौटी। देश रुका रहा और विकास गति के आंकड़े दुनिया में शीर्ष स्थान तक पहुंच जाने का दम भरते रहे। देशों के आर्थिक शक्ति बन जाने के मुकाबले होते हैं। इस मैराथन में उपलब्धियां बंटती हैं। जो देश पीछे पिछड़े- पन की भीड़ में था, वह पांचवीं ताकत बन गया। छलांग लगाएगा, दुनिया की तीसरी ताकत बन जाएगा। एक और महोत्सव मनाने का समय आएगा, दुनिया के महाबलियों को पछाड़ कर पहली ताकत भी बन सकता है वह। प्रासादों के उन ऊंचे कयारों वालों को सलाम जिन्होंने इसे यह अनन्य ताकत बख्शी। उन करोड़ों ने पथ्यवासियों को सलाम जो अंधेरे की विरासत झेलते रहने के बावजूद इस महती सफलता के लिए हर घोषणा पर ढोल मंजीरे बजा नाचते हुए नज़र आये। संस्कृति का पुनरुत्थान हो रहा है, इसलिए समय के महीसहाओं की शोभायात्राओं में नृत्य भंगिमाओं की वृद्धि हो रही है। नव-चेतना के नाम पर मंचों से उभरती जुमलेबाज़ी इसका अभिषेक करती है। जुमलेबाज़ी के मुकाबले होते हैं, जन-यात्राओं को जवाबी यात्राएं मिलने लगी हैं, लेकिन कतार का आखिरी आदमी वहां का वहां खड़ा रहा। न कतार आगे सरकी, न ही वह किसी उत्तेजक आक्रामक क्रांति-निनाद में तबदील हो सका।
भीड़ तन्त्र अवश्य बढ़ा है, लेकिन यह तो अनुशासनहीनता का पैगाम जन-जन को दे गया। नये ढंग की संस्कृतियां पनपी हैं। बन्दूक संस्कृति, फिरौती संस्कृति। लोगों में दीदा दिलेरी बढ़ गई है, और वे दिन-दहाड़े लोगों के मोबाइल और कानों की बालियां छीनते नज़र आते हैं। सहमे हुए लोगों को सुबह सैर न करने, और गई रात अकेले दुकेले घर से बाहर न आने के संदेश मिलने लगे हैं। शांति का अर्थ मुर्दा घर की शांति नहीं होता, ऐसी बात कोई नहीं कहता, क्योंकि आप एक सहमी हुई शांति को मुर्दा घर की शांति कह कर उपमाओं के साथ ज्यादती नहीं कर सकते।वैसे उपमाओं के मन्त्रोच्चार के साथ लय ताल से ज़िन्दगी जीने का युग बीत गया। अब तो ऊबड़-खाबड़ सांसों के साथ अस्त-व्यस्तता से जीने का समय आ गया है। जीने के लिए आज धक्का मुक्की की ज़रूरत है। आपाधापी का रास्ता है। आगे बढ़ मंज़िल हो जाने के नए रास्ते बन गए हैं। हथेलियों पर हिमालय उगा सकने के नये रास्ते। जो आज हथेली पर सरसों न जमा सके, वह कभी उपलब्धि नहीं बन सकता। जो उपलब्धि न बन सके, उसे गुमनामी के अंधेरों में जलावतन कर दिया जाता है। इन अंधेरों से बेगाना हो जाने के लिए ज़रूरी है, शार्टकट को नई संस्कृति बना लो। चोर दरवाज़ों को हर कदम पर अपने लिए खोलना सीख लो।
बहुत आसान है, इन दरवाज़ों को खोल सकना। सम्पर्क संस्कृति का नाम सुना है क्या? जी हां, वहीं जो मध्यजन हैं, जो ऊपर बैठे चन्द लोग और नीचे अंधेरे में गुम होती भीड़ में संवाद का पुल बनते हैं।
यह संवाद चांदी के पहियों की सहायता से चलता है, लेकिन पहिये इस तरह चलें कि किसी को कानो कान खबर न हो। सरकार बदल जाए। कल के कर्णधार अगर आज आरोपों के कटघरे में भी खड़े हो जाएं, तो न कोई प्रमाण मिले, न साक्ष्य। आरोपों के मुकद्दमों की तारीख पर तारीख पड़ने लगे, तो जमानत मिल जाती है।
जमानत मिल जाए तो इसे सुर्खरू दिवस मान कर उनकी शोभायात्राएं निकाली जा सकती हैं। इस शोभा यात्रा में बदलाखोरी के स्पष्टीकरण के साथ आरोपित को महान जन-सेवक का दर्जा दिया जा सकता है। दर्जा ज़िन्दा रहे, तो बात ही क्या? आइए, फिर से वही बदलाव और क्रांति के नारे दुहरायें, जन-प्रतिनिधि बन जाएं।‘फिर वही दर्द है फिर वही जिगर’ के पुराने गाने की तरह फिर वही ज़िन्दगी है, निरन्तर गोलाकार घूमती हुई ज़िन्दगी, जो एक ही स्थान पर खड़े-खड़े दौड़ते रहने को मैराथन दौड़ मानती है। इसके विजेता एक दूसरे का ताज उछालने की फिराक में लगे रहते हैं, और पाला बदल एक दल से दूसरे दल में कूद जाने को आजकल व्यावहारिक सत्य कहा जाता है, आया राम गया राम का छीछालेदर नहीं। यही बदलते समय का धर्म-ग्रन्थ है बन्धु! जिसने इसका पाठ कर लिया, वह सफलता की वैतरणी पार कर गया। जो न इसे पढ़ सका, न स्वीकार कर सका, उसे अपनी गुमशुदगी के इश्तिहार की प्रतीक्षा कर लेनी चाहिए।