उत्तर प्रदेश में योगी भाजपा के लिए ज़रूरी या मज़बूरी ?
आगरा को उत्तर भारत में दलितों की राजनीतिक राजधानी माना जाता है। डा. अम्बेडकर का आखिरी भाषण यहां सबसे बड़ी चक्की पाट जाटव बस्ती में बुद्ध विहार के उद्घाटन दौरान मार्च 1956 को दिया गया था। आज भी ताजनगरी के तौर पर जाना जाता शहर करीब 30 प्रतिशत दलित आबादी की राजनीतिक विरासत बना हुआ है। इसके बावजूद आगरा के चुनावों में भाजपा की लगातार सफलता से संदेश यही मिलता रहा है कि हिंदुत्ववादी राजनीति ने वह फार्मूला खोज लिया है जिसकी वह हमेशा दलितों को अपने घेरे में लाने के लिए तलाश करती थी। वही आगरा आज एक स्थापित दलित नेता के खिलाफ लहराये जा रहे भगवा झंडों और नंगी तलवारों के मुकाबले दलितों के नीले झंडों की प्रतियोगिता का नज़ारा दिखा रहा है। इसमें राजनीतिक पेच यह है कि इस बार नीले झंडों का मतलब दलितों की पारम्परिक पार्टी ‘बसपा’ का प्रभाव नहीं है बल्कि उनके साथ समाजवादी पार्टी (सपा) के कार्यकर्ताओं की मौजूदगी एक नये समीकरण का संदेश दे रही है। पिछली बार 1993 में यह समीकरण दिखाई पड़ा था जब बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बावजूद सपा के यादवों और बसपा के जाटवों ने मिल कर भाजपा विरोधी चुनावी मुहिम का नेतृत्व किया था। उस चुनाव के नतीजे से हिंदू राजनीतिक एकता का तेज़ी से बनता हुआ मानचित्र बिगड़ गया था। लेकिन वह उभार मुख्यत: बसपा का था जिसका लाभ उसे 2012 तक मिलता रहा। उसके बाद से पलड़ा भाजपा के पक्ष में झुक हुआ है।
कोई ज़रूरी नहीं कि मतदाताओं का मूड 2027 के विधानसभा चुनाव तक भी ऐसा ही मूड कायम रहे। बगल में ही अलीगढ़ है जहां संघ के प्रमुख मोहन भागवत की तरफ से दिया गया संदेश (एक मंदिर, एक कुआं, एक श्मशान) सुनाई पड़ रहा है। ज़ाहिर है कि यह संदेश जातिगत भेदभाव की जगह समरसता कायम करने के लिए है। हम जानते हैं कि जब भाजपा चूकती है, तो संघ निकल कर आता है। उसके रणनीतिकार कभी छुट्टी नहीं लेते, और हमेशा काम करते रहते हैं। लेकिन, इस बार ऐसा ज़रूर लग रहा है कि 2014 के बाद जिस बारीकी और कुशलता से हिंदू राजनीतिक एकता के दायरे में दलित मतदाताओं को जोड़ा गया था, वह कारीगरी कहीं गायब हो गई है। उत्तर प्रदेश एक ऐसी कसौटी है जिस पर हिंदुत्व के दलित अध्याय को लगातार अपनी परीक्षा देनी पड़ती है। फिलहाल इस इम्तिहान में वह चूकता दिख रहा है।
दरअसल, होना इसका उल्टा चाहिए था। परिस्थितियां उसके अनुकूल इसलिए हैं कि बहुजन समाज पार्टी की दलित मतदाताओं पर से पकड़ ढीली होती जा रही है। जो दलित मतदाता मंडल मायावती के नेतृत्व के प्रति ज़बरदस्त निष्ठा दिखाता रहा है, वह उनकी लगातार निष्क्रियता और विचित्र किस्म की रणनीति विहीनता के कारण अनमना होता जा रहा है। 2022 के चुनावों में भाजपा ने कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसका लाभ भी उठाया था। किसान आंदोलन के कारण जाट वोटों में जो कमी आयी थी, समझा जाता है कि उसकी भरपायी कुछ जाटव वोटों ने की थी। पिछले ढाई साल में यह दलित वोटर और भी ‘फ्लोटिंग’ हुआ है। एक तरह से यह माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहली बार अम्बेडकरवादी राजनीति की खुराक पर पला दलित समुदाय हिंदुत्व द्वारा अपनी ओर खींचे जाने के लिए खुल गया है। इस परिस्थिति के बावजूद भाजपा इस अंदेशे का सामना कर रही है कि कहीं यह वोटर भाजपा की तरफ झुकने के बजाय कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के गठजोड़ को न पसंद कर बैठे। लोकसभा चुनाव में उसकी इस पसंद के पहले संकेत दिखे थे। विधानसभा चुनाव के लिए हो रही पेशबंदी कुछ इसी तरह की है। भाजपा और संघ की जोड़ी निश्चित रूप से यह देख और समझ रही होगी। क्या उसकी मौजूदा किंकर्त्तव्यविमूढ़ता जानबूझ कर ओढ़ी हुई है? या, उसे अपने हाथ बंधे हुए लग रहे हैं?
अगर उसके हाथ बंधे हुए हैं तो उसका कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ जी की प्रबल भगवा दावेदारियों में निहित है। उनके हाथ में ‘हिंदुत्ववादी हथौड़ा’ है जो लगातार चलता रहता है। उनकी राजनीति को हिंदुत्व के साथ सामाजिक न्याय के पहलू जोड़ने में दिलचस्पी नहीं है लेकिन, इस तरह के आक्रामक हिंदुत्व से केवल ‘द्विज’ मानस वाले 18 से 20 प्रतिशत मतदाताओं को ही स्पर्श मिलता है। दलित जातियां इस राजनीति से चौंक जाती हैं। समाजवादी पृष्ठभूमि का ओबीसी समाज भी इससे शंकित हो जाता है। योगी जी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं ने आलाकमान और उनके बीच एक फांक भी पैदा कर दी है जिसकी चर्चा पार्टी के भीतर और बाहर चलती रहती है। किसी ज़माने में आदित्यनाथ जी भाजपा-संघ का प्रयोग थे, लेकिन ऐसा लगता है कि आज वह एक मजबूरी बन गये हैं। दूसरा जवाब भी ़गौर करने काबिल है। संभवत: संघ परिवार ने तय कर लिया है कि 2027 में आदित्यनाथ जी के नेतृत्व में विशुद्ध भगवा प्रयोग करके देखा जाए। इससे पता चलेगा कि प्रदेश स्तर और स्थानीय स्तर पर जातिगत मांगों की परवाह किये बिना की गई राजनीति के बावजूदऊंची जातियों (जो भाजपा की जेबी वोटर बन चुकी हैं) के साथ दलित और ओबीसी वोटर कितनी संख्या में जुड़ते हैं। क्या आदित्यनाथ जी की भगवा आक्रामकता के बावजूद उत्तर प्रदेश की भाजपा चालीस से 45 प्रतिशत की हिंदू राजनीतिक एकता हासिल कर सकती है? संघ परिवार सोच सकता है कि अगर यह प्रयोग नाकाम हुआ तो उसके पास 2029 तक अपना रास्ता बदलने के लिए पर्याप्त समय होगा। लेकिन, उसके सामने एक बहुत बड़ा सवाल यह है कि इस चक्कर में अगर अखिलेश यादव अपना ‘पीडीए’ (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक एकता) बना ले गए तो उत्तर प्रदेश में भाजपा एक दीर्घकालीन संकट में फंस सकती है।
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय,
दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।