स्वागतयोग्य है सर्वोच्च् न्यायालय का फैसला

8 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) द्वारा राज्यों की विधानसभाओं की ओर से पारित किए गए विधेयकों बारे फैसला लेने संबंधी राज्यपालों तथा राष्ट्रपति की शक्तियों के संबंध में दिए गए फैसले से देश के राजनीतिक एवं न्यायिक गलियारों में बड़ी चर्चा शुरू हो गई है। विपक्षी पार्टियां तथा कानून के जानकार बहुत-से विशेषज्ञों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की ओर से दिए गए उक्त फैसले का व्यापक स्तर पर स्वागत किया जा रहा है जबकि भाजपा से संबंधित कई केन्द्रीय मंत्रियों तथा विशेषकर उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा सुप्रीम कोर्ट के फैसले की कड़ी आलोचना की गई है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला तमिलनाडु की सरकार द्वारा अपने राज्य के राज्यपाल आर.एन. रवि की ओर से राज्य विधानसभा द्वारा पारित किए गए विधेयकों को अनिश्चित काल के लिए अपने पास लम्बित रखने के मामले को सर्वोच्च न्यायालय में दी गई चुनौती से संदर्भ में आया है।   
उप-राष्ट्रपति श्री जगदीप धनखड़ ने इस फैसले संबंधी एक समारोह को सम्बोधित करते हुए कहा है कि न्यायपालिका का कार्य कानूनों की व्याख्या करना होता है, वह स्वयं कानून नहीं बना सकती। उपरोक्त मामले में न्यायपालिका ने ‘सुपर पार्लियामैंट’ बनने का यत्न किया है, जो विधानपालिका के काम-काज में हस्तक्षेप है। उन्होंने यह भी कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय को धारा 142 के अधीन मिली शक्तियां परमाणु मिसाइल की तरह हैं, जिनका वह लोकतंत्र के खिलाफ इस्तेमाल करती है। श्री जगदीप धनखड़ की इन टिप्पणियों की प्रसिद्ध वकील श्री कपिल सिब्बल तथा कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला तथा सी.पी.आई. के महासचिव डी. राजा ने कड़ी आलोचना की है और कहा है कि उन्हें उप-राष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद पर बैठ कर न्यायपालिका के विरुद्ध ऐसी टिप्पणियां करने का अधिकार नहीं है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि विगत लम्बे समय से अलग-अलग तरीकों से तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि तमिलनाडु की सरकार के काम-काज में विघ्न डालते आ रहे थे। इस क्रम में ही उन्होंने राज्य विधानसभा की ओर से पारित किए गए विधेयकों को लम्बे समय तक स्वीकृति देने से रोके रखा था और जब उन्हें विधानसभा ने दोबारा पारित करके भी भेज दिया, तो भी उन्होंने विधेयकों को अपने पास रोके रखा। जब तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल के इस रवैये के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया तो राज्यपाल ने ये विधेयक विचार करने हेतु राष्ट्रपति के पास भेज दिए। आगे राष्ट्रपति ने राज्यपाल की तरह ही इन विधेयकों को अपने पास लम्बित रख लिया। इस पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया है कि संविधान की धारा 200 राज्यपाल को यह अधिकार देती है कि जितनी शीघ्र हो सके, वह राज्य विधानसभा की ओर से पारित किए गए किसी भी विधेयक को स्वीकृति दे या अपने सुझाव देकर विधानसभा को पुन: विचार करने के लिए वापस भेज दे। यदि संबंधित राज्य विधानसभा उस विधेयक को दोबारा पारित करके स्वीकृति के लिए पुन: राज्यपाल को भेजती है तो उन्हें विधेयक को स्वीकृति देनी होगी या वह सम्बद्ध विधेयक को विचार करने हेतु राष्ट्रपति को भेज सकते हैं, परन्तु किसी भी हालत में राज्यपाल विधेयक को अनिश्चित काल के लिए अपने पास नहीं रख सकते। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंधी स्थिति को और स्पष्ट करते हुए राज्यपालों तथा राष्ट्रपति की ओर से विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए कम से कम एक माह का तथा अधिक से अधिक तीन माह समय भी निश्चित कर दिया है। 
जहां तक भारत सरकार का संबंध है, उसने अधिकारिक तौर पर इस संबंध में अपना कोई रुख स्पष्ट नहीं किया, चाहे कि कानून मंत्री किरण रिजिजू ने सर्वोच्च न्यायालय के उक्त फैसले की आलोचना अवश्य की है, परन्तु सरकारी सूत्रों के हवाले से ये समाचार अवश्य आ रहे हैं कि केन्द्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय में इस संबंध में रिव्यू याचिका दाखिल कर सकती है। इस संदर्भ में हमारा यह स्पष्ट विचार है कि एक लोकतांत्रिक देश में अहम संवैधानिक पदों पर बैठी बड़ी शख्सियतें (मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति) भी कानून तथा संविधान के आगे जवाबदेय होती हैं। उन्हें भी असीमित अधिकार प्राप्त नहीं होते। भारतीय संविधान में विधानपालिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के अधिकारों का स्पष्ट रूप में विभाजन किया गया है। यह व्यवस्था किसी भी पक्ष को निश्चित क्षेत्र से बाहर जाने से रोकती है। न्यायपालिका को राज्य विधानसभाओं तथा संसद द्वारा पारित किए गए कानूनों की संविधान की रौशनी में व्याख्या करने का अधिकार है, परन्तु संविधान की धारा 142 के तहत किसी भी पक्ष को पूर्ण न्याय देने के लिए वह विशेष परिस्थितियों में कानून की व्याख्या करते हुए किसी विषय पर ऐसा निर्णय भी ले सकती है, जिस संबंधी संसद ने कोई कानून न बनाया हो या संविधान में उस संबंधी स्थिति अधिक स्पष्ट न हो। अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपालों तथा राष्ट्रपति के विधेयकों को स्वीकृति देने संबंधी एक से तीन माह तक का समय निश्चित किया है। 
हमारे विचार के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला विधानपालिका को या लोकतंत्र को कमज़ोर करने वाला नहीं, अपितु मज़बूत करने वाला है। लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई विधानसभाओं की ओर से पारित किए गए विधेयकों को राज्यपालों या राष्ट्रपति को अनिश्चित काल तक रोके रखने का अधिकार नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में यदि संसद की ओर से पारित किए गए किसी विधेयक को राष्ट्रपति अनिश्चित काल के लिए रोक कर बैठ जाए तो केन्द्र सरकार की स्थिति क्या होगी, इसे समझा जा सकता है। कांग्रेस की सरकारों के समय भी जब तत्कालीन राज्यपालों या तत्कालीन राष्ट्रपतियों की ओर से विधेयकों की लम्बे समय तक स्वीकृति रोकी गई थी, तो उनकी भी आलोचना होती रही थी। इसलिए संघीय ढांचे तथा लोकतंत्र को मज़बूत करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का सब पक्षों द्वारा स्वागत ही किया जाना चाहिए।

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