जाते-जाते बांग्लादेश को बदहाल बना जाएंगे मोहम्मद यूनुस
बांग्लादेश में आम चुनावों के लिये साल के अंत या अगले साल की शुरुआत तक इंतज़ार करना अब ठीक नहीं लगता। बेहतर होगा कि अगले तीन महीने में लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव की प्रक्रिया पूरी कर इसी साल अगस्त तक जनता द्वारा चुने किसी नेता को देश की सत्ता सौंप दी जाये। कार्यवाहक सत्ता प्रमुख मोहम्मद यूनुस यदि साल भर और इस पद पर बने रहे तो बांग्लादेश का जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कुछ दशकों में नहीं हो पाएगी। संभव है, देश बर्बादी के उस रास्ते पर बढ़ जाए जहां से वापसी असंभव हो जाए।
शेख हसीना ने एक बार अपने राजनीतिक बयान में यूनुस को राजनीति के लिए एक खतरा बताते हुए कहा था कि, ‘राजनीति में नौसिखिया अक्सर खतरनाक साबित होते हैं। उन्हें शक की निगाह से देखा जाना चाहिए क्योंकि ये देश को फायदा पहुंचाने की बजाय अमूमन बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं।’ शेख हसीना की यह बात भले ही संकुचित सोच के साथ कही गई हो परन्तु व्यापक अर्थों में बहुत सही पाई गई है। जो राजनेता जनता के बीच जमीनी स्तर पर काम करते हुए चुनकर नहीं आते फिर ऐसे पदों पर मनोनीत हो जाते हैं जो निर्णायक होते हैं, तो वे देश और समाज के लिये घातक साबित होते हैं। उनके निर्णयों में दूरदर्शिता, राजनीतिक सूझबूझ का अभाव होता है और अधिकतर फैसले उनकी भावनात्मक मनमानी से भरे, दूसरों के इशारों पर, ईर्ष्या और बदले की भावना से ग्रस्त, प्रतिशोध की राजनीति तथा कुंठा से प्रेरित एवं अदूरदर्शी होते हैं। बांग्लादेश के मोहम्मद यूनुस इसका ज्वलंत उदाहरण हैं जो अपने अविवेकी निर्णयों से बांग्लादेश को बुरी तरह फंसाते जा रहे हैं।
भारत के प्रति दुराग्रह, पाकिस्तान से प्रगाढ़ता, चीन के सामने बिछते जाना, अमरीका को आकर्षित करने का हर संभव प्रयास और रूस के साथ भी रिश्ते गाढ़े करने की कोशिशों के अलावा देश में पाकिस्तान-परस्त पार्टियों को प्रश्रय देना, देश के सैक्युलर ढांचे को बदलने की तरफदारी के चलते यूनुस ने भू-राजनीतिक संबंधों, समीकरणों के अलावा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में बांग्लादेश के लिये मुसीबतें खड़ी कर दी हैं। यूनुस ने अत्यंत अल्पकाल में इतने ज्यादा नुकसानदायक फैसले लिये हैं, और आगे इसके और बढ़ते जाने की आशंका के मद्देनज़र अब बांग्लादेश को जल्द ही चुनावों के ज़रिये उनसे निजात पा लेनी होगी।
जनवरी 2007 में शेख हसीना और खालिदा ज़िया दोनों जेल में थीं। बांग्लादेश की सत्ता पर सेना का कब्जा था। मोहम्मद यूनुस को तब देश में गरीब लोगों को कर्ज बांटने वाले ग्रामीण बैंक स्थापित करने, माइक्रोक्रेडिट को नई दिशा देने वाले व्यक्ति के तौर पर पहचान, प्रसिद्धि और नोबेल प्राइज़ मिल चुका था। सेना ने देश को चलाने के लिए उन्हें कार्यवाहक प्रधानमंत्री चुना पर वह यह जिम्मेदारी लेने से पीछे हट गए। पेशकश ठुकराने वाले यूनुस ने अगले महीने ‘नागोरिक शक्ति’ नाम से एक राजनीतिक पार्टी लांच कर दी। शोर मचा कि इसके पीछे सेना का हाथ है। पार्टी के पोत के राजनीति के समंदर में अवतरण के महज 76 दिन बाद यूनुस ने पार्टी से किनारा कर लिया। खैर, 17 साल बाद मची राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान जब शेख हसीना देश छोड़कर भाग आईं तो अंतरिम सरकार चलाने की जिम्मेदारी मोहम्मद यूनुस ने स्वीकार ली।
यह धारणा बन सकती है कि बीते 17 सालों में यूनुस ने सियासत के तमाम पाठ सीख लिये होंगे, अब उन्हें आजमाना चाहते होंगे लेकिन यह उम्मीद इसलिये निरर्थक है क्योंकि न तो यूनुस की पार्टी एक जिम्मेदार और बेहद सक्रिय विपक्षी दल के तौर पर सामने आयी, और न ही यूनुस किसी तरह के प्रखर आंदोलनकारी नेता के तौर पर पहचाने गये। यहां तक कि उनकी छवि किसी राजनीतिक विचारक की भी नहीं बनी बल्कि उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार, कदाचार इत्यादि से संबंधित 100 से अधिक गंभीर आरोपों ने उनकी पुरानी छवि को किंचित धक्का ही लगाया। कुल मिलाकर पार्टी बनाने और चलाने के बावजूद यूनुस ने राजनीति का बस इतना ही गुर सीखा कि अपने वादों बयानों से कैसे मुकरा जाए, किस तरह कुर्सी पर बना रहा जाये और अपने ऊपर लगे आरोपों और मुकद्दमों से पद पर रहते कैसे मुक्त हुआ जाए। उनके हालिया फैसलों और हरकतों से यह कतई नहीं लगता कि इसके अलावा भी उन्होंने राजनीति और कूटनीति का कोई खास सबक सीखा हो।
मोहम्मद यूनुस यदि सामान्य सियासी समझ ही रखते तो बांग्लादेश को अस्तित्व में लाने वाले, उसे हर समय हर संभव मदद करने वाले पड़ोसी भारत जिसका उसके साथ रणनीतिक-सांस्कृतिक-व्यापारिक संबंधों का लम्बा इतिहास है, जो उसके आर्थिक और लोकतांत्रिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे चुका है, जिसके साथ उसका भविष्य साझा है, उस के साथ खुले आम महज शेख हसीना को पनाह देने की खुन्नस व पाक-परस्त चरमपंथियों के दबाव में, सीधे पंगा लेने जैसी हास्यास्पद हिमायत कभी न करते। सत्ता प्रमुख बनते ही अपनी सेना को पड़ोसी से सतर्क रहने को कहना, पाकिस्तान से गोला बारूद, सैन्य सहायता और प्रशिक्षण की बात करना, उत्तर पूर्व में अशांति को हवा देने का इशारा करना, जैसी कवायद जो उन्होंने शुरू की तो आज त्रिपुरा में जल संकट खड़ा करने, चिकेन नेक को निशाना बनाने से लेकर हिंदुओं पर हिंसक अत्याचार, देश के अल्पसंख्यक सुरक्षा पर अनर्गल बयान देने तक जारी है।
अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और कूटनीति की सामान्य समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति इसे मानने में गुरेज नहीं करेगा कि भारत में ‘नेबर फर्स्ट’ नीति, छोटे पड़ोसी देश होने और अपने पुराने रिश्तों की लाज रखते हुए कोई कठोर कदम नहीं उठाया। बांग्लादेश के कुल निर्यात में करीब 85 प्रतिशत और कुल जीडीपी में 13 प्रतिशत का योगदान देने वाली बांग्लादेश की गार्मेंट इंडस्ट्री पर भारत के इस फैसले से कि वह अपनी जमीन से व्यापार की अनुमति नहीं देगा, वाकई उसका भारी घाटा हुआ है, पर यह ज़रूरी था। भारत को धता बताने के लिए यूनुस का अमरीका की ओर झुकाव दूरगामी सोच नहीं लगती। अमरीका चीन व पाकिस्तान को संतुलित करने के चक्कर में बांग्लादेश में रुचि ले रहा है पर यूनुस यह आकलन नहीं कर पा रहे कि उनके इस कदम से भारत को लाभ ही होगा। अमरीका से उसके रिश्ते पूर्ववत रहेंगे जबकि चीन को काउंटर करने के लिये पड़ोस में अमरीका भी होगा। बांग्लादेश रूस से भी रिश्ते बढ़ा रहा है। यूनुस यह नहीं समझ रहे कि एक साथ रूस, चीन अमरीका और पाकिस्तान की उनके वहां उपस्थिति यदि भारत को तंग करने वाली होगी तो खुद उनके वहां भी इससे कम घमासान नहीं होगा। सबसे मजेदार है पाकिस्तान, बांग्लादेश संबंधों की बासी कढ़ी में उबाल देखना। पहले तो प्रेम प्रगाढ़ता प्रदर्शित की गई। फिर कहा गया कि पाकिस्तान मुक्ति संग्राम के दौरान किए अपने अत्याचारों के लिए सार्वजनिक माफी मांगे। 1971 में जब दोनों देश एक ही थे, पाकिस्तान तब की संयुक्त संपत्ति से उसके हिस्से के 52 हजार करोड़ टका का भुगतान करने के अलावा 1970 में आए चक्रवात के समय मिली इमदाद का उसका हिस्सा करीब 2400 करोड़ टका अदा करे। पाकिस्तान के उप-प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री इशाक डार इसी सप्ताह बांग्लादेश पहुंचेंगे तो यूनुस के अव्यावहारिक मंसूबे कितने कामयाब होंगे, तब पता चलेगा।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर