ट्रम्प और नेतन्याहू को कैसी दुनिया की दरकार

इस समय ट्रम्प और नेतन्याहू की दुनिया में एक अलग-सी छवि बनती जा रही है। ऐसे नेता दिख रहे हैं जो मनमानी कर रहे हैं, उससे दूसरों पर क्या गुजरती है या क्या प्रभाव पड़ता है इससे उनको कुछ लेना-देना नहीं। ऐसा पहले नहीं था। कुछ समय पूर्व अमरीका के राष्ट्रपति और इज़रायल के प्रधानमंत्री के बीच जब भी मुलाकात होती थी इज़रायल और अमरीका के यहूदियों के लिए फख्र की बात होती थी, लेकिन ओवल दफ्तर में ट्रम्प और नेतन्याहू की तस्वीरों से जो कुछ लोगों को लगा, उसे फख्र की बात तो नहीं कहा जा सकता। 
अब लगने लगा है कि दोनों देश  कानून के राज को कमज़ोर करते जा रहे हैं। दोनों जातीय राष्ट्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। अपने विरोधियों को शत्रु मानने लगे हैं और अपने मंत्रिमंडल में ऐसे कुछ अयोग्य लोगों को जगह दे दी है। जिन्हें देश के कानून की जगह अपने प्रति वफादारी को देखते हुए चुना गया है। वे मानते हैं कि उन्हें क्षेत्रीय विस्तार का दिव्य अधिकार मिला हुआ है। इसका सीधा मतलब यह है कि पहले वाली पहचान से इनकार और नए अध्याय का आरम्भ। अमरीका की मूल पहचान कानून के राज से संचालित मुल्क की रही है और मानवता की बेहतरी के लिए समर्पण और काम। इज़रायल के लिए भी यही अर्थ है पहले वह शत्रुओं के बीच गर्व से संचालित लोकतांत्रिक आस्था का देश था। वह फिलिस्तीनियों के प्रति भी शांति प्रियता को प्राथमिकता देता रहा है।
अब ट्रम्प और वेंस क्या कर रहे हैं? वे यूरोपीय संघ के लोकतांत्रिक व्यवहार, मुक्त बाज़ार कानून के शासन वाले सहयोगी मित्रों के साथ लापरवाही का व्यवहार कर रहे हैं। ट्रम्प ने हाल ही में कहा है कि यूरोपीय संघ को अमरीका की तबाही के लिए ही बनाया गया है। इसी बात को ओवल दफ्तर में नेतन्याहू के साथ फिर दोहराया। इस बयान में क्या ऐतिहासिक अज्ञानता नहीं छुपी हुई है? ट्रम्प और वेंस एक ऐसा अमरीका बनाने पर तुले हैं जो अपनी लड़ाई लड़ रहे यूक्रेन से सैन्य सहायता के बदले खनिज पदार्थों पर कब्ज़ा चाहते हैं। साफ्ट पॉवर की बात भूल जाएं, उसे बनाए रखने में थी दिलचस्पी नज़र नहीं आती। वे निश्चित रूप से भूल रहे हैं कि यदि ‘साफ्ट पॉवर’ खो जाती है तो अन्य देश साथ आने से कतराने लगते हैं। अपने मूल्यों और हितों को अधिक ग्रहणशील तरीके से रख पाना एक ऐसी ताकत थी जो उन्हें रूस से बेहतर बनाती थी। यदि आप बिना सोचे समझे अपने सहयोगियों को नकारते रहेंगे तो इसके परिणाम कभी भी सन्तोषजनक नहीं रह सकते। ऐसे अमरीका गुरु कैसे बन जाएगा, जो वह बनाने की शपथ लिए बैठे हैं और बार-बार कहते भी हैं। टैरिफ वार की घोषणा करते हुए उन्होंने इसे आज़ादी का दिन बताया था। चीन पर उन्होंने 123 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया है जो एक किस्म का घोषित व्यापार प्रतिबन्ध ही है। दुनिया के 70 देशों को जिसमें भारत भी है। 26 प्रतिशत वाली टैक्स श्रेणी में फिलहाल रखा है। अमरीकी वित्त मंत्री से जब पूछा गया कि यह प्रतिशोधात्मक टैक्स केवल चीन पर ही क्यों? क्या अन्य देश भी हो सकते हैं जिन पर भारी टैक्स लगेगा। उन्होंने कहा कि  खराब खिलाड़ियों पर नज़र रहेगी। यह कहते हुए वियतनाम, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत का नाम लिया। भारत ने समझदारी दिखाई अमरीका से द्विपक्षीय वार्ता शुरू कर दी। पत्रकार बता रहे हैं कि अमरीका की टैरिफ नीति अभद्र है। नेतन्याहू भी कोई भलाई के कामों में आगे नहीं आ रहे। गाजा प र पूरा कब्ज़ा भी सराहनीय कार्य नहीं कहा जा रहा। मानवतावादी दृष्टिकोण की सीमा नज़र आती है। ये दोनों मिलकर या अलग-अलग जो पालिसी चला रहे हैं, वह बेहतरी की तरफ जाती नज़र नहीं आती।

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