जी नहीं टोबा टेक सिंह बेहोश नहीं है
जब सन सैंतालिस के विभाजन की आग भड़की थी, तब मण्टो का टोबा टेक सिंह बेहोश पड़ा था। उसका निष्प्राण होता बदन दोनों देशों की सरहद के बीचो बीच पड़ा था। इस बीच इतने बरस बीत गये। तरक्की के वर्ष, खुशहाली के बरस। जानकारों ने बताया, देश की विकास दर दुनिया की विकास दर से कहीं आगे निकल गई। क्षितिज पर उभरती और ऊंची होती इमारतों के सायों ने जताया, आप दुनिया की सबसे बड़ी, मजबूत पांचवीं आर्थिक शक्ति से तीसरी बनने जा रहे हैं, और शतक पूरा करते-करते सबसे बड़ी शक्ति बन जाओ तो भी कोई सन्देह नहीं।
इस बीच शत्रुओं की आंखों में ईर्ष्या के साये गहराते रहे। अब तक सरहदों के बीच पड़े टोबा टेक सिंह को मर जाना चाहिए था, लेकिन वह तो आज भी ज़िन्दा भटक रहा है। कुछ लोगों ने उसे सस्ते राशन की दुकानों के बाहर खड़ी एक लम्बी कतार में खड़े देखा है। कुछ ने उसे सात समुद्र पार विदेश में तस्कर हो जाने की कोशिश में, लेकिन उसे वहां किसी ने चाहा नहीं। बैरंग वापिस लौट आया। अपने उसी अंधेरे गांव में, जहां उसके लिए काम था, दाम नहीं। मनरेगा कतार में खड़े एक जाली आदमी ने उसे आवाज़ दी, ‘आओ मेरे साथ आ जाओ। आजकल दुनिया में खोटे सिक्कों का चलन हो गया है, आओ ऐसा ही एक और सिक्का बन जाएं। नारा या जयघोष बन जाना सीख लो। रंक से राजा बनने की शुरुआत हो जाएगी, एक दिन दुमछल्ले की पदवी तरक्की करके माथे का चन्दन हो जाओगी।
लेकिन इस बीच जमाना ़कयामत की चाल चल गया। कभी यहां महामारी का पदार्पण होता, या कहीं आया राम गया राम राजनीति की गोटियों पर अपना सिक्का जमाते लोग नज़र आते, लेकिन ऐसे आते बहुत कम थे, और उन्होंने अपनी कुर्सियां अपने वारिसों के लिए सुरक्षित कर ली थीं।
हां, टोबा टेक सिंह इस वृत्त के बाहर खड़ा था, लेकिन अब वह अकेला नहीं रहा था। उनकी भीड़ बढ़ती जा रही थी, और अब तो दोनों देशों की सरहद के बीच उनके बेहोश होकर गिर जाने की जगह भी नहीं रही।
अपने देश में आबादी दुनिया भर में सर्वाधिक हो गई, और उनमें सम्पन्नता के नाम पर चन्द लोगों की आकाश छूती इमारतें बढ़ गई थीं, या अपनी झुग्गी झोंपड़ियों या फुटपाथों के अंधेरे में गुम जाते रहे लोग। जहां वे पहले खड़े हो अपने कायाकल्प का इंतज़ार कर रहे थे, वहां अतिक्रमण हो गया था। जिसे आज तक लाल डोरा क्षेत्र समझते रहे, वहां बुनियादी मौलिकता के विकास के नाम पर आयातित गाड़ियों वाले कब्ज़ा करते जा रहे थे, और अपने टूटे घरौंदे से बहिष्कृत लोग अवैध दारू की भट्ठियों में कारिन्दों और कामगारों का काम तलाशने जा रहे थे। ये सभी नए टोबा टेक सिंह थे, जो वैध कागज़ पत्र न होने के कारण सात समुद्र पार से अयाचित कह लौटा दिये गये थे, और अब अवैध दारू की बस्तियों के द्वार खटखटा रहे थे। बाहर शरण नहीं मिली तो यहां शरणागत हो जाना चाहते थे।
लेकिन इतने बरसों के बाद भी वे टोबा टेक सिंह ही रह गये, इसलिए उन्हें घटिया दारू से जहन्नुम तो दिया जा सकता था, रोज़ी-रोटी का वसीला नहीं। उन्हें जिगर जला कर मर जाने का अवसर तो दिया जा सकता था विकास के अर्थ भरा सपना नहीं।
किस अर्थ की तलाश करें बन्द गली का आखिरी मकान भी न बन सकने वाले ये टोबा टेक सिंह। उनका तो फुटपाथ भी छिन गया था। आजकल वहां हर दिन इतवारी बाज़ार लगते हैं। उन्हें तो इतने बरसों में सांस भरने की जगह भी नहीं मिली, आप उनके इज्जत से जीने की बात करते हैं।
अंधेरे कोनों में सिर झुका कर बैठे टोबा टेक सिंह अपने आपसे कुछ पूछते हैं, लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता। मिलती है भूख के नाम पर उपवास करने की सलाह। रोज़ी के नाम पर अनुकम्पा की दुकान के बाहर कतार लगाने का उपकार।
टोबा टेक सिंह पौन सदी में अमर हो गया। वह एक ही जगह खड़ा रहा। उसने तो इसका महोत्सव भी मना लिया, लेकिन तभी उसके जीवन, उसके राज्य उसके देश की सरहद पर बम फटने लगे। मिसाइलें और ड्रोन सीधे आपके सिर पर आ कर फटते हैं। उसने सुना चमचमाती बत्तियों पर मारक अंधेरा घिर गया। वह घुप्प अंधेरे में पहले भी था, आज भी है, लेकिन अचानक बेहोश टोबा टेक सिंह जाग उठा। भूख अभी भी बाकी थी, लेकिन प्राण भी तो बाकी थे। उसे लगा भूख, भ्रष्टाचार और महंगाई को छका कर जीने में अर्थ तलाशने का वक्त आ गया। अपनी धरती बचेगी, तो वह दशकों की इस भटकन को अर्थ दे सकेगा। वह उस कतार में गया जहां बलिदानी वर्दियां बंट रही थीं। उसे लगा सरहद के बीचो बीच बेहोश हो गिरने से बेहतर है सूनी होती मांग का सिन्दूर लौटाने के लिए लड़ा जाये। उसने वर्दी पहन देश के लिए मरने की कसम खा ली। कम से कम यह भूख से उपेक्षित होकर मरने से तो बेहतर थी।