और बढ़ सकती हैं भारत की सुरक्षा चुनौतियां

भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे ड्रोन और मिसाइल युद्ध पर सरसरी निगाह डालते ही पहला सवाल दिमाग में यह आता है कि रावलपिंडी और इस्लामाबाद में बैठे हुए रणनीतिकारों ने 9 मई से पहले यह स्वीकार क्यों नहीं किया कि वे भी भारत के हवाई अड्डों और रक्षा प्रतिष्ठानों पर हमले कर रहे हैं? इसी से जुड़ा हुआ एक दूसरा सवाल भी है। पाकिस्तान ने अपना एयरस्पेस बंद क्यों नहीं किया और अंतर्राष्ट्रीय एयरलाइनों को उड़ानें भरने एवं लैंड करने की इजाज़त जारी क्यों रखी? एक तीसरा और समान रूप से ज़रूरी सवाल यह है अमरीका और चीन पहलगाम की बैसरन घाटी में किये गये निर्दोषों के रक्तपात की ज़िम्मेदारी लेने वाले ‘द रजिस्टेंट फ्रंट’ (टीआरएफ) जैसे आतंकवादी संगठन का नाम संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से हटाने के लिए क्यों राज़ी हो गए? कहीं ऐसा तो नहीं है कि अमरीका भी चीन की तरह भारत-पाक संघर्ष के इन संगीन हालात में अघोषित रूप से ही सही इस्लामाबाद की तरफ ही झुका हुआ हो? इन दो बड़ी ताकतों के साथ-साथ बांग्लादेश और तुर्की जैसे पाकिस्तान के छोटे-छोटे समर्थकों की हरकतों और इरादों पर नज़र रखना ज़रूरी है। इन प्रश्नों का उत्तर पाने से पाकिस्तान की रणनीति से जुड़ी हुई पेचादगियां तो सामने आएंगी ही, उसकी मजबूरियां और कमज़ोरियां भी स्पष्ट हो जाएंगी। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति का उपयोगी जायज़ा भी मिल जाएगा। अंतत: भारत को इन सभी पहलुओं पर चौकस निगाह रखते हुए ही अपनी कार्रवाई आगे चलानी है। 
यह देख कर कुछ विचित्र लगता है कि पाकिस्तान के युद्ध-प्रयास 9 मई (शुक्रवार) को वाशिंगटन में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को बोर्ड की बैठक के नतीजे पर काफी-कुछ निर्भर थे। इस बैठक में तय होने वाला था कि पाकिस्तान को 2.3 अरब डालर (एक अरब डालर नकद और 1.3 अरब डालर का विस्तारित भुगतान) की कज़र्नुमा आर्थिक मदद दी जाए या न दी जाए। भारत इसके सख्त खिलाफ था और उसका कहना था कि पाकिस्तान अपने भुगतान-संतुलन को दुरुस्त करने के नाम पर जो मदद ले रहा है, वह दरअसल फौजी साज-सामान खरीदने और आंतकियों को सीमापार भेजने के काम आएगी। भारत भी इस बोर्ड में है। भारत ने न केवल मुद्रा कोष के सामने अपनी बात रखी, बल्कि दुनिया की सभी बहुपक्षीय एजेंसियों से कहा कि वे पाकिस्तान के दावों पर नहीं बल्कि उसके इरादों पर गौर करें। पिछले 28 साल में पाकिस्तान ने अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की मदद का गलत इस्तेमाल ही किया है। 
मुद्रा कोष के बोर्ड की मीटिंग में वोटिंग के नियम कुछ अलग तरह के हैं। उनके अनुसार कोई भी सदस्य किसी प्रक्रिया के खिलाफ अपना औपचारिक इंकार दर्ज नहीं कर सकता है। इसीलिए भारत ने वोटिंग से अनुपस्थित रहना मुनासिब समझा और इस तरह उसे अपनी आपत्तियां दर्ज करने का मौका मिल गया। जैसे ही मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को 2.3 अरब डालर देने का फैसला किया और प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने इसकी जानकारी दी, वैसे ही तुरंत उसने ऐलान कर दिया कि वह भारत पर हमले कर रहा है। उसने अपने युद्ध-प्रयास को फटाफट एक नाम भी दे दिया—‘बुनयान-उल-मरसूस’ (शीशे की मज़बूत दीवार)। ज़ाहिर है कि यह दीवार टिकने वाली नहीं है। यह असलियत जल्दी ही पाकिस्तान के सामने आ जाएगी। अगर पाकिस्तान इस मीटिंग से पहले युद्ध की घोषणा कर देता तो कोष के बोर्ड के सामने भारत की आपत्तियों पर हमदर्दी से गौर करने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। वैसे भी पाकिस्तान का विदेशी ऋण 2024 में ही 130 अरब डालर (इसका 5वां हिस्सा चीन से मिला है, यानी पाकिस्तान चीन का बहुत बड़ा कज़र्दार है) तक पहुंच चुका था। उसका विदेशी मुद्रा भंडार घट कर 15 अरब डालर ही रह गया था। विश्व की सबसे बड़ी रेटिंग एजेंसी ‘मूडी’ ने 2-3 दिन पहले ही चेतावनी दे दी है कि ़खराब माली हालत के बावजूद युद्ध में जाने के कारण पाकिस्तान की ‘मैक्रोइकॉनॉमिक’ स्थिरता पर बहुत खराब असर पड़ने वाला है।
पाकिस्तान ने दूसरी चालाकी यह दिखाई कि अपने नागरिक हवाई अड्डों से उड़ानें जारी रखीं ताकि भारतीय वायुसेना के आक्रमणों को संयमित रखा जा सके। वह चाहता था कि अगर भारत की तरफ से किसी नागरिक विमान को निशाना बना दिया जाए तो अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उसे अपना पक्ष पेश करने में सुविधा होगी। लेकिन, भारत इस मामले में भी सतर्क निकला। पाकिस्तान ने जब आईएमएफ से कज़र् लेने का आवेदन किया था, तो फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) ने ग्रे लिस्ट में डाल दिया था। उससे निकलने के लिए पाकिस्तान ने लश्करे-तैयबा और जैशे मुहम्मद जैसे आंतकवादी संगठनों को अदृश्य करने का फैसला किया। इसका मतलब यह था कि ये संगठन किसी नये नाम से सक्रिय होने वाले थे। जल्दी ही लश्करे-तैयबा ने द रजिस्टेंट फ्रंट बना तक तैयार कर दिया। इसके नाम से इस्लामिक छवि नहीं निकलती। एक दूसरा संगठन जैश-ए-मुहम्मद ने बनाया जिसका नाम पीपुल्स एंटी फासिस्ट फ्रंट (पीएएफएफ) रखा गया। विडम्बना यह है कि इन संगठनों के नाम ऐसे लगते हैं जैसे कभी वामपंथी अपने मोर्चा-संगठन बनाते थे। यह दूसरा संगठन ऑनलाइन प्रोपेगंडा और प्रशिक्षण चलाता है। 
़खास बात यह है कि टीआरएफ ने पहले तो बैसरन के खूनखराबे की ज़िम्मेदारी ले ली, फिर पाकिस्तानियों को लगा कि इसमें तो ़गलती हो गई है। इसलिए ज़िम्मेदारी वापिस लेने के लिए दलील दी गई कि इस संगठन की वेबसाइट हैक हो गई थी, वरना इसका पहलगाम की घटना से कोई वास्ता नहीं है। यही दलील लेकर पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र में अमरीका और चीन के पास गया। अमरीका ने उसकी बात मान ली और सुरक्षा परिषद के लिए तैयार किये गये प्रस्ताव से टीआरएफ का नाम हटवाने में मदद की। इसी तरह चीन ने सुरक्षा परिषद की मॉनिटरी टीम की 6 महीने में जारी होने वाली रिपोर्ट से टीआरएफ का नाम हटवाने का काम किया। और तो और, चीन ने इस रपट में बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी और मजीद ब्रिगेड का नाम आतंकवादी संगठनों के रूप में जुड़वा दिया। 
अब भारत के सामने एक समस्या यह भी है कि वह पाकिस्तान के दो अन्य मददगारों को निष्प्रभावी कैसे करे? हालत यह है कि पहलगाम की घटना से पहले ही पाकिस्तान के जहाज ढाका में उतरने लगे थे जिनके ज़रिये बांग्लादेशियों को तरह-तरह का प्रशिक्षण देने वाले ट्रेनरों का आगमन हो रहा था। उधर तुर्की 1965 के युद्ध  से ही पाकिस्तान से जुड़ा है। शीत युद्ध के ज़माने में पाकिस्तान और तुर्की सेंटो नामक संगठन में साथ-साथ काम करते थे, और सोवियत संघ के खिलाफ हाथ बंटाने के लिए जाने जाते थे। 
ज़ाहिर है कि भारत को कई मोर्चों पर लड़ाई लड़नी है। अमरीका खुल कर भारत के खिलाफ नहीं है। लेकिन यह सवाल तो पूछना ही चाहिए कि अगर अमरीका न चाहता तो पाकिस्तान को मुद्रा कोष से 2.3 अरब डालर न मिल पाते। मोदीजी के स्वघोषित मित्र ट्रम्प साहब क्या इतना भी नहीं कर सकते थे?

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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