पाकिस्तान-परस्ती के पीछे क्या है अमरीकी कूटनीति ?

22अप्रैल, 2025 को कश्मीर के पहलगाम स्थित बैसरन घाटी  में आतंकवादियों द्वारा भारतीय पर्यटकों की हत्या बाद से ही भारत-पाक के संबंध ऐतिहासिक रूप से सबसे नाजुक मोड़ पर पहुंच गए। भारत द्वारा अपनी वायुसेना के माध्यम से 6-7 मई, 2025  की रात को ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 9 आतंकी ठिकानों पर हमला करे उन्हें नष्ट कर दिया गया। 
इसके बाद पाकिस्तान की तरफ से भारत के खिलाफ ऑपरेशन ‘बुनयान अल मरसूस’ शुरू किया गया। दोनों ने ही एक-दूसरे के ड्रोन और मिसाइल मार गिराने का दावा किया। नियंत्रण रेखा पर भी भारत और पाकिस्तान के बीच भारी गोलाबारी हुई। जब यह संघर्ष युद्ध की तरफ बढ़ता दिख रहा था तभी 10 मई की शाम 5 बजे दोनों देशों ने सभी तरह की सैन्य कार्रवाई रोकने की घोषणा कर दी। इस युद्ध विराम को लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक गलियारों में एक बहस छिड़ी कि आखिर युद्ध विराम हुआ कैसे? डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा एक के बाद एक दावे किए गए कि इसमें अमरीका की बड़ी भूमिका है। पाकिस्तान की तरफ  से भी इसका समर्थन किया गया। हालांकि भारत सरकार ने इसका खंडन किया। बहरहाल युद्ध विराम किन परिस्थियों में हुआ, यह एक गूढ़ प्रश्न तो है ही, साथ ही एक विशेष प्रश्न यह भी है कि लगभग तीन दिन तक चले इस संघर्ष के दौरान अमरीका का रूख पाकिस्तान परस्त क्यों था? दूसरे शब्दों में सब कुछ जानते बूझते अमरीका का रुझान पाकिस्तान की ओर क्यों है?
यह प्रश्न बड़ा ही संजीदा है और इसका जवाब तारीख (इतिहास) में देखने को मिलेगा। पाकिस्तान जब एक अलग मुल्क बना, तभी उसने भारत के विपरीत अमरीकी ब्लाक से अपने सम्बन्ध स्थापित करने शुरू कर दिया। इसका उसे फायदा भी मिला। चूंकि अफगानिस्तान में सोवियत संघ का हस्तक्षेप बढ़ा तो उसे काउंटर करने के पाकिस्तान को अमरीका ने हथियार और पैसा देना आरम्भ किया। यहीं से मुजाहिदीन और बाद में तालिबान का जन्म हुआ। अमरीका के रहमो-करम पर इस संगठन ने अफगानिस्तान को सोवियत रूस से मुक्त कराया और सोवियत रूस का विघटन हो गया। अमरीका ने इसके बाद पाकिस्तान की फंडिंग बंद कर दी। इसके पीछे दो कारण थे—एक, अमेरिका का राष्ट्रीय हित और दूसरा पाकिस्तान का परमाणु कार्यक्रम। हालांकि 9/11 के बाद परिस्थितियां फिर बदलीं और अमरीका ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया और फिर पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के हेतु फंड देना शुरू कर दिया। 
2018 में ट्रम्प प्रशासन ने सैन्य सहायता देना बन्द कर दी। 2019 के बाद फिर स्थितियां सुधरीं और फरवरी 2020 में अमरीका और तालिबान के बीच दोहा वार्ता में पाकिस्तान ने मध्यस्थता की भूमिका निभाई और वह एक बार फिर से अमरीका के करीब आ गया। अफगानिस्तान के पतन के बाद अमरीका अगस्त 2021 में अफगानिस्तान से हट गया परन्तु अभी भी अमरीका ने कई तरीके से फंडिंग जारी रखी। इस दौर में पाकिस्तान को चीन से भी मदद मिलती रही। चीन ने पाकिस्तान के ग्वादर तक एक गलियारा बना दिया हालांकि अभी तक अरबों डॉलर का निवेश करने के बावजूद चीन को इस गलियारे से कुछ विशेष हासिल नहीं हुआ है। प्रथम द्रष्टया अमरीका का पाकिस्तान के तरफ  झुकाव का कारण उनका ऐतिहासिक रिश्ता है। बावजूद इसके कुछ और भी महत्वपूर्ण पक्ष हैं जिसके कारण पहलगाव हमले और ऑपरेशन सिंदूर के बाद अमरीका की पाकिस्तान परस्ती जारी है।
मोटे तौर पर इसके पीछे कुछ कारक भी दिखलायी पड़ते हैं जैसे अफगानिस्तान की निगरानी, चीन का प्रतिकार और भारत को संतुलित करना। अमरीका अफगानिस्तान से जाने के बाद भी यह नहीं चाहता है कि एक बार पुन: अफगानिस्तान अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद की शरणस्थली बने। वस्तुत: अमरीका पाकिस्तान का इस कारण समर्थन करता है ताकि वह अफगानिस्तान की निगरानी कर सके क्योंकि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई.  की गहरी पैठ तालिबानी नेटवर्क में रही है। अत: अमरीकी एजेंसी इनका अनवरत लाभ लेने के लिए तत्पर रहती हैं। साथ ही ईरान और रूस के साथ उसके तनावपूर्ण रिश्ते हैं और इनकी निगरानी हवाई माध्यम से ही हो सकती है और इसके लिए पाकिस्तान सबसे अच्छी जगह है। जहां तक चीन का प्रश्न है तो अमरीका यह नहीं चाहता कि चीन का पाकिस्तान में हस्तक्षेप बढे, क्योंकि वर्तमान सदी में चीन लगातार अमरीका को चुनौती देते हुए अपनी प्रभुता को बढ़ाता जा रहा है। ग्वादर पोर्ट के जरिए चीन की पैठ हिंद महासागर में बढ़ रही है, इसके लिए उसने काफी पैसा खर्च किया है। 
एक और स्थिति यदि पाकिस्तान बहुत अधिक कमज़ोर हो जाता है तो चीन उसकी संप्रभुता का फायदा उठा सकता है। नि:संदेह यह अमरीकी हितों के विरुद्ध होगा। भारत के साथ अमरीका अपने संबंधों को संतुलित करने का प्रयास कर रहा है। रूस के साथ भारत के सामरिक सम्बन्ध भी हैं। यह बात अमरीका बर्दास्त नहीं कर सकता। इसी कारण वह पाकिस्तान की तरफ  झुका हुआ है।
27 अप्रैल, 2025 को इस्लामाबाद में ट्रम्प परिवार की 60 प्रतिशत हिस्सेदारी वाली क्रिप्टो करेंसी कंपनी वर्ल्ड लिबर्टी फाइनेंशियल और पाकिस्तान क्रिप्टो काउंसिल के बीच हुए समझौते को इसके पीछे तात्कालिक कारक माना जा सकता है। यह डील पाकिस्तान को क्रिप्टो हब बनाने के उद्देश्य से की गई। खास बात यह है कि पाकिस्तान क्रिप्टो काउंसिल ने बिनांस के विवादास्पद संस्थापक चांगपेंग झाओ को अपना रणनीतिक सलाहकार नियुक्त किया है जिन पर अमरीका में मनी लॉन्ड्रिंग के आरोप लग चुके हैं। ऐसे में इस समझौते का इस्तेमाल टेरर फंडिंग और काले धन के लिए होगा। चूंकि इस डील में अमरीकी राष्ट्रपति का परोक्ष रूप से जुड़ाव है। अत: हो सकता है कि इसी वजह से भी अमरीका पाकिस्तान का साथ दे रहा हो। 
ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने के बाद अमेरिका को पाकिस्तान की दोहरी नीति का एहसास तो हुआ परन्तु वह अनेक कारणों से पाकिस्तान को फंडिंग करता रहा। एक समय ऐसा भी आया जब अमरीका पाकिस्तान की तुलना में भारत के बेहद करीब आ गया, परन्तु अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी सिद्धांत को आधार बनाकर आज अमरीका का झुकाव भारत की तुलना में पाकिस्तान की तरफ  अधिक है। अंतत: यह कहना सही होगा कि अमरीका अपने हितों की पूर्ति के लिए पाकिस्तान से भौगोलिक, रणनीतिक एवं भू-सामरिक दृष्टि से जुड़ा है। (युवराज)

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