प्राइवेट बस में बेबस कंडक्टर
मित्रो! मेरे विचार से गांधी जी के जमाने में बसों का आविष्कार नहीं हुआ था। यदि हुआ भी होगा, तो सरकारी बसों का ही हुआ होगा, असरकारी यानि प्राइवेट बसों का नहीं। यदि गांधी जी के समय में प्राइवेट बसें चल चुकी होतीं, तो मेरा अनुमान है कि आप प्रतिदिन नहीं तो प्रति सप्ताह, प्रति सप्ताह नहीं तो कम से कम प्रति वर्ष, बस यात्रा अवश्य करते ही होंगे। यात्रा के दौरान आपने प्राइवेट बसों के कंडक्टरों के चेहरे भी देखे होंगे। निजी बसों का बेचारा कंडक्टर हाल से बेहाल और डौल से बेडौल होता जा रहा है। शाम को लाला के घर थैला भर कर पैसे ले जाने के लिए सारे दिन किराया वसूल करने में असली संघर्ष और भांति-भांति का नकली नाटक जो करना पड़ता है उसे।
बेबस कंडक्टर का सामना सर्वप्रथम ड्राइवर की पीठ वाली, बस की अगली सीट से होता है, जिसके ऊपर मोटा-सा ‘बस स्टॉफ सीट’ लिखा होता है। यहां सभी ड्राइवर व मालिक के रिश्तेदार होते हैं-कोई किसी का साला, तो कोई किसी का बहनोई, दूर-दराज के ‘चचा’ और भतीजे सगे से भी अधिक करीब के ‘पितृव्य’ और भ्रातृज’ बन जाते हैं। सो, इन संबंधियों से पैसे मिलने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। ‘महिला सीट’, जिस पर अमूमन नर्सें या मास्टरनियां यात्रा करती हैं, पर भी उसे कुछ नहीं मिलता। ‘इंडियन स्टूडेंटस’ अभी तक अपने लिए सीटें भले ही सुरक्षित न करा पाये हों, पर बेटिकट चलने या कंशेसन लेने में कभी नहीं चूके। परीक्षा में वे भले ही फेल हो जाते हों, पर परिचायक को पीटने में कभी फेल नहीं होते। मेरे समक्ष ही एक कंडक्टर ने एक सूटेड लड़के से किराया मांगा। लड़का तमक कर बोला-‘किराया! जानते नहीं, हम बी.ए. में पढ़ता हूं।’
कंडक्टर शायद श्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक भी होता है, क्योंकि उसका रात-दिन भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों से ही व्यवहार होता है। सो, वह लड़के की कमजोरी ताड़ गया। उसने फिर पूछा, ‘तुमने सब्जेक्ट कौन से लिए हैं?’ लड़का बोला-‘बहुत से लिए, सप्ताह भर के लिए काफी हैं।’ पुअर कंडक्टर ऐसे स्टूडैंटों से भी ‘एजेंटी कार्ड’ नहीं सकता। उसने आईडेंटिटी कार्ड मांगा नहीं कि अपनी मौत बुलायी नहीं। वह भली-भांति जानता है कि इन्हीं में से कोई ‘बस मंत्री’ और ‘रेलमंत्री’ बनेंगे। तब वे उसकी बस को खड्ड में और घर को घाम में कर देंगे। बस में वास्तव में कुछ वास्तविक दादा भी चलते हैं। उनके सामने पुलिस तक जाने में कतराती है, तो बेचारा परिचालक क्या खाकर जायेगा?
दैनिक यात्रियों से भी कंडक्टर को रोज ही तिरेसठ होना पड़ता है। बातें दोनों की ही जायज होती है। यात्री पूरा किराया न देने के लिए तर्क देता है, ‘दैनिक यात्रियों को तो रेल भी एमएसटी की सुविधा देती है। तुम्हारी तो लाला की दुकनिया है। कन्शेसन दोगे तो बचे भी रहोगे।’ यात्री भाई डाल-डाल, तो कंडक्टर भाई पात-पात। उसका तर्क होता है, ‘भई! रोज तो हम भी बस चलाते हैं, हमें तो डीज़ल में कोई कंशेसन देता नहीं है, तो हम आपको कन्शेसन कैसे दें?’ वाद-विवाद प्रतियोगिता का निष्कर्ष वही निकलता है, जो अनादि काल से निकलता आया है यानि लाठी वाला ही जीत की भैंस ले जाता है।
हां, बस में एक जीव अवश्य ऐसा भी चलता है, जिससे कंडक्टर को जीतने के नब्बे प्रतिशत चांस रहते हैं। इस प्राणी को शिक्षक, अध्यापक, टीचर, मास्टर से लेकर राष्ट्र-निर्माता जैसी सुंदर संज्ञाओं से जाना जाता है तथा गुरुजी, डा.साहब, प्रोफेसर साहब आदि के मृदुश्रृत संबोधनों से पुकार कर ठगा जाता है। बेचारा मास्टर दैनिक यात्री होने पर भी कंडक्टर से बहस करने के बजाय उसे अधिक किराया देना ही उचित समझता है, क्योंकि वह कोई पुलिसिया तो नहीं, जो कंडक्टर पर डंडा बरसाने लगेगा। न नेता ही है, जो उसके खिलाफ हल्ला बोल देगा। उल्टा उसे इस बात का डर लगा रहता है कि उसके बहस करने पर कहीं सहयात्री ही न इस तरह टोकने लगें-‘मास्साब! आप मास्टर होकर भी झगड़ रहे हैं? बच्चों को आप यही पढ़ाते हैं? कमाल है!’ जबकि वास्तव में कमाल की बात यह होती है कि शिक्षक को वे लोग शिक्षा देने लगते हैं, जिनके हिसाब से 12 दूना 8 हुआ करते हैं। एक तरह से यहां बेचारे ‘मास्टर साहब’ को अपनी सज्जनता व शिक्षा पर मौनरुपी अधिभार अदा करना पड़ता है।
फिर भी, कुल मिलाकर बस कंडक्टर की बेबसी का कचूमर इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है- लिमिटेड सीटेड बस में से यदि पुलिस सीट, स्टाफ सीट, नेता सीट, पत्रकार सीट, दादा सीट, महिला सीट, टीचर सीट, छात्र सीट इत्यादि को निकाल दिया जाए तो कंडक्टर के पास मालिक को देने के लिए और बाद में मालिक के पास कंडक्टर को देने के लिए कुछ न बचेगा। पर, ऐसा होने पर भी दोनों को ही अपना-अपना बम्पर शेयर मिलता ही रहता है। (सुमन सागर)