मारुं घुटना फूटे आंख
वे ज़िन्दगी देने के नाम पर मौत के तावीज़ बांटने लगे हैं। बात ज़िन्दगी को खुशनुमा बनाने की होती है, लेकिन उसके सिर पर कूड़े के पहाड़ खड़े कर दिये जाते हैं। पहाड़ भी ऐसे कि जिनके निस्तारण की बात बेशक होती रहे, लेकिन उसके लिए मंगाई गई मशीनें या तो चलें नहीं, या उनका चलाना किसी को आये नहीं। जो चला सकते हैं, वे अपनी बेहतर ज़िन्दगी के लिए हड़ताल पर चले जाते हैं। हड़ताल पर जाने का तरीका भी जग-ज़ाहिर है। तुम हमारी बात नहीं मानोगे, हम हड़ताल पर चले जाएंगे जैसे यह शहर उनका अपना तो नहीं है। शहर का चेहरा बदसूरत हो गया तो क्या? स्मार्ट शहरों की तालिका में उसका दर्जा और भी नीचे चला गया तो क्या?
सवाल तो अपनी बात मनवाने का है। ये कुर्सियों पर बैठे लोग ऐसे हैं कि जब तक इनके नीचे से कुर्सी न खींचो, ये जागते नहीं। अब कुर्सी खींचने का, कुम्भकर्णी नींद से इन्हें जगाने का तरीका एक ही है, कि इनकी नई बनी सड़कों पर खड्ढे पड़े हैं तो पड़े रहने दो। अफसर अगर अधिक रुआब दिखाये तो उसके घर के बाहर नारों के ढेर लगा दो। अपने आप उसे छटी का दूध याद आ जाएगा। अपनी नज़र नीची न करने वाला आदमी घुटनों के बल हो जाएगा। वैसे भी समर्थ को नहीं दोष गोसाईं। थोड़ी-सी अपनी सामर्थ्य दिखा कर उसे घुटनों के बल चलने को कहो, वह रेंगने लगेगा।
आज का नहीं, शुरू से ही यही चलन रहा है, कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिये। झुकाने के तरीके अलग-अलग हैं। यहां ज़ोर तो सबल दिखाता है, सज़ा निर्बल को मिल जाती है। यह कैसा मूल मन्त्र है जो सदियों से चला आ रहा है : ‘मारूं घुटना, फूटे आंख’ वाली स्थिति है, बन्धु! हमें घुटना मारना समर्थ को है, आंख निर्बल की फूट जाती है।
इसकी कहानी सुनायें आपको। आपकी शिकायत नहीं सुनी जा रही। सुनने वाले के बहरे कानों तक आवाज़ पहुंचाने के लिए सड़कें अवरुद्ध कर दो। उन पर जाम लगा दो। न कोई वाहन इधर से जाये, न उधर से आये। इससे पहले शिकायत न सुनने वाले कर्णधारों के विरुद्ध जुलूस निकाले जाते थे, उनकी नकली अर्थियां जलायी जाती थीं, शोर-शराबा होता। गुस्सा दिखाने की नौटंकी हो जाती। अखबार में जगह मिल जाती, लेकिन फिर वही बात। मध्यस्थ झगड़ा निपटाने बैठ भी जायें, तो नतीजा वही रहता है, ‘पंचों का कहा सिर माथे, लेकिन परनाला वहां का वहां ही रहेगा।’
लेकिन अब तो होश ठिकाने लगाने का तरीका ही बदल गया। परनाला वहां का वहां क्यों रहे, इसे बन्द ही कर दो। न तेरे पानी का रुख इधर आये, न तेरे पानी का उधर जाये।
लेकिन तरीका बदल गया। बीच रास्ते अवरुद्ध कर दो। सड़कों पर जाम लगा दो। दो दिन चार दिन का नहीं। यहां तो पूरे-पूरे साल का जाम लगा देंगे। न खेलेंगे, न खेलने देंगे। बस, मैदान से क्रिकेट की पिच ही उखाड़ कर ले जाएंगे। न तेरा वाहन निकलेगा, न मेरा वाहन निकलेगा। मेरी खेती उजड़ेगी, तो तेरी फैक्टरी भी न चलने देंगे। नुक्सान होता है तो होने दें। लाखों करोड़ों का नुक्सान हो जाये। तो भी क्या? इस देश को तो गरीबी और भूख सहने की आदत हो गई है। थोड़ा और भूखा हो जाएगा तो क्या? हमारी बात नहीं मानोगे, तो हम आने-जाने वालों को सज़ा देंगे, उनका दु:ख दर्द देख कर तो पसीजोगे। यह पसीजना भी खूब है साहिब! झगड़ा आपका प्रशासकों से है, पिसती बेचारी मासूम जनता है। सालों पिसती है। उस रास्ते की दुकानें बंद, कोराबार बन्द। लोग चाहे अर्श से फर्श पर आ जाएं, हमें क्या?
कभी-कभी सोचते हैं इन बहरे कानों को सुनाने के लिए क्या कोई और तेल ईजाद नहीं किया जा सकता? अभी तो यही लगता है। पहले तो अपने ऊपर अन्याय के विरुद्ध चीखो-पुकार मचाने के लिए लोग पोलों और टावरों पर चढ़ने लगे थे, लेकिन इसका असर नहीं हुआ। लोग बल्कि इसका वीडियो बनाने लगे, तो अब बन्द करो इनके चलने के रास्ते। नुक्सान होगा तो होश आएगी।
एक मोहल्ले, एक सड़क की बात नहीं है यह। दुनिया के महाबलियों ने तो एक से दूसरे देश के बीच तनाव, कटुता और वैमनस्य का खेल शुरू कर दिया, क्योंकि आज सभी महाबलियों ने अपने-अपने देश में हथियार बनाने की बड़ी-बड़ी फैक्टरियां लगा ली हैं। करोड़ों नहीं, अरबों रुपये का निवेश हो गया। यह निवेश सार्थक तभी होगा, अगर उनके हथियार बिकते रहें। हथियार तभी बिकेंगे, अगर युद्ध चलेंगे। इसलिए मौखिक रूप से शांति और संवाद का संदेश दो, और पर्दे से युद्धरत देशों को हथियारों की आपूर्ति न रुकने दो। बड़ा युद्ध नहीं, तो छद्म युद्ध तो है ही। आतंकियों के गिरोह अब किस काम आएंगे? उनका पालन-पोषण भरपूर होना चाहिए। उनके सगे नाते रिश्तेदार मर जाएं, तो करोड़ों रुपए उनको श्रद्धांजलि धन के रूप में दो, ताकि उनका आतंकी ढांचा ज़िन्दा रहे, आपकी राजनीति चलती रहे।