रैगिंग रोकने हेतु समुचित प्रबंधन ज़रूरी
रैगिंग एक ऐसा शब्द है जो हर साल कॉलेज शुरू होते ही सुनाई देने लगता है। दुनियाभर में हर साल लाखों स्टूडेंट्स को इसका सामना करना पड़ता है और यह भयावह रूप ले चुका। अब कॉलेजों में रैगिंग को रोकने के लिए कई कठोर कदम उठाए गए हैं। हालांकि रैगिंग के खिलाफ कठोर कानून बनने पर अब इस धीरे-धीरे लगाम कर कर रही है लेकिन पूरी तरह नहीं। रैगिंग को दुनिया में अलग-अलग नामों से पहचाना जाता है। इसको हेजिंग, फेगिंग, बुलिंग, प्लेजिंग व हॉर्स प्लेइंग के नामों से जाना जाता है। यहां हम आपको बता रहे है कि यह सामाजिक बुराई ने कब से जानलेवा रूप धारण किया और कैसे भारत तक पहुंच गई। माना जाता है कि 7वीं से 8वीं शताब्दी में ग्रीस के खेल समुदायों में नए खिलाड़ियों में स्पोर्ट्स स्प्रिट जगाने के उद्देश्य से रैगिंग की शुरुआत हुई। इसमें जूनियर खिलाड़ियों को चिढ़ाया और अपमानित किया जाता था। यह कार्य समय के साथ-साथ बढ़ता गया और रैगिंग में बदलता गया। इसके बाद सेना में भी इसको अपनाया गया। खेल और सेना के बाद रैगिंग से शिक्षण संस्थान भी नहीं बचे और छात्रों इसको अपनाकर भयावह रूप दे दिया।
किसी भी तरह का शारीरिक या मानसिक उत्पीड़न, मानवीय गरिमा को भंग करने वाला कोई काम, लिख-बोलकर किसी का अपमान करना या चिढ़ाना, डराना या धमकी देना, घर में बंद करना आदि कार्य को रैगिंग माना जाता है। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन, हर कॉलेज में एंटी रैगिंग कमेटी, विश्वविद्यालय स्तर पर निगरानी और यूजीसी की हेल्पलाइन इन सबके बावजूद रैगिंग की घटनाओं पर रोक नहीं लग पा रही है। यूजीसी हेल्पलाइन पर पिछले एक दशक में रैगिंग की 8000 से अधिक शिकायतें दर्ज की गई हैं, और रैगिंग से जुड़ी मौतों का आंकड़ा भी भयावह है। 2012 से 2022 के बीच रैगिंग की शिकायतों में 208 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है। 2022 में कुल 1103 शिकायतें आईं और अक्तूबर 2023 तक 756 शिकायतें दर्ज की गईं। इन घटनाओं से यह साफ हो रहा है कि रैगिंग के कारण छात्रों की मानसिक और शारीरिक स्थिति पर गहरा असर पड़ता है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि नियामक संस्था की सख्ती और शिक्षण संस्थाओं की सक्रियता के बावजूद रैगिंग का रोग काबू में नहीं आ रहा है। जब-तब कुछ छात्रों के आत्महत्या करने और कई मामलों में दोषी छात्रों के निलंबन व पुलिस कार्रवाई के मामले भी अक्सर उजागर होते हैं, मगर मर्ज है कि लाइलाज होता जा रहा है। सीनियर छात्र नये छात्रों को परेशान करने के लिये नये-नये तौर-तरीके तलाश लेते हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले यूजीसी ने देश के 89 उच्च शिक्षा संस्थानों को कारण बताओ नोटिस जारी करके सख्त हिदायत दी है कि रैगिंग पर नियंत्रण करने वाले नियमों को सख्ती से क्यों लागू नहीं किया गया।
देशभर के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में वर्ष 2020 से 2024 के दौरान रैगिंग के कारण से 51 छात्रों की मौत हो गई। सोसाइटी अगेंस्ट वायलेंस इन एजुकेशन नामक संस्था द्वारा प्रकाशित ‘स्टेट ऑ़फ रैगिंग इन इंडिया 2022-24’ रिपोर्ट में इस तथ्य को उजागर किया गया है। रिपोर्ट में मैडीकल कॉलेजों को भी रैगिंग की शिकायतों के लिए हॉटस्पॉट के रूप में पहचाना गया है। रिपोर्ट में कहा गया है, मैडीकल कॉलेज चिंता का एक विशेष क्षेत्र हैं, क्योंकि 2022-24 के दौरान कुल शिकायतों का 38.6 प्रतिशत मैडीकल कॉलेज से ही संबंधित है, जबकि गंभीर शिकायतों का 35.4 प्रतिशत और रैगिंग से संबंधित मौतों का 45.1 प्रतिशत हिस्सा है। कुल छात्रों का केवल 1.1 प्रतिशत ही रैगिंग से संबंधित है।
आंकड़ों से यह भी पता चला है कि इस अवधि के दौरान रैगिंग के कारण 51 छात्रों की जान चली गई, जो कोटा में दर्ज 57 छात्रों की आत्महत्याओं से लगभग बराबर है। लेखकों ने दावा किया कि शिकायतों की संख्या रिपोर्ट में दी गई संख्या से कहीं अधिक थी। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘ऐसा नहीं है कि पूरे भारत में तीन वर्षों में केवल 3156 रैगिंग की शिकायतें दर्ज की गईं। ये केवल राष्ट्रीय एंटी-रैगिंग हेल्पलाइन पर दर्ज की गई शिकायतें हैं। बड़ी संख्या में शिकायतें सीधे कॉलेजों में दर्ज की जाती हैं और अगर मामला गंभीर है तो सीधे पुलिस में भी दर्ज की जाती हैं।’ रैगिंग के खिलाफ देश में कई बड़े अभियान छेड़े जा चुके हैं मगर ये रुकने का नाम नहीं ले रही है। बीते मार्च में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने एक प्रश्न के लिखित उत्तर में राज्यसभा को यह जानकारी दी थी कि 2024 में मैडीकल कॉलेजों में रैगिंग की सबसे अधिक 33 शिकायतें उत्तर प्रदेश में आयीं जबकि बिहार में इस तरह की 17, राजस्थान में 15 व मध्यप्रदेश में 12 शिकायतें मिलीं। अब जब देश के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में नये छात्रों के प्रवेश का सिलसिला आरंभ होने वाला है, यूजीसी ने एक बार फिर सख्ती दिखाई है। उसने रैगिंग के नये तौर-तरीकों से कड़ाई से निपटने का निर्देश दिया है। दरअसल, विभिन्न प्रसंगों में देखा गया है कि सीनियर छात्र नये छात्रों को परेशान करने के लिये नये तौर-तरीके इस्तेमाल कर रहे हैं। यूजीसी के मुताबिक, ऐसे मामले प्रकाश में आये हैं कि सीनियर छात्र अनौपचारिक व्हाट्सएप समूह बनाकर नये छात्रों को उससे जुड़ने के लिये बाध्य करते हैं। फिर छात्रों के मानसिक उत्पीड़न का सिलसिला आरंभ हो जाता है।
नि:संदेह, शिक्षण संस्थानों में रैगिंग की घटनाओं को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। कहीं न कहीं विश्वविद्यालय व कॉलेज प्रशासन की उदासीनता भी सीनियर छात्रों की गुंडई को बढ़ावा देती है। जिसके लिए जवाबदेही तय की जानी चाहिए। यही वजह है कि यूजीसी को चेतावनी देने को बाध्य होना पड़ा कि रैगिंग के किसी तरह के क्रियाकलाप पूरी तरह अस्वीकार्य हैं। ऐसा न करने पर इन शिक्षण संस्थानों की रेटिंग कम करने तथा अनुदान रोकने की कार्रवाई भी हो सकती है। दरअसल शिक्षण संस्थानों को अपने परिसर में रैगिंग जैसी कुरीति पर रोक लगाने के लिये जहां सीनियर छात्रों के लिये परामर्श केंद्र बनाये जाने चाहिए, वहीं नये छात्रों की भी काउंसलिंग की जानी चाहिए, ताकि वे नयी परिस्थितियों से साम्य स्थापित कर सकें।