लोकतंत्र की बकरी और लोकतंत्र का खेत
लोकतंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है, जिसके अन्तर्गत जनता स्वेच्छा से निर्वाचन में आए हुए किसी भी उम्मीदवार को मत देकर अपना प्रतिनिधि चुन लेती है। मायावी स्वांग रच कर कोई भी नत्थू-खैरा पांच साल के लिए माननीय बन जाता है। ईवीएम खुली, कुर्सी मिली और हो गया विधायक या सांसद। लोकतंत्र की कुर्सी पर यदि बाहुबली बैठेगा तो उसका उदर बड़ा होगा तो उसे हरियाली ज्यादा भाएगा। वह ज्यादा खाएगा और डकार मार आराम से पचा ले जाएगा। बेचारा नत्थू-खैरा को थोड़ा खाते ही पेट में गुड़गुड़ हो जाती है। उसे बदहज़मी हो जाती है। अपच व गैस की सड़ांध मीडिया में लिक हो जाती है तो बदबू फैलकर बेड़ागर्क भी कर जाती है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था और आदर्श राजनीति तो यह कहती है कि माननीय चरित्रवान व पवित्र रहे लेकिन रहते कहां हैं? यह यक्ष प्रश्न है। यह लोकतंत्र में स्वप्न है। लोकतंत्र में चुनाव संपन्न हुआ नहीं कि ग्राम प्रधान एक साल में ही संपन्न हो जाते हैं। पांच साल बाद विधायकी के चक्कर में पड़ जाते हैं। लंबे समय बाद भी लोकतंत्र का हाल बेहाल हुआ। गांव में खड़ंजों एवं मनरेगा में पैसा उड़ता है और ग्राम प्रधान के सपनों को पंख मिलता है।
विधायक/सांसद निधि की क्रीम पाउडर से सड़कें चमचमाती हैं और बारिश में भीगने से मेकअप उतर जाती है। इसमें गड्डे हैं तो बदसूरत दिखता है। बारिश बाद पुन: मेकअप चढ़ाकर गड्डा भर दिया जाता है। जनता के टैक्स का पैसा है। हाइवे बनने में लाखों पेड़ बलि चढ़ते हैं और बाद में झाड़-झंखाड़ लगा दिया जाता है। लेकिन जनता को शुद्ध हवा और स्वच्छ पानी को लेकर कोई द्वन्द नहीं रहता। चुनावी वादे भी स्वर्ग बनाने के किए गए हैं और दैवीय आशीर्वाद जनता को मिल रहा है। खूब फूल बरस रहा है और जनता गदगद है। रामराज में कोई भी सवाल बवाल है। लोकतंत्र की सारी उम्मीदें बस ईवीएम पर टिकी हैं जो हर चुनाव में बदनामी झेलने को तैयार रहती है। विपक्ष ईवीएम के सहारे चुनावी नैया कभी पार नहीं कर सकती। उसे ईवीएम की चरित्र पर संदेह है।
लोकतंत्र में बकरी शब्द का अर्थ यहां जन प्रतिनिधि के लिए है। लोकतंत्र में सरकारी योजनाओं की फसल से लहलहाता खेत है और चाव से भर-भर पेट बकरी चरती है। आज लोकतंत्र सूली पर इसीलिए टंगा है क्योंकि भ्रष्टाचार कल्चर का चलन संस्कारी है। लोकतंत्र में बकरी की महत्ता और गुणवत्ता को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। चुनावी तैयारियां जोरों पर हैं। हर दिन कहीं न कहीं बड़े से मैदान में माननीयों की जनसभा या रैलियां हैं। शानदार मंच सजा है। भाड़े की जनता की खूब भीड़ है। भारतीय राजनीति में शपथ ग्रहण के मंच विवाह स्टेज को भी फेल करते हैं। लोकतंत्र में मंच का आकार यह चीख-चीखकर बताता है कि यह जीत जितनी बड़ी उतनी ही डकार लेकर बकरी खाएगी।
लोकतंत्र में हम कितने भी डिजिटल हो जाएं लेकिन संविधान की गुणवत्ता को मिटाया नहीं जा सकता। जनता जनार्दन सदा महत्वपूर्ण है और लोकतंत्र में वोट ही असली ब्रह्मास्त्र है तो वोट से नहीं गुरेज़। जनता के टैक्स से बकरी की सेहत अच्छी रहेगी। सबसे दयनीय स्थिति तो उस बकरी की होती जिन्हें मीडिया ने लगभग प्रदेश का मुखिया बना ही दिया होता है। मीडिया की इस जाल के चाल में मछली सी फंसकर छटपटाता है। मीडिया शकुनी की तरह दुर्योधन जैसा हस्र करा देती है। बहरहाल, लोकतंत्र की बकरी और लोकतंत्र का खेत, खा ले बकरी भर-भर पेट!
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