माई री, मैं कासे कहूं पीर
(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)
अभी थोड़ी ही देर हुई होगी कि तभी फार्म के एक तरफ बने मकान के भीतर से सितार बजती सुनाई दी पर मैंने ज्यादा ध्यान नहीं दिया। फिर भी मेरे कान खड़े हो गये थे। धुन कुछ जानी-पहचानी-सी लगी। फिर भी मैंने सोचा बहुत लोग होते हैं संगीत से रुचि रखने वाले, यह भी होंगे।
अब तक मैं फार्म हाउस में घूमता हुआ उस घर के निकट ही पहुंच चुका था जो फार्म के ही एक किनारे पर बना हुआ था। तभी मुझे भीतर से आलाप की आवाज़ सुनाई दी तो मैं वहीं खड़ा होकर सुनने लगा। कोई पुरुष आलाप ले रहा था। मुझे अपना कॉलेज का जमाना याद आ गया और साथ ही याद आ गया सदानन्द। क्या डूबकर गाता था कम्बख्त। मैंने मैनेजर से पूछा, ‘कौन बजा रहा है सितार?’
‘हमारे साहब हैं, बहुत अच्छा गाते हैं साहब।’
‘क्या नाम है तुम्हारे साहब का?’
‘पता नहीं साहब, एस.एन. शर्मा लिखते हैं।’ मैनेजर ने जवाब दिया। अभी तक आलाप ही चल रहा था पर मेरा दिल सदानन्द को याद करके उछल रहा था। मैं वहीं बरामदे में रखी कुर्सी पर बैठ गया तो मैनेजर को भी बैठना पड़ा। मुश्किल से दस मिनट बीते होंगे कि भीतर से गाने की आवाज़ आने लगी। स्वर पहले धीमा, फिर मद्धम और धीरे-धीरे पूरे यौवन पर आते ही मुझे झटका लगा। वह अपना मीरा बाई का प्रिय पद गा रहा था, ‘माई री..., हो माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की, माई री।’
अब मैं एक झटके से कुर्सी से उठा तो मैनेजर भी घबराकर उठा, ‘क्या हुआ सर?’ पर मैं बिना इधर-उधर देखे आवाज़ के सहारे दरवाजे पार करता उसके सामने खड़ा था। बड़े-से हाल में वह कालीन पर बैठा, आंखें बंद किये आराम से गा रहा था और मैं आंखें फाड़े उसे देख रहा था। मैनेजर पीछे चुपचाप खड़ा हम दोनों को देख रहा था। तभी उसने अंतरा उठाया,
‘पी की डगर में बैठे, मैला हुआ री मेरा आंचरा।
मुखड़ा है फीका फीका नैनों को सोहे नहीं काजरा
लट में पड़ी कैसे बिरहा की माटी, माई री, हो माई री...’
अब मैं धीरे से उसके पास बैठ गया। गाते हुए उसे कुछ भी पता नहीं रहता था। मैं जानता था कि उसे बीच में टोकना पसन्द नहीं था। मैंने धीरे से मैनेजर को बाहर जाने का संकेत किया, कहीं उसकी नौकरी पर न बन आये।
मैं बड़े गौर से बस उसे ही देख रहा था। उसके बाल भले अधपके थे पर वैसे ही घने और घुंघराले थे। नाक के पास का मस्सा मुझे किसी गलतफहमी में पड़ने से बचा रहा था। पर उसकी आंखें तो बंद थीं। तभी शायद उसे किसी की मौजूदगी का अहसास हुआ और उसने आंखें खोलीं तो मैं बिना देर किए बोल पड़ा,
‘सदा! तू यहां छुपा बैठा है मेरे यार और हमने तुझे कहां नहीं खोजा?’
वह बिना कुछ बोले मेरा चेहरा ध्यान से देखने लगा, उसकी आंखों में अजब-सी उलझन थी। अब मेरे तो बाल आधे भी नहीं रहे तो वह कैसे पहचानता? जब मैंने अपना नाम बताया तो वह झटके से उठ खड़ा हुआ और झपटकर गले लग गया। हम दोनों ही रो पड़े। देर तक गले लगे खड़े रहे। होश तब आया जब उसका कुक खाने के लिए बुलाने आया।
शायद हम तीस साल बाद मिल रहे थे, फिर तो बस वहीं बैठे-बैठे दिन ढलने लगा। उसने बस इतना ही बताया कि जल्दी ही उसकी शादी टूट गई थी और उसने दूसरी शादी नहीं की।
सदानन्द के मैनेजर ने जब आकर बताया कि टैक्सी वाला शोर मचा रहा है। मज़बूरी थी लौटना ही था, पर मैं तो सदानंद के मिलने से ऐसे खुश था जैसे मेरी कोई खोई हुई चीज़ मिल गई हो। मैंने उसे शिमला आने को कहा तो उसने मुझे ही मनाली आने की सौगंध दे दी। कॉलेज के पुराने दिनों को याद करते हम दोनों फिर मिलने के वादे के साथ अलग हुए।’ राहुल ने एक गहरी सांस ली।
‘पर उसके साथ हुआ क्या था? इतनी देर तक तुमने क्या बातें कीं?’
‘हां! बस यही कहता रहा कि जब मैं फिर आऊंगा तभी बतायेगा। मुझसे ही पूछता रहा। तेरे बारे भी पूछ रहा था और दूसरे दोस्तों के बारे में भी पूछ रहा था।’
‘तो क्या कहा तू ने?’
‘जो है, यही कि हम दोनों के बच्चे सैटल हैं और हम अकेले हैं, और है ही क्या कहने को?’
‘तो कब चल रहे हैं हम मनाली?’
‘बस थोड़ी काम की व्यवस्था कर लूँ, चलते हैं कल तक। तू कितने दिन के लिए आया है, जल्दी तो नहीं?’
‘नहीं।’
‘तब ठीक है। कल चलते हैं, ड्राइवर भी तो अपने घर कहकर आएगा न। एक दिन तो रुकेंगें ही।’ और दूसरे दिन दोनों मित्र मनाली में थे।
चाय के बाद दोनों ने सदानन्द को घेर लियाए ‘देख सदा! दोस्तों से कहकर मन का बोझ हल्का होता है और हम तेरे चेहरे पर तेरे भीतर का दर्द साफ देख रहे हैं। उंडेल दे सबकुछ और खाली हो जा।’ विनोद ने उसे कुरेदा। वह उसे खाली-खाली नज़रों से देखने लगा।
‘क्या जानना चाहते हो तुम दोनों?’
इस समय वे खरगोशों के बीच घूम रहे थे। सदानन्द उन्हें बता रहा था कि उसके मन में कैसे यह विचार आया कि बिना जीव हत्या के भी खरगोशों से पैसा कमाया जा सकता है। अब राहुल बोल पड़ा, ‘तू बात को टाल रहा है, अबे! हम से छुपायेगा अब? हमसे...?’
‘चलो भीतर चलते हैं।’ उसने गोरखे को आवाज दी, ‘रामबहादुर, खाना लगा दो।’ (क्रमश:)