शतरंज की दुनिया का नया सितारा दिव्या देशमुख
नागपुर की इंटरनेशनल मास्टर (आईएम) दिव्या देशमुख ने ग्रैंडमास्टर (जीएम) बनने के लिए सबसे छोटे मार्ग का चयन किया। यूथ बनाम एक्सपीरियंस की जंग में 19-वर्षीय दिव्या ने बतुमी, जॉर्जिया में न सिर्फ अनुभवी कोनेरू हम्पी (विश्व रैंकिंग 5) को फाइनल में पराजित करके विश्व कप अपने नाम किया बल्कि ग्रैंडमास्टर का खिताब भी जीता। दिव्या 2013 में सबसे कम आयु में वुमन फीडे मास्टर (डब्लूएफएम) बनी थीं और अब मात्र 19 साल की आयु में 44वीं महिला ग्रैंडमास्टर हैं। भारत की वह 88वीं ग्रैंडमास्टर हैं, जिससे अपने देश में शतरंज की बढ़ती लोकप्रियता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, विशेषकर इस लिहाज़ से भी कि विश्व कप विजेता का ताल्लुक शतरंज के परम्परागत केन्द्रों जैसे चेन्नै से नहीं है बल्कि नागपुर से है। गौरतलब है कि ग्रैंडमास्टर का खिताब हासिल करना शतरंज में सबसे कठिन कार्य है। विश्व शतरंज संघ (फीडे) द्वारा दिये जाने वाले इस खिताब को हासिल करने के लिए खिलाड़ी को फीडे से मान्यता प्राप्त प्रतियोगिताओं में तीन जीएम नोर्म्स अर्जित करने के अतिरिक्त 2500 की एलो रेटिंग भी पार करनी होती है। दिव्या ने अपना पहला नॉर्म उस समय क्लियर किया जब उन्होंने बतुमी में विश्व कप खेलने के लिए क्वालीफाई किया और सबसे कम आयु में विश्व कप जीतकर उन्हें सीधे ही ग्रैंडमास्टर का भी खिताब मिल गया क्योंकि यह इलीट प्रतियोगिता थी, जिसे जीतने पर नॉर्म व रेटिंग के सामान्य मार्ग से हटकर सीधे ही ग्रैंडमास्टर खिताब हासिल किया जा सकता है।
दिव्या ने निश्चितरूप से इतिहास रचा है। फाइनल में हम्पी को 2,5-1,5 से पराजित करके वह विश्व कप जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी बनीं और वह भी सबसे कम उम्र में। दिव्या व हम्पी से पहले भारत की कोई भी महिला कभी विश्व कप के फाइनल में नहीं पहुंची थी। यह पहला अवसर था जब खिताबी टक्कर दो भारतीयों के बीच में थी। जब फाइनल के दोनों मैच बराबरी पर छूटे और मुकाबला टाई ब्रेक में पहुंचा तो उसमें में पहले तीन मैच बराबरी पर रहे, लेकिन चौथे में दिव्या ने क्लॉक पर कंट्रोल करते हुए विश्व रैपिड चैंपियन हम्पी को रैपिड फॉर्मेट में ही आश्चर्य में डालकर बाज़ी मार ली। इस जीत के साथ दिव्या ने कैंडिडेट्स के लिए भी क्वालीफाई कर लिया है। ध्यान रहे कि कैंडिडेट्स के विजेता को क्लासिक फॉर्मेट में वर्ल्ड चैंपियन को चुनौती देने का अवसर मिलता है। महिला वर्ग में वर्तमान वर्ल्ड चैंपियन चीन की जू वेनजुन हैं, जबकि पुरुष वर्ग में भारत के डी गुकेश हैं, जो 18 वर्ष की आयु में सबसे कम उम्र के वर्ल्ड चैंपियन बने थे। बहरहाल, विश्व कप जीतकर दिव्या ने विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 41 बार भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए अपने स्वर्ण पदकों की संख्या 24 तक पहुंचा दी है। 64 खानों की अपनी 14 साल की यात्रा में डा. जितेंद्र व नम्रता देशमुख की बेटी दिव्या ने चार अवसरों पर विश्व खिताब जीता है। उन्होंने 2014 में अंडर-10 विश्व खिताब जीता और 2017 में वह अंडर-12 विश्व चैंपियन बनीं। पिछले साल वह जूनियर विश्व चैंपियन बनी थीं। अब 2025 में उन्होंने वर्ल्ड कप जीता है।
दिव्या ने जिस दिन से शतरंज की बिसात पर चालें चलनी शुरू की थीं वह तभी से फाइटर हैं। गुकेश की तरह दिव्या की महारत भी क्लासिक फॉर्मेट में है। यही ताकत गुकेश व दिव्या को अपने समकालीन खिलाड़ियों से अलग पंक्ति में खड़ा कर देती है। दिव्या के शुरुआती कोच श्रीनाथ नारायणन का कहना है, ‘वह आक्रामक खिलाड़ी हैं। लेकिन समय के साथ दिव्या अधिक आल-राउंडर, अधिक बहुमुखी हो गयी हैं। मैं समझता हूं कि वह सभी फॉर्मेट- क्लासिकल, रैपिड व ब्लिट्ज बराबर की अच्छी हैं और उनकी ताकत महत्वपूर्ण स्थितियों में बेहतर प्रदर्शन करने में है।’ दिव्या बहुत मेहनत से तैयारी करती हैं। वह अपनी सफलता का श्रेय अपने अतिरिक्त प्रयास को देती हैं। उन्होंने बताया, ‘विश्व कप जीत में मुख्य भूमिका मेरी तैयारी की थी। यहां (बतुमी) आने से पहले मुझे फाइनल तक पहुंचने की उम्मीद नहीं थी, चूंकि मैं बॉटम-हाफ में थी और मुझे बहुत ही मज़बूत खिलाड़ियों का सामना करना था। इसलिए मुझे तैयारी भी तगड़ी करनी थी। मैं घंटों तक ट्रेनिंग कर रही थी। मैं उम्मीद करती हूं कि यह बस शुरुआत हो।’
दिव्या व हम्पी के बीच विश्व कप का फाइनल भारतीय शतरंज के लिए बहुत बड़ा लम्हा था। यह न सिर्फ पहला अवसर था, जब महिला विश्व कप की दोनों फाइनलिस्ट भारतीय थीं बल्कि यह बताता है कि भारत में महिला शतरंज किस ऊंचे मकाम तक पहुंच गया है। इस श्रेणी में चीन प्रभावी शक्ति है। पिछली तीन महिला विश्व चैंपियन चीन से ही रही हैं, जो टॉप 10 महिला खिलाड़ी हैं, उनमें से आधी चीन से हैं। इस सूची में केवल एक भारतीय है- हम्पी, पांचवें स्थान पर। इसलिए इस विश्व कप में भारतीय खिलाड़ियों का शानदार प्रदर्शन महत्वपूर्ण पल है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला शतरंज अब भी पुरुष शतरंज से बहुत पीछे है। हालांकि 1980 के दशक से ही शतरंज प्रतियोगिताओं में महिलाएं व पुरुष एक-दूसरे से मुकाबला कर रहे हैं, इसके बावजूद विश्व में टॉप रैंक महिला खिलाड़ी बहुत कम हैं। मसलन 2001 में केवल 6 प्रतिशत ही रेटिड खिलाड़ी महिलाएं थीं। 2020 तक यह प्रतिशत बढ़कर 15 से अधिक हो गया था। लेकिन पिछले साल के अंत तक सिर्फ 42 महिला ग्रैंडमास्टर थीं, जबकि पुरुषों में जीएम 1,804 थे। अब 44 महिला जीएम हैं। भारत में इस समय जो 88 जीएम हैं जिनमें से 24 महिलाएं हैं। अन्य खेलों की तरह शतरंज में भी लिंग भेद अंतर कोई नया नहीं है। एक समय था जब यह समझा जाता था कि महिलाओं की मानसिकता शतरंज खेलने के लिए बनी ही नहीं है, जिसने प्रकृति बनाम परवरिश बहस को जन्म दिया था। तर्क यह दिया जाता था कि चूंकि महिलाएं रिस्क नहीं लेती हैं, इसलिए वह शतरंज की अच्छी खिलाड़ी नहीं बन सकतीं। गैरी कास्परोव जैसे महान खिलाड़ी भी इस विचार के समर्थक थे। लेकिन यह नज़रिया 2002 से बदलने लगा जब हंगरी की महान खिलाड़ी जुडित पोल्गर ने कास्परोव को हराया और वह रेटिड गेम में तत्कालीन विश्व के नंबर वन खिलाड़ी को पराजित करने वाली पहली महिला खिलाड़ी बनीं। पोल्गर का कहना तो यह है कि शतरंज में पुरुषों व महिलाओं की अलग-अलग प्रतियोगिताएं होनी ही नहीं चाहिए तभी महिला शतरंज में अतिरिक्त सुधार आयेगा। बहरहाल, अन्य लोगों की राय यह है कि महिला प्रतियोगिताएं युवा लड़कियों को शतरंज खेलने के लिए प्रोत्साहित करती हैं और उनको कुछ आर्थिक मदद भी मिलती है। आर्थिक पहलू महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उसी की वजह से पैरेंट्स लड़कियों को प्रोफेशनल शतरंज खेलने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। उच्चस्तरीय शतरंज ट्रेनिंग बहुत महंगी होती है। रूढ़िवादी परिवारों के अधिकतर पेरेंट्स यह निवेश करने में संकोच करते हैं। भारतीय महिला शतरंज की यही सबसे बड़ी समस्या है। टियर 2/3 शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वाले लड़कों व लड़कियों की संख्या में बहुत अंतर है। इसलिए दिव्या बनाम हम्पी आल-इंडिया फाइनल, जिसमें विजेता दिव्या को 50,000 डॉलर मिले, लड़कियों व उनके पैरेंट्स को शतरंज खेलने हेतु प्रेरित करेगा और भारत में महिला शतरंज क्रांति संभव है। -इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर