चीन ने भारत के खिलाफ उर्वरक आपूर्ति को बनाया हथियार

जब चीन ने इस साल की शुरुआत में भारत को उर्वरक निर्यात पर चुपचाप रोक लगा दी, तो इससे न केवल आपूर्ति लाइनें बाधित हुईं और कीमतों में उछाल आया, बल्कि इसने एक और भी अधिक परेशान करने वाली सच्चाई को उजागर किया। वह यह कि भारत की कृषि सुरक्षा उतनी ही मज़बूत है जितनी कि आयात पर निर्भर उसकी इनपुट शृंखला की सबसे कमज़ोर कड़ी।
अप्रैल 2025 से चीन ने भारत को उर्वरक शिपमेंट के लिए निरीक्षण मंज़ूरी रोक दी है, जिससे डाई-अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) और विशेष उर्वरकों, दोनों का निर्यात प्रभावी रूप से अवरुद्ध हो गया है। ये उर्वरक खरीफ  सीजन के दौरान बेहद अहम होते हैं, जब भारतीय किसान चावल, मक्का, कपास और दालों जैसी प्रमुख खाद्यान्न फसलें बोते हैं। परेशान करने वाली बात यह है कि चीन ने जहां एक ओर भारत को भेजे जाने वाले निर्यात पर रोक लगा दी गई, वहीं अन्य देशों को निर्यात बेरोकटोक जारी रखा। यह एक लक्षित कदम था, जिसे चुपचाप अंजाम दिया गया लेकिन इसके भू-राजनीतिक निहितार्थ भी थे। भारत न केवल अचानक से चौंक गया, बल्कि इसकी पोल भी खुल गई, वर्षों की चेतावनियों और आत्मनिर्भरता के नीतिगत दावों के बावजूद। भारत ने समय पर पर्याप्त कदम नहीं उठाये हैं यह अच्छी तरह जानते हुए भी कि चीन अब सिर्फ एक व्यापारिक साझेदार नहीं, बल्कि एक रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी भी है।
भारत भर में अब जो उर्वरक संकट फैल रहा है, वह अचानक नहीं आया। चीन ने 2023 में उर्वरक निर्यात पर प्रतिबंध लगाना शुरू किया और 2024 तक चेतावनी की किरणें और तेज़ होती गईं। फिर भी भारतीय आयातकों और नीति निर्माताओं ने आक्रामक रूप से विविधीकरण करने के बजाय चीनी आपूर्तिकर्ताओं से अग्रिम खरीद को प्राथमिकता दी। वित्त वर्ष 2024 में चीन से डीएपी आयात 2.29 मिलियन टन के शिखर पर पहुंच गया। 2025 की शुरुआत से कोई शिपमेंट दर्ज नहीं किया गया है। इस बीच वैश्विक डीएपी की कीमतें 26 प्रतिशत बढ़ गई हैं, जो जनवरी में 633 डॉलर प्रति टन से बढ़कर जुलाई में 800 डॉलर हो गई हैं। इसका परिणाम है भारत के उर्वरक सब्सिडी बिल और कृषि अर्थव्यवस्था पर दबाव और छोटे व सीमांत किसानों में बढ़ती चिंताए जो पहले से ही अन्य इनपुट लागतों में मुद्रास्फीति से जूझ रहे हैं।
यूरिया के बाद डीएपी भारत में दूसरा सबसे अधिक खपत वाला उर्वरक है, जिसका उपयोग प्रमुख खाद्य फसलों में शुरुआती जड़ विकास के लिए व्यापक रूप से किया जाता है। विशेष उर्वरक, हालांकि मात्रा में छोटे, उच्च मूल्य वाली बागवानी पुष्प-कृषि और निर्यातोन्मुखी उत्पादों के लिए महत्वपूर्ण हैं। भारत में प्रतिवर्ष 600 लाख टन से अधिक उर्वरकों की खपत होती है, जिसमें विशेष उर्वरकों की मांग 12 से 15 लाख टन प्रति वर्ष के बीच होती है।
इस मांग को पूरा करने की घरेलू क्षमता सीमित है। भारत अपनी डीएपी आवश्यकता के आधे से अधिक और विशेष उर्वरकों का लगभग एक-तिहाई आयात करता है। इनमें से 70-80 प्रतिशत चीन से आते हैं, विशेष रूप से उन्नत सूत्रीकरण जैसे जल-घुलनशील मिश्रण, कीलेटेड सूक्ष्म पोषक तत्व और अनुकूलित एनपी के प्रकार।
एक स्रोत पर ऐसी अत्यधिक निर्भरता अब इस बात का एक उदाहरण बन गई है कि जब महत्वपूर्ण क्षेत्रों को भू-राजनीतिक रूप से असुरक्षित छोड़ दिया जाता है तो क्या होता है। फसल के चरम मौसम के दौरान चीन के मौन प्रतिबंध ने भारत की संरचनात्मक निर्भरता को हथियार बना लिया और यह स्पष्ट कर दिया कि हमारी कृषि-इनपुट आपूर्ति शृंखला में कितनी कमज़ोर है।
जुलाई में भारत ने सऊदी अरब के साथ 31 लाख टन डीएपी की वार्षिक आपूर्ति के लिए एक पांच वर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए जो उसकी कुल घरेलू आवश्यकता का लगभग 30 प्रतिशत है। इंडियन पोटाश लिमिटेड, कृभको और कोरोमंडल इंटरनेशनल द्वारा माश्आडेन के साथ हस्ताक्षरित यह समझौता स्वागत योग्य और आवश्यक है। लेकिन इसका समय इस बात को रेखांकित करता है कि भारत का दृष्टिकोण कितना पुरानपंथी है।जब चीन द्वारा बढ़ते निर्यात प्रतिबंधों के संकेत पहले ही स्पष्ट हो गए थे, तब भारत की उर्वरक रणनीति में ऐसा विविधीकरण पहले क्यों नहीं शामिल किया गया?
अब डीएपी की बढ़ती कीमतों और विशेष इनपुट की कमी के साथ भारत वर्ष के सबसे महत्वपूर्ण कृषि समय में से एक के दौरान यह अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए संघर्ष कर रहा है।
हमेशा की तरह इसका खामियाजा किसान, खासकर छोटे किसान उठा रहे हैं। महाराष्ट्र, पंजाब, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में उर्वरक की उपलब्धता में देरी या कमी की खबरें बढ़ रही हैं। कुछ किसान कमज़ोर उर्वरक विकल्पों का इस्तेमाल कर रहे हैं या इस्तेमाल की दरें कम कर रहे हैं। अन्य किसान सट्टेबाज़ी जमाखोरी और आपूर्ति बाधाओं के कारण बढ़ी हुई कीमत चुका रहे हैं।
चीन द्वारा उर्वरकों पर रोक लगाना कोई एक बार की घटना नहीं है। यह एक व्यापक पैटर्न का हिस्सा है। तकनीकी घटकों से लेकर दवाइयों तक  बीजिंग ने भू-राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में अपने प्रभुत्व का दोहन करने के लिए बढ़ती तत्परता दिखाई है। इस बीच भारत इनमें से कई क्षेत्रों में विश्वसनीय बफर या विकल्प बनाने में विफल रहा है। (संवाद)

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