कब तक डर कर जीते रहेंगे निर्दोष ?
हमारा संविधान जहां एक ओर समानता और स्वतंत्रता का मार्ग दिखाता है, वहां उसके अंतर्गत बने कानूनों के हाथ लम्बे अर्थात अपराधी तक पहुंच होने की बात कही जाती है। यह स्वीकार कर लेने के बाद यह भी मानना पड़ता है कि चाहे कितने भी दोषी छूट जायें, परन्तु एक भी निर्दोष को सज़ा नहीं मिलनी चाहिये। न्याय की लड़ाई और निर्दोष के लिए भयभीत होकर जीने की मजबूरी का अंत होता अवश्य है, परन्तु न्याय की गति इतनी जटिल व लम्बी हो जाती है कि देरी अपने आप में ही एक सज़ा बन जाती है। कहते हैं कि देश की अदालतों में लगभग पांच करोड़ मुकद्दमे दशकों से न्याय के इंतज़ार में हैं और अदालतों में सुनवाई से लेकर अलमारियों में धूल तक चाट रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप संबंधित व्यक्ति व पारिवार में उथल-पुथल, समाज में बदनामी और मानसिक उत्पीड़न के कारण विक्षिप्तता तक के दौर से गुज़रने के लिए बाध्य हैं। पता नहीं कितने ही परिवार बिखर गए, रोज़गार छिन गया, शारीरिक कमज़ोरी, मानसिक बीमारी और आत्महीनता या हीनभावना के शिकार हो गए।
यह स्थिति दुनिया के हरेक देश में नहीं है। शिक्षित, विकसित और संपन्न देशों में अपराध करने से पहले दिमाग में यह आता है कि यदि किया तो क्या होगा यानी कितनी सज़ा हो सकती है जबकि हमारे देश में जुर्म करने के बाद सोचा जाता है कि कानून की गिरफ्त से कैसे बचा जा सकता है। इसीलिए भारत में हत्या, दुष्कर्म, चोरी, डकैती और घोटाले से लेकर देशद्रोह तक करने के बाद कानून की खामियों या सहूलियतों का लाभ उठाकर मज़े से जीवन जीते हैं। कई बार पुलिस, प्रशासन और सरकार के लिए ऐसे देषियों को कटघरे में खड़ा करना लोहे के चने चबाने जैसा हो जाता है।
जिसकी लाठी उसकी भैंस : एक कहावत ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ बचपन से सिखाई जाती है। परिणाम यह होता है कि उम्र बढ़ने के साथ एक भय भी हावी होता जाता है कि जिसके पास ताकत है, उसका विरोध न करने में ही समझदारी है। उदाहरण के लिए विद्यार्थी जीवन में किसी धनवान, दबंग सहपाठी का अपने रुतबे से दहशत पैदा करना और दूसरों का डर के कारण उसका विरोध न करना मामूली बात है। अब होता यह है कि जब आप बड़े होकर नौकरी, व्यवसाय या जीवन यापन के लिए कोई भी काम करते हैं तो चाहे बॉस हो या अधिकारी, उसकी कोई भी अनुचित बात चुपचाप मान लेना। यदि तब आपको विरोध करना आता या सिखाया जाता कि गलत व्यवहार के सामने झुकना नहीं बल्कि सही जवाब देना है तो आज आपके व्यवहारिक जीवन में जो पशोपेश की स्थिति है, उत्पन्न नहीं होती और आप निर्भीक होकर अपनी बात रख सकते।
सार्वजनिक जीवन का एक सत्य यह है कि जो सत्ता में है, वही निर्धारित करता है कि भैंस किसकी है और लाठी किसके पास है। दार्शनिक प्लूटो ने कहा था कि उनसे न्याय की आशा मत रखिए जिनके पास ताकत अर्थात् लाठी है। यही कारण है कि पुलिस व्यवस्था के लिए राजनीतिक दवाब और नेताओं का हस्तक्षेप एक ऐसी बाधा है जो न्याय को बरसों तक लटकाए रख सकती है। यहीं से शुरू होता है झूठे मामलों का दर्ज होना, दोषी को बचाने के लिए निर्दोष को फंसाना और जांच को प्रभावित करना जिससे पुलिस पर से भरोसा तो उठता ही है, सरकार की निष्पक्षता पर भी सवाल खड़े होते हैं। पुलिस और जांच एजेंसियां हमेशा इस बात से जूझती रहती हैं कि उनके पास बुनियादी सुविधाएं, आधुनिक जांच उपकरण, यहां तक कि समय पर पर्याप्त वाहन भी उपलब्ध नहीं होते जिसके कारण अपराधी भागने में कामयाब हो जाते हैं और उन्हें पकड़ पाना लगभग असंभव हो जाता है। हालांकि पुलिस द्वारा अक्सर मनमज़र्ी से नैतिकता की धज्जियां उड़ाई जाती हैं।
सत्य पर असत्य की विजय रोकना असंभव नहीं : आश्चर्य होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दावा करने वाले देश में सत्य उजागर करना अपराध की श्रेणी में आता है और प्रभावशाली व्यक्ति का असत्य विजयी होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि अनेक न्यायिक सुधार होने पर भी जो मन का डर है, वह जाता नहीं क्योंकि देरी से न्याय मिलना अन्याय के ही समान है। अक्सर यह प्रश्न उठता है कि न्यायालयों या न्यायिक अधिकारियों द्वारा ग़लत फैसले दिए जाने पर क्या उन लोगों पर मुकद्दमा चलाया जा सकता है जिन्होंने चाहे अपने विवेक से या किसी के दवाब में कोई ऐसा निर्णय लिया जिससे निर्दोष को सज़ा हो गई और अपराधी बच गया हो। चाहे मौजूदा तंत्र में इनके विरुद्ध उच्च न्यायालयों में जाया जा सकता है, लेकिन यह सभी के लिए संभव नहीं होता क्योंकि इसमें समय और धन व्यय की कोई सीमा नहीं है।
इस समस्या का समाधान इस प्रकार से हो सकता है कि वर्तमान न्यायिक व्यवस्था में ऐसे सुधार हों कि माननीय जजों का नियमित प्रशिक्षण, उनके लिए आधुनिक डिजिटल सुविधाओं की व्यवस्था, प्रत्येक मामले में सुनवाई और निर्णय की समय सीमा निर्धारित हो। जिन्होंने पारदर्शिता सहित बहुत कम समय में प्रभावी निर्णय दिए, उनके सहयोग से एक ऐसी आदर्श आचरण संहिता की व्यवस्था की जाए जिससे आवश्यक जानकारी मिले और त्वरित निर्णय लेने की क्षमता में वृद्धि हो। जवाबदेही और संसाधनों का सही उपयोग ऐसी न्याय व्यवस्था बना सकता है जिसमें निर्दोष को डरने की ज़रूरत न हो और न्याय मिलने में अनावश्यक देरी न हो। इसके साथ ही जो व्यक्ति गलत फैसलों के कारण सज़ा भुगतता है, उसे आर्थिक सहायता और उसका जो नुकसान हुआ उसकी भरपाई हो ताकि वह फिर से अपना जीवन शुरू कर सके। उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक तथा व्यक्तिगत सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार को उठानी होगी क्योंकि निरपराधी होते हुए भी सज़ा पाया व्यक्ति अपराधी बन जाता है। ऐसा कानून बनना चाहिए जिससे ऐसे व्यक्ति तुरंत आर्थिक सहायता प्राप्त कर सकें क्योंकि बीता हुआ समय तो लौटाया नहीं जा सकता, लेकिन जो शेष जीवन है, उसकी सुरक्षा तो की जानी चाहिए।