वोट का ‘खेल’ बनकर रह गया है लोकतंत्र ! 

राजनीति भी अपने-आप में बहुत विचित्र चीज़ है। यह लोगों को अंदर तक प्रभावित करती है। जब कोई व्यक्ति राजनीति में आ जाता हैऔर लोगों में अच्छा प्रभाव बना लेता है तो प्रत्येक राजनीतिक दल उसे अपने साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं और भावनात्मक रूप से अति संवेदनशील बना देते है। कई बार दलों के साथ जुड़ाव वंश, परम्परा या परिवारों से आता है तो कई बार हानि-लाभ के गणित से और कई बार प्यार या नफरत से। अब राजनीतिक दल तो राजनीतिक दल होते हैं, वे अपना वोट बैंक मज़बूत करने के लिए प्रत्येक तरह के दांव-पेच आज़माते हैं और अपने लिए एक बड़ा समर्थक समूह खड़ा कर लेते हैं जिसके आधार पर वे या तो सत्ता में आ जाते हैं या सत्ता पाने के लिए कुछ भी करने पर उतारू रहते हैं। 
राजनीतिक दल आम जन को केवल एक ‘वोट’ के रूप में देखते हैं। जनता के वोट हासिल करने के लिए वे उसे प्रत्येक तरह के प्रलोभन देने का प्रयास करते हैं। किसी भी मामले को लेकर देश व समाज में तनाव व हिंसा पैदा करने की कोशिश करते हैं। धर्म एवं समुदाय के नाम पर लोगों को भड़काया जाता है। कभी-कभी विरोधियों को अपने दल में लेने के लिए उन्हें लालच दिए जाते हैं या धमकाया जाता है।
  दुनिया भर में जितने भी युद्ध होते हैं या करवाए जाते हैं, उन सब का मूल कारण एक ही होता है—राजनीतिक एवं आर्थिक रूप में सबसे शक्तिशाली बनना। राजनीतक दल और उनके नेता अच्छे से जानते हैं कि उनका आसान लक्ष्य भावनात्मक वर्ग होता है। इसके लिए जहां धर्म एवं आस्था से जुड़े बड़े ठेकेदारों को पकड़ते हैं, वहीं लेखकों, कवियों एवं मीडिया को भी माध्यम बनाते हैं। ऐसे अनेक ग्रुप एवं गैंग होते हैं जो अपने सियासी आकाओं के सपनों को जाने-अनजाने में पूरा करने के लिए हर कोशिश करते हैं। अपने आकाओं को खुश करने के लिए वे जायज़-नाजायज़ गतिविधियों को आंजाम देने के लिए तैयार रहते हैं। उल्टे-सीधे तर्क गढ़कर किसी भी तरह विपक्षियों को मात देने की रणनीति अपनाते हैं । 
जिस तरह दुनिया भर के देशों की खुफिया एजेंसियां दूसरे देशों में एक्शन लेने के लिए अपने एजेंट लंबे समय तक स्लीपिंग सेल्स के रूप में  छोड़ देते हैं और जब उनकी ज़रूरत पड़ती है तब उन्हें एलर्ट एवं एक्टिव कर अपना लक्ष्य हासिल कर लेते हैं। इसी तरह कुछ चतुर राजनीतिक दल अपने अनुषांगिक संगठनों के माध्यम से अपनी विचारधारा के कट्टर अनुयायियों को आम लोगों के बीच छोड़ देते हैं जो समय-समय पर इन्हें अपने दल के प्रति चलने वाले विचारों को से अवगत कराते हैं और समय तथा स्थिति के अनुसार ये अपने इन एजेंटों के माध्यम से आम जनता के मनोमस्तिष्क में अपनी विचारधारा को बड़ी चतुराई से रख देते हैं तथा उन्हें वोट के रूप में इस्तेमाल करके सत्ता का आनंद लेते हैं।  जब ऐसे दल सत्ता में आ जाते हैं तो अपने इन स्लीपिंग सेल्स को भी खुश करने का तरीका ढूंढ लेते हैं। कभी पद या ठेकेदारी, तो कभी कमीशन एजेंट या दूसरे रूपों में अपने काम के लोगों को य लाभ पहुंचाते हैं। इसका घाटा सिर्फ और सिर्फ देश या आम लोगों को ही होता है। दुर्भाग्य से जिस देश में जागरूकता कम होती है या फिर जनमत का अभाव होता है, वहां पर ऐसे दल लम्बे समय तक सत्ता का आनंद लेते हैं।
 यह स्थिति अकेले भारत में नहीं है, अभी तो दुनिया के अधिकांश विकासशील देशों में ऐसी ही स्थिति है तभी तो अफगानिस्तान में तालिबान, पाकिस्तान में कट्टरपंथी, बांग्लादेश में तथाकथित इस्लामी चिंतन के लोग कभी वोटों के बल पर, कभी धन के बल पर तो कभी बंदूक के बल पर सत्ता में आ  जाते हैं। भारत में अक्सर लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं और आम मतदाता को बहुत समझदार बताया जाता है, लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि उस मतदाता को कई बार तो यह भी पता नहीं होता कि वह किसे वोट दे रहा है, क्यों दे रहा है, उस दल की नीतियां क्या हैं और इसका परिणाम क्या होगा? इसका अज्ञानता का दोष मतदाताओं को नहीं अपितु उस व्यवस्था को दिया जाना चाहिए जिसने आज़ादी के 78 साल बाद भी ऐसी शिक्षा व्यवस्था विकसित नहीं की जो आने वाली पीढ़ियों को असल में तर्कशील, चिंतनशील एवं कुशल बना सके। यदि वोट की राजनीति का यह खेला चलता रहा तो फिर आगे भी ऐसा ही होता रहेगा। इसके अतिरिक्त दोषी वे सम्पन्न लोग हैं जो वोट देने के लफड़े में ही नहीं पड़ना चाहते, क्योंकि उन्हें पता है कि वें जैसे चाहें व्यवस्था को अपने पक्ष में कर सकते हैं और सबसे बड़े दोषी वे राजनीतिक दल और नेता हैं जो केवल और केवल अपने स्वार्थ की राजनीति करते हैं। (युवराज)

#वोट का ‘खेल’ बनकर रह गया है लोकतंत्र !