बुढ़ापे में बेहतर जीवन कैसे गुज़ारा जाए ?

विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस हर साल अधिकतर औपचारिक रूप से और बहुत कम गंभीरता के साथ दुनिया भर में मनाया जाता है। युवा पीढ़ी हर दौर में अपने को सर्वशक्तिमान समझ कर बड़ी उम्र वालों को बुढ़ऊ, खूसट या ऐसे नामों से संबोधित करती है—अरे इनका ज़माना चला गया, अब हमारा ज़माना है। बुज़ुर्गों कही हर बात को उपेक्षा करने से लेकर हंसी में उड़ा दिए जाने की प्रकृति युवावस्था में होती ही है। जो लोग बुज़ुर्ग या उम्रदराज़ हो चुके हैं, उनमें से कुछ तो यह सोचकर कि कभी हम भी जवान थे, अपने सामने खड़ी युवा पीढ़ी को देखकर मंद मंद मुस्कुराते हैं या फिर निराश होकर सोचते हैं कि देखो क्या ज़माना आ गया है। उल्लेखनीय है कि 21 अगस्त को विश्व बुज़ुर्ग दिवस मनाने का उद्देश्य वरिष्ठ नागरिकों के योगदान को याद करते हुए उनकी वर्तमान ज़रूरतों को समझकर उनके साथ उचित व्यवहार करना है। 
साठा सो पाठा : यह कहावत जब भी बनी हो लेकिन मतलब साफ है कि साठ साल के हो गए तो क्या हुआ, युवाओं की तरह जोश तो बरकरार है। मतलब यह कि आम तौर से यह उम्र नौकरी से रिटायरमेंट या अपना व्यवसाय है तो युवा पीढ़ी को सौंपने का होता है। लेकिन मन करता है अभी और काम किया जाए, भाव यही रहता है कि अभी तो मैं जवान हूँ, इसलिए कोई और नौकरी ढूंढने में लग जाते हैं या अपने कारोबार से चिपके रहते हैं। दरअसल उन्हें बच्चों का साथ नहीं है क्योंकि वे अपने में व्यस्त हैं या कहीं और देश या विदेश में बस गए हैं, इसलिए उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता है। ऐसे लोगों के लिए सुझाव है कि यदि आपके पास पैसे हैं तो जो काम करने का समय नहीं मिला, उन्हें पूरा करने की योजना बनाइए। देश में देखने और घूमने-फिरने को बहुत कुछ है। बच्चों तथा पत्नी की हां में हां मिलाते हुए खुश रहने का प्रयास करे, परन्तु बेवजह किसी के दबाव में न आएं। सुबह की सैर करते हुए बहुत से जवान हो रहे लड़के-लड़कियां मिलें तो उनसे दोस्तों की तरह बात कीजिए।जो शौक पीछे छूट गए, उन्हें पूरा करने की यही तो उम्र है। व्यायाम, योग, संतुलित और पौष्टिक भोजन, दोस्तों की महफिल, जिम, तैराकी या सुविधा हो तो गोल्फ जैसे खेल सीखिए। आप का स्वास्थ्य ठीक रहेगा। समय जो इस उम्र में काटे नहीं कटता, वह दौड़ने लगेगा। 
बहुत से काम निकल आयेंगे जिन्हें आपके द्वारा पूरा किये जाने की प्रतीक्षा है, जैसे निर्धन बच्चों को पढ़ाना, स्वच्छता अभियान में सहयोग, धार्मिक या आध्यात्मिक कार्यक्रम और यदि कुछ न हो तो कोई किताब पढ़ना शुरू कर दीजिए। 
सारे बंधन तोड़ अपने नियम बनाना : जब 70-75 की उम्र होने लगती है तो शारीरिक और मानसिक तथा भावनात्मक संतुलन बनाये रखने का समय शुरू हो जाता है। ज़मीन पर बैठ जाओ तो उठने के लिए सहारे की ज़रूरत होने लगती है, नीचे कुछ गिर जाए तो उसे उठाने के लिए नीचे झुकने में परेशानी महसूस होती है, सीढ़ियां चढ़ने से डर लगता है, अलमारी से या ऊपर रखे बॉक्स में से कुछ निकालना या उसे नीचे उतारना या उसमें कुछ रखना मुश्किल लगता है, क्योंकि दुर्भाग्य से चोट लगेगी तो बिस्तर पर महीनों पड़े रहेंगे और डॉक्टरों की मेहरबानी और निगरानी में शेष जीवन बिताना होगा। दूसरा असर यह होता है कि उन लोगों पर निर्भरता बढ़ जाती है जिनसे आप भावनात्मक रूप से अलग हो चुके होते हैं। इसके लिए आप ऐसा दिखाते हैं कि आपको कोई तकलीफ नहीं जबकि दर्द के मारे ठीक से बैठ या खड़े या बात तक करने में अपने को असमर्थ महसूस करते हैं। 
यह उम्र का वो पड़ाव होता है जब ज़रा-सी असावधानी दुर्घटना का कारण बन सकती है। कपड़े बदलने हों तो सुविधाजनक स्टूल या कुर्सी पर बैठकर पहनिये। यह वह उम्र है जिसमें आंख, कान, शरीर के जोड़ और दांतों की उम्र भर घिसाई होने से उनकी मरम्मत करने की ज़रूरत हो जाती है। इसका उपाय यही है कि तनिक भी इनकी क्षमता कम होती लगे तो डॉक्टर की सेवा लेने में कोताही न करें। 
अंतिम पड़ाव : अस्सी की उम्र का दशक ऐसा है जब मानसिक तनाव देने वाले लोगों और परिस्थितियों को दूर से ही नमस्ते करने की आदत बना लेनी चाहिए। लम्बे समय तक एक ही जगह बैठे रहना, टहलने से बचना और व्यायाम न करने का बहाना खोजना और अकेलेपन को चादर की तरह ओढ़ लेना कोई बुद्धिमानी नहीं बल्कि शरीर व मन को समझना होता है कि कुछ तो कर ले। खुली सड़क पर चलने से तौबा करें, क्योंकि यह उम्र न तो बहादुरी दिखाने की है और न ही किसी से उलझने की। 
असल में बुढ़ापा एक सोच है जैसे उम्र केवल एक गिनती मात्र है वरना ऐसे लोगों की कहानियों से यह दुनिया भरी हुई है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि अब तक यह समझ में आ चुका होता है कि अब जो जीवन जी रहे हैं, वह उधार का है। यही भावना बहुत से असंभव लगने वाले काम इसी उम्र के लोगों से अनायास हो जाते हैं। यह समय ऐसा होता है जब आप किसी से कोई अपेक्षा नहीं रखते और न ही उनकी उपेक्षा से हैरान परेशान होते हैं, सहज स्वभाव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया बन जाती है। किसी का भला बुरा कहना या उसका प्रतिवाद करना बेमानी लगने लगता है। इसी मानसिक स्थिति में इस पड़ाव पर ऐसे काम हो जाते हैं, जो औरों के लिए अचंभा और अपने लिए गौरव की अनुभूति होते हैं। 
जो लोग इस उम्र के हैं और सकारात्मक सोच और क्रियात्मक जीवन शैली अपनाये हुए हैं, जिनमे मैं और मेरी आयु के लोग हैं, वे जब अपनी ज़िंदगी की उठापटक, उतार-चढ़ाव के बारे में और अपने पूरे जीवन के क्रिया कलापों के बारे में सोचते हैं या दूसरों को बताते हैं तो चाहे दूसरों को उनमें कोई रुचि न हो, लेकिन अपने अंदर एक संतोष और भरे-पूरे होने का भाव जागृत होता ही है। इसलिए कोई संताप नहीं और यही जीवित रहने की सार्थकता है। कितना जीना है, यह कोई नहीं जानता लेकिन जब तक जीवन है, तब तक द्वेष, कलेश, अहंकार और क्रोध से दूर रहना है, यही जीवन सत्य है। 

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