मदर टेरेसा : सेवा ही जिनके जीवन का ध्येय था
भारत की धरती पर समय-समय पर ऐसे महापुरुष और महात्मा जन्म लेते रहे हैं, जो मानवता के सच्चे उपासक बन कर पीड़ित और असहाय जनों के लिए ईश्वर का रूप प्रतीत होते हैं। ऐसी ही महान आत्मा थीं मदर टेरेसा, जिनका जन्म 26 अगस्त, 1910 को यूगोस्लाविया (अब मैसेडोनिया) में हुआ था। उनका मूल नाम आग्नेस गोंझा बोयाजियु था। एक साधारण परिवार में जन्मी यह लड़की आगे चल कर पूरी दुनिया में करुणा और सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में जानी गई।
मदर टेरेसा ने 12 वर्ष की आयु में ही तय कर लिया था कि उनका जीवन ईश्वर और मानवता की सेवा को समर्पित होगा। वह रोमन कैथोलिक नन बनीं और 1929 में भारत आईं। भारत आने के बाद कोलकाता उनकी कर्मभूमि बना। यहीं उन्होंने निर्धनों, असहायों, अनाथों व बीमारों के बीच रहकर उनकी सेवा को अपने जीवन का ध्येय बनाया। उन्होंने 1950 में ‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ की स्थापना की, जो आज भी दुनिया भर में मानवता की सेवा कर रही है।
उनकी सेवा केवल परोपकार नहीं थी, बल्कि वह करुणा और प्रेम का मूर्त्त रूप थीं। वह सड़कों पर पड़े असहायों को अपने हाथों से उठा कर आश्रय देतीं, घावों को धोतीं, भूखों को भोजन करातीं और मृत्यु के कगार पर खड़े व्यक्ति को भी सम्मान और स्नेह प्रदान करतीं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि सेवा ही सच्ची प्रार्थना है और मानवता ही ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा।
मदर टेरेसा की सेवाओं को देखते हुए विश्वभर में उन्हें सम्मान और पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्हें 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला, 1962 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और 1980 में भारत रत्न से अलंकृत किया।
विश्व के अनेक देशों ने उन्हें सम्मानित किया, लेकिन उनके लिए असली पुरस्कार वही मुस्कान थी जो सेवा पाकर किसी असहाय के चेहरे पर आती थी। 5 सितंबर, 1997 को मदर टेरेसा का निधन हो गया, किन्तु उनकी स्मृति और कार्य आज भी जीवित हैं। वेटिकन सिटी ने 2016 में उन्हें ‘संत’ की उपाधि प्रदान की। वह आज भी उन सभी के लिए प्रेरणा हैं जो सेवा और करुणा का मार्ग चुनते हैं। उनका जीवन हमें यह संदेश देता है कि इंसानियत की सच्ची पहचान जाति, धर्म और भाषा से ऊपर उठ कर सेवा और प्रेम में निहित है। मदर टेरेसा ने अपने जीवन से दिखाया कि यदि हृदय में करुणा हो तो हम दुनिया को स्वर्ग बना सकते हैं।
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