समय के साथ संघ ने अपने आप को कैसे बदला ?

जब से 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सत्ता पर कब्ज़ा किया है, राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ (आर.एस.एस.) भी स्वयं को सत्ताधारी मानने लगा है। वह ऐसा माने भी क्यों न, जबकि भाजपा उसकी राजनीतिक भुजा जो है। पाठकों को याद होगा कि शुरुआती दौर में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत को दूरदर्शन पर राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करने का मौका भी मिल गया था। वे तकरीबन एक अघोषित राष्ट्रपिता की तरह आचरण करते नज़र आ रहे थे, और सरकार उन्हें इसका मौका भी दे रही थी। यह ज्यादा नहीं चला, और जल्दी ही भागवत को अपने भाषण देने के लिए विज्ञान भवन का चयन करना पड़ा। वज़ह यह थी कि नरेन्द्र मोदी ने उनकी सरकार से दूरी बनाने की रणनीति अख्तियार कर ली। एक तरह से मोदी और संघ के बीच इस दौर में एकता भी रही, दोनों ने एक-दूसरे को मज़बूत भी किया, और दोनों के बीच एक तरह का अनमनापन भी रहा। संघ ने इस पर कोई तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की लेकिन जैसे ही मोदी ने 10 साल बाद अपना बहुमत खोया, वैसे ही संघ ने सरकार को नियंत्रित और विनयमित करने की अपनी ़गैर-संवैधानिक हैसियत का दावा शुरू कर दिया। आज स्थिति यह है कि संघ को खुश करने के लिए मोदी को उसकी चापलूसी करनी पड़ती है। 15 अगस्त पर लाल किले से मोदी ने यही किया।  
यह अलग बात है कि इस प्रक्रिया में एक पुरानी बहस फिर से गर्म हो गई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का 15 अगस्त, 1947 मेें भारत को मिली आज़ादी में क्या योगदान था। इस चर्चा को पुन: सिर उठाने का मौका इसलिए मिला है कि 2025 संघ की स्थापना का शताब्दी वर्ष है और प्रधानमंत्री ने 11 साल मेें पहली बार लाल किले से अपने पितृसंगठन की स्तुति में काफी-कुछ कहा है। मेरे पास इस विवाद का हमेशा-हमेशा के लिए समाधान करने का एक आसान सा ़फार्मूला है। मेरा प्रस्ताव है कि अगर 1947 की संख्या में से सैंतालिस (47) का अंक पलट कर चौहत्तर (74) कर दिया जाए तो यह बहस एक निर्णायक मुकाम पर पहुंच सकती है। यानी, हमें संघ के जीवनकाल में 1947 के बजाये 1974 के वर्ष पर बातचीत करनी चाहिए। यही वह वर्ष था जब पूना की वसंत व्याख्यान माला में तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस द्वारा दिये गये एक व्याख्यान ने एक धीमी चलने वाली प्रक्रिया के तहत संघ का वह चेहरा प्रदान किया जो उससे पहले के दो सरसंघचालकों (डा. हेडगेवार और एम.एस. गोलवलकर) द्वारा गढ़े गये चेहरे से बहुत अलग है। इसी व्याख्यान से संघ की उस रणनीति ने जन्म लिया जिसके ज़रिये स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत का हिंदुत्व के विचार में विनयोग करने की कोशिशें शुरू हुईं। इसी व्याख्यान के बाद डा. आम्बेडकर और गांधी के नामों को संघ ने अपने प्रात:स्मरण में शामिल किया। इसी के कारण अपनी स्थापना के पूरे 53 साल बाद संघ ने अपने मुख्यालय पर तिरंगा झंडा फहराया। इसी उद्बोधन के बाद संघ ने भारतीय संविधान को मनु स्मृति से प्रभावित न होने के कारण खारिज करने के बजाये उसे ‘एकमात्र धर्मग्रंथ’ के रूप में अपनाने का सिलसिला शुरू किया। 
बाला साहब देवरस के इस वक्तव्य ने संघ को किस तरह बदला, यह अपने आप में एक पूरी किताब का विषय है। कुछ उदाहरण देना यहां समीचीन होगा। जैसे, इसी के बाद संघ ने खामोशी से अपने अधिकारिक दायरों से गोलवलकर से जुड़ी दो विवादास्पद रचनाओं (‘बंच ऑ़फ थॉट्स’ और ‘वी ऑर अवर नेशनहुड ड़िफाइंड’) को गायब कर दिया। इसके बाद मनु स्मृति का समर्थन अगर कोई स्वयंसेवक व्यक्तिगत हैसियत से करना चाहे तो कर सकता था, पर अधिकारिक रूप से इस विवादास्पद धर्मशास्त्र की तरफदारी करना भी बंद कर दी गई। विश्व हिंदू परिषद ने अपनी वेबसाइट पर मंनू स्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति जैसे शास्त्रों से किनारा कर लिया। गोलवलकर ‘केवल शाखा’ के प्रतिमान में विश्वास करते थे, इसलिए उनके कार्यकाल में संघ के संगठन मोटे तौर पर निष्क्रिय पड़े रहते थे। पर देवरस ‘संगठन-गोलबंदी-कार्रवाई’ में विश्वास करते थे। इसलिए उन्होंने अपने संगठनों के माध्यम से संघ को सार्वजनिक जीवन में हस्तक्षेप करने की रणनीति थमायी। संघ ने सक्रिय राजनीति में अघोषित भागीदारी शुरू कर दी। सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में संघ की भागीदारी इसका पहला बड़ा प्रमाण था। वनवासी कल्याण आश्रम को फिर से डिज़ाइन करके राष्ट्रीय स्वरूप दिया गया। 1979 में पूर्व-अछूतों के बीच काम करने के लिए सेवा भारती जैसा संगठन बनाया गया। इससे पहले संघ ज्यादा से ज्यादा शुद्र कही जाने वाली जातियों को ऊंची जातियों से जोड़ने में ही लगा रहता था। हिंदू राजनीतिक एकता के साथ दलितों को कैसे जोड़ा जाए-इसकी कोई दीर्घकालीन योजना उसके पास नहीं थी। 1983 से ही संघ ने अम्बेडकर जयंती मनानी शुरू की। इसी पहलकदमी के विस्तार के तौर पर सामाजिक समरसता मंच की स्थापना की गई ताकि वामपंथियों द्वारा प्रचलित समानता के विचार के मुकाबले समरसता का विचार प्रचलित किया जा सके। 
देवरस द्वारा 1974 में दिये गये सरसंघचालक के व्याख्यान से पहले का संघ किस तरह का था? इसका पता लगाना हो तो देवरस के भीतर अपने विचारों और रणनीतियों के लिए जिस तरह के विरोध का सामना करना पड़ा उस पर नज़र डालना चाहिए। बाबा भिड़े और के.बी. लिमये ने देवरस की आलोचना की थी। केंद्रीय कार्यकारी मंडल के कई सदस्यों ने अपनी नाराज़गी व्यक्त की थी। ज़ाहिर है कि अगर इन लोगों की चलती तो संघ अपने भीतर ऊपर बताये गये परिवर्तन नहीं कर सकता था। देवरस से पहले संघ राष्ट्रीय आंदोलन को किसी दृष्टि से देखता था? यह पता लगाना हो तो देखना चाहिए कि आज़ादी से पहले पंजाब के फगवाड़ा में हुए संघ शिक्षा वर्ग में एक स्वयंसेवक के प्रश्न के उत्तर में गोलवलकर ने क्या कहा था। सवाल था कि आज़ादी के बाद संघ की क्या भूमिका होगी। गोलवलकर का उत्तर था कि क्या तुम्हें लगता है कि अंग्रेज़ देश छोड़ कर चले जाएंगे? जिन लोगों को सत्ता सौंपी जा रही है वे दो महीने भी सरकार नहीं चला सकते और फिर अंग्रेज़ों से कहेंगे कि आप लौट आइए और देश चलाइए। इसलिए संघ पहले की तरह ही काम करता रहेगा। यह एक तथ्य है कि ब्रिटिश सरकार के खुफिया तंत्र ने रिपोर्ट दी थी कि संघ ने भारत छोड़ो आंदोलन से स्वयं को दुर रखा है और उससे अंग्रेज़ों को कोई ़खतरा नहीं है। दरअसल, बहुत से स्वयंसेवकों को यकीन था कि अंग्रेज़ कहीं नहीं जाने वाले हैं। इस देश पर भाजपा का शासन 17 साल तक रह चुका है। यही वज़ह है कि आज तक राष्ट्रीय आंदोलन में संघ की कथित सक्रिय भूमिका का कोई भी प्रामाणिक इतिहास किसी ़गैर-स्वयंसेवक द्वारा नहीं लिखा गया है। जो तथ्य सामने आते भी हैं, वे छिटपुट और बिखरे हुए हैं। असली समस्या यह है कि संघ के मौजूदा चेहरे के आईने में 1974 से पहले के संघ को नहीं देखा जा सकता। इस तरह की जितनी भी कोशिशें की जाएंगी, वे प्रामाणिक नहीं लगेंगी।

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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