विकास के कोलाहल में जीते लोग
इस देश में विपदा और अच्छे दिनों के अर्थ में अंतर कम होता जा रहा है। जिस प्रकार देश की आबादी बढ़ने के साथ-साथ एक ओर काम करने योग्य आबादी बढ़ती है, इसी तरह सस्ता राशन लेने वालों की संख्या भी बढ़ती जाती है। सरकार के लिए यह सन्तोष का विषय हो सकता है कि दुनिया में इक्कासी करोड़ से अधिक लोगों में सस्ता राशन बांटने वाले देशों में उसका रिकार्ड बन गया है। इसी तरह एक उपलब्धि के साथ एक विसंगति पालने का उसका रिकार्ड भी चिरजीवी हो बलैयां पा गया है। इस बात के पिष्ट-पोषण के लिए आप कह सकते हैं, कि देखो हमारे शहर कृत्रिम मेधा जीवी हो गये। इनकी पहचान हर इलाके में सिर उठाती हुई बहुमंज़िली इमारतों की तादाद से होने लगी, परन्तु यह विसंगति बेपहचानी रह गई कि इनमें से बहुत-सी शानदार इमारतों ने जब सिर उठाया तो उन्होंने भूमि अतिक्रमण में शहर के नाले और सीवरेज लपेट लिए। अब बादलों का आना बहुमंज़िली इमारतों के शिखर पर बैठी औरतों के लए मधुर दिवस होता है, और सड़क जीवी लोगों के लिए बाढ़, सड़कों का रूप बदल कर नहर हो जाने का अपशगुन।
बहुमंज़िली इमारतों के ऊपरी कक्ष से अंग्रेज़ी सावन गीत गूंजते हैं, और नीचे धरती पर आदमी से केंचुआ हो गये आदमी की डूबती उतराती हुई सिसकियां। प्रलयंकर जल बहाव में बहता हुआ उनका जमा जत्था और पहाड़ों में भूस्खलन पर ‘बचाओ बचाओ’ के चीत्कार।प्रकृति तो उतनी ही सुन्दर लगती है, उसमें बहते हुए जलप्रपात भी, परन्तु यही प्रपात बेलगाम किसी के लिए तत्काल मृत्यु संदेश ले आते हैं, तो उनके दूसरे भाग के लिए मुआवज़े की राजनीति शुरू करने का बिगुल।
कोई उनसे नहीं पूछता कि महोदय जब आपने ये इमारतें खड़ी कीं तो उनके सीवरेज को क्यों मकानों की नींव में समेट दिया। इन शहरों की पुरानी तस्वीरें निकाल कर देखिये। हर शहर की गलियों में नालियां थीं, नाले थे, उनका बहता पानी नालों में मंज़िल या शहर को कीचड़ की दलदल नहीं, सफाई का सन्देश दे जाता था। अब उजले शानदार शहर तो खड़े हो गए, लेकिन उनकी शुचिता की आत्मा गुम हो गई। आधुनिक शुचिता के नाम पर अब कोई गंदी नाली या नाला आपको धरती के ऊपर बहता दिखाई नहीं देता। सब को बड़े-बड़े पाइपों में पधार कर धरती के नीचे समाने का हुक्म हो गया है।
यूं, अच्छी भली सड़कें थीं, या स्वप्न गलियां, जो हमारे लेखकों को एक सड़क सत्तावन गलियां जैसे उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित करती थीं, कहां गईं। वक्त बदला तो शहरों की यह पहचान भी बदल गई। अब कहां रहीं नालियां और गलियां? सम्पदा व्यवसायी उभर आये जिन्होंने वैध-अवैध कालोनियों के गट्ठर अधूरे सपनों की तरह आम आदमी को किस्तों में बेचने शुरू कर दिये। सपने यहां जल्दी बिकते हैं। मंत्री से लेकर संतरी तक आपको यहां सपने ही बेचते हैं। सफाई स्वत: चालित धरती के नीचे कर दी गई है, और उसकी परिणति के रूप में आपको टूटी सड़कों के उपहार मिले हैं। यहां बारिश धारासार पड़ती है तो यही सड़कें जल भरे अन्धकूप बन जाती हैं। जहां बेचारे वाहन चलाने वाले साधारण जीव महसूस करते हैं, कि वे किसी उजड़ी सर्कस के मौत के कुएं में वाहन चलाने का करिश्मा दिखा रहे हैं। ऐसे माहौल में लोग यहां जीते हैं। जीते ही नहीं, यूं ही जीने की आदत डाल चुके हैं। तभी तो देखिये यह आदत कितनी प्यारी हो गई, कि हमारे देश की आबादी ने अपनी संख्या बढ़ा कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश हो जाने का रिकार्ड बना लिया। वैसे रिकार्ड बनाने में हम दक्ष हो गए हैं। प्रतिदिन विसंगतियों और विडम्बनाओं को ढोते हैं, फिर भी पूरा वर्ष अपनी घोषित सफलताओं का उत्सव मनाते रहते हैं। ये उत्सव उन आंकड़ों की धरती से पैदा होते हैं, जिनका अस्तित्व अपनी ज़िन्दगी में कहीं नज़र नहीं आता और अपना रिकार्ड बनाते हैं।
क्रांति और बदलाव के चीखो-पुकार में देश यथा-स्थितिवाद का शिकार हो गया है। आप कहते हैं देश का कायाकल्प हो गया। हमें तो केवल धनियों का कायाकल्प हुआ नज़र आता है। उनकी बहु-मंज़िला इमारतें, वातानुकूलित हो गईं। वहां तो अब सीढ़ियों की जगह लिफ्टों का चलन भी हो गया, लेकिन आम आदमी उन्हीं सड़कों पर अपने लिए जीने के बिल तलाशता रहा। सड़कें ज्यों-ज्यों एक्सप्रैस होती गईं, इनके किनारों पर बिलनुमा ठिकाने आपको कोनों में फुसफुसाते नज़र आये। सही करते हो जो ‘आदमी और चूहे’ को अपने साहित्य का श्रेष्ठ उपन्यास मानते हो। हां, फर्क केवल इतना है कि अब आदमजात में ही चूहों की तादाद बढ़ने लगी, जो घण्टी बजने पर हर्ष से नाचती है, और अपने लिए सस्ते अनाज की अनुकम्पा का विस्तार पाती है। देखो, आपका देश दस वर्ष में ही दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया। अभी-अभी इसके चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति हो जाने के तोरण द्वार भी सज गये हैं। शीघ्र ही एक कदम आगे जाकर तीसरी बड़ी शक्ति बनोगे और जब अपना देश अपनी आज़ादी का शतकीय उत्सव मना रहा होगा, तो कोई हैरानी नहीं, यह देश अमरीका और चीन को पछाड़ कर दुनिया के सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाये। जी हां, वही शक्ति, जो इस देश के धनियों को महा-मानव हो जाने का दर्जा देती है, उनकी बी.एम.डब्ल्यू. को प्राइवेट जेट में बदल देती है, और देश की अधिकांश आबादी को सस्ते राशन की दुकानों के बाहर खड़ा कर देती है, अपने ज़िंदा रहने की हैरानी का एक और जश्न मनाने के लिए।