राहत भरा फैसला

वक़्फ संशोधन कानून 2025 जोकि संसद में वर्ष 2024 में पेश किया गया था, संबंधी लम्बी चर्चा चलती रही है। इस संबंध में ज्यादातर आशंकाएं भी प्रकट की जाती रही थीं। विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय में यह प्रभाव भी बना रहा कि सरकार उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बढ़ाने का यत्न कर रही है। यह कानून वर्ष 1923 से लागू था, जिसमें नए संशोधन बिल द्वारा केन्द्र सरकार ने कई अहम बदलावों का सुझाव दिया था। इस बिल के संसद में पेश होने के समय बहुत हंगामा हुआ था। बाद में इस पर 14 घंटे की लम्बी बहस के बाद इसे संयुक्त संसदीय समिति में और विचार-विमर्श के लिए भेज दिया गया था। इस समिति में विपक्षी पार्टी के सदस्य भी शामिल होते हैं। वहां 6 महीने के विचार-विमर्श के बाद ही यह भारी हंगामे के  दौरान संसद में पारित किया गया था, परन्तु इसकी कई धाराओं को लेकर लगातार एतराज़ उठते रहे थे, जिन्हें लेकर कांग्रेस के एक सांसद मोहम्मद जावेद और दूसरे सांसद असादुदीन ओवैसी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इसी तरह हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की हाईकोर्ट में भी याचिकाएं दायर की गई थीं।
सुप्रीम कोर्ट के अब आए अंतरिम फैसले ने सभी पक्षों को बड़ी राहत दी है। सुप्रीम कोर्ट के इस अंतरिम फैसले में इस कानून को पूरी तरह रद्द नहीं किया गया। कोर्ट के फैसले से संसद द्वारा बनाए गए किसी कानून को रद्द करना बहुत आसान नहीं होता परन्तु सर्वोच्च अदालत ने उन कुछ धाराओं पर अपना अंतरिम फैसला ज़रूर दे दिया है, जिन पर बड़ा विवाद बना रहा था और जो मुसलमानों के बड़े वर्ग में असन्तोष पैदा करने वाली थीं। भाजपा के ही नेता मुख्तयार अब्बास नकवी ने यह कहा है कि वक़्फ संशोधन कानून धार्मिक आस्था की सुरक्षा और वक़्फ प्रशासन में ऐतिहासिक सुधार की गारंटी है। इसका किसी भी धार्मिक प्रथा या रीति-रिवाज़ के साथ कोई लेना-देना नहीं है। कांग्रेस प्रधान मल्लिकार्जुन खड़गे ने सर्वोच्च अदालत के इस अंतरिम आदेश पर टिप्पणी करते हुए कहा कि यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा संबंधी कोर्ट के संकल्प की पुष्टि करता है।  ऑल इंडिया मजलिस-ए-इतहादुल मुसलमीन के प्रमुख असादुदीन ओवैसी ने भी अंतरिम फैसले पर टिप्पणी करते हुए संतुष्टि प्रकट करने के साथ-साथ यह कहा है कि वक़्फ बोर्ड का मुख्य प्रबन्धक मुसलमाम ही होना चाहिए, परन्तु इसके साथ ही ज़मीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रधान मौलाना अरशद मदनी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है, जिसमें तीन अहम विवादित धाराओं से राहत दी गई है। ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ के कार्यकारी प्रधान शारिक अदीब अंसारी ने कहा है कि यह फैसला एक संतुलित दृष्टिकोण को दर्शाता है और संवैधानिक मूल्यों और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है। इसके साथ ही न्याय और निष्पक्ष शासन की भावना को भी स्थापित रखता है।
सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्रीय वक़्फ बोर्ड के 22 सदस्यों में 4 से अधिक ़गैर मुस्लिम शामिल न किये जाने का निर्देश दिया है। इसी तरह राज्यों के वक़्फ बोर्डों के 11 सदस्यों में तीन से अधिक ़गैर मुस्लिम सदस्य शामिल करने पर रोक लगाई गई है। अदालत ने इस बात को भी स्वीकार नहीं किया कि वक़्फ में सम्पत्ति देने के लिए किसी मुस्लिम के लिए 5 वर्ष इस्लाम का पालन करने की शर्त होनी चाहिए। अदालत ने यह कहा है कि पहले इस बात के लिए स्पष्ट कायदा-कानून बनना चाहिए। इस फैसले में बड़ी बात यह भी कही गई है कि ज़िला अधिकारी यह फैसला नहीं कर सकता कि संबंधित सम्पत्ति वक़्फ बोर्ड की है या नहीं। अदालत ने स्पष्ट कहा कि कलैक्टर को नागरिकों की सम्पत्ति के अधिकारों संबंधी फैसला करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती।
सर्वोच्च अदालत ने यह भी कहा कि वक़्फ बोर्ड के प्रबंधकीय अधिकारी (सी.ई.ओ.) का मुसलमान होना ज़रूरी नहीं। सी.ई.ओ. का काम रिकार्ड रखना और प्रशासनिक कार्य देखना ही होता है, परन्तु सरकारों को यह यत्न करना चाहिए कि मुख्य अधिकारी मुसलमान ही हो। इसी के साथ ही सर्वोच्च अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि ट्रिब्यूनल द्वारा, सर्वोच्च अदालत का अंतिम फैसला आने तक न तो वक़्फों को सम्पत्ति से बेदखल किया जाएगा और न ही इसका सरकारी रिकार्ड में हस्तक्षेप प्रभावित होगा। चाहे सर्वोच्च अदालत का यह अंतरिम फैसला है परन्तु इससे यह उम्मीद ज़रूर पैदा होती है कि इस अंतिम फैसले से व्यापक स्तर पर मुसलमान वर्ग की संतुष्टि हो सकती है।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

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