यहां कहानियां अन्तहीन हो जाती हैं

कहानी चाहे कितनी ही अच्छी क्यों न हो, एक दिन उसका अन्त अवश्य हो जाता है। हिन्दी के अन्यतम कथाकार भीम साहनी ने एक दिन कहा था, लेकिन अपने देश में लगता है कि यह कथन भी जैसे गलत हो गया।
अपना देश लगता है जैसे स्वयं सिद्ध कथनों को झुठलाने में सिद्धहस्त हो गया है। देश में परिवारवाद का अन्त होना चाहिए, समाज के सभी कर्णधार एक साथ चिल्लाते रहे, लेकिन अभी एक प्रदेश में चुनाव उम्मीदवारों की तालिका घोषित हुई, और उसमें कम से कम एक चौथाई उम्मीदवार मंत्रियों और नेताओं के बेटे-पौत्र हैं। बेशक यह एक सत्य है, कहानी नहीं, लेकिन घोषणाओं के बावजूद भी ऐसे सत्यों का क्या करें जो अपनी तासीर में गलत हैं। इनका कहीं अन्त होता हुआ दिखाई नहीं देता। यहां परिवारवाद धड़ल्ले से चल रहा है— यह कह कर कि देश के नेतृत्व में इतना शून्य पैदा हो गया है, कि योग्यता की बपौती नेताओं और समर्थों की बांदी हो गई। इसलिए उम्मीदवारों की सूचि में परिवार पोषक नेताओं का बाहुल्य रहता है, क्योंकि आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद और शतकीय महोत्सव मनाने की ओर बढ़ते भारत में भी हमें राजनीति में परिवारवाद एक स्थायी सत्य की तरह स्थापित होता लगता है। आम लोग इसे शिरोधार्य करते हैं, और राजा के बेटे को राजा बनाने में कोई संकोच नहीं करते।
हां इस बीच इन आत्ममुग्ध गरीब लोगों की बहुतायत तरक्की के नाम पर खोखले नारों के सिवा कुछ नहीं पाती, तो वह जैसे इसे भी अपने जीने की आदत में स्वीकार कर लेती है। पुराने आदर्श बोसीदा लगने लगे हैं। जैसे इनमें से एक समाजवाद का आदर्श है। इसे हमने कभी अपने संविधान का मार्ग-दर्शक बनाया था। यह कहा था कि आदर्श भारत में समाजवाद अवश्य स्थापित होगा, अर्थात अमीर का बेटा अमीर होगा और गरीब का बेटा तरक्की करके भी  यहां फटीचर, बेरोज़गार और भूखा-नंगा हो गया। मीरे कारवांओं की दीदा दिलेरी देखिये कि पिछले दिनों देश में यह विचार भी चलता रहा कि समाजवाद शब्द को संविधान में से निकाल दिया जाये। यह तो खुशकिस्मती समझिये कि शब्द हटा नहीं, वहां का वहां रखा है। हां लोगों की ज़िन्दगी में से समाजवाद ़गैर-हाज़िर हो गया। हम कल भी कहते थे कि भारत एक अमीर देश है जिसमें गरीब बसते हैं, जो आज भी इसी सत्य में एक नारकीय स्तर पर जीने के लिए मजबूर हैं। 
विरोधाभास जैसे आधुनिक जीवन का हिस्सा, ये कहानियां कभी खत्म होती नज़र नहीं आतीं। अमीरों की अमीरी की कहानियां नई-नई बहु-मंज़िली इमारतों में बदलती जा रही हैं, और ़गरीबों की ़गरीबी उर्वशी की उस कथा की भांति हो गई, जिसका कोई अन्त नहीं रहता। यह कहानी सुरसा की आंत की तरह लम्बी होती जा रही है। पहले तो इस भूख और ़गरीबी का अन्त सस्ते अनाज की दुकानों की अवधि को अन्तहीन समय तक बढ़ा कर करने में किया गया था। अब उन दुकानों के खाली रह जाने का भी ़खतरा पैदा हो गया है, क्योंकि कहा जा रहा है कि पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के जीवन का एक हिस्सा बन जाने के बाद कृषि मानसून का जुआ ही नहीं रह गई, मौसमों की गुमशुदगी का हिस्सा बनके रह गई है। बाढ़ के द्वारा फसलों की बर्बादी और किसान की मेहनत की व्यर्थता इसकी प्राप्ति है, और अगली फसल ‘खेतों से रेत उठाएं तब बीजें,’ का एक कुपरिणाम इस परिणाम की रेत खनन करने वाले यह हैं कि अवैध माफिया ने तो ‘बिल्ली के भागो छींका टूटा’ की तरह यह संकल्प ले लिया, और आम किसान अपने खेतों के पीछे से बह कर आये गन्दे मलबे में से रेत न निकाल  सकने की मजबूरी के साथ एक भीषण सत्य भोगने लगा। जी हां वही उसके दुर्दिनों की कहानी जो बरसों से लिख रहे हैं। कभी खत्म नहीं होती और आपने तो कहा था कि हर कहानी अच्छी हो या बुरी, एक दिन अवश्य खत्म हो जाती है।
हां गरीबों के लिए चुनावी बयार के वायदों की तरह अच्छे दिनों के वायदों की कहानी चार दिन की चांदनी की तरह देखते ही देखते खत्म हो जाती है, लेकिन प्रगति की घोषणाओं में आम आदमी की ़गरीबी के और भी बढ़ते जाने की मजबूरी की कहानी तो लम्बी ही होती जा रही है। कभी खत्म नहीं होती। यह विरोधाभासी देश है। कहानियां तो यहां और भी अन्तहीन हो गईं। जैसे समाज कोगरीबों के हक में बदल देने की कहानी। समाज बदला तो अवश्य, लेकिन गरीबों को नौकरी दिलाऊ खिड़कियों के बाहर कतार लगाने की बजाय उदारता और अनुकम्पा की उस संस्कृति में बदलता नज़र आया जहां ़गरीबों की कतार अब सस्ते राशन की दुकानों के बाहर लगती है, और अपना भविष्य फ्री लंगर की रसोइयों में तलाश करने लगी है।
हमने पाया कि यह विरोधाभासों से भरा हुआ देश है, इसीलिए तो भ्रष्टाचार उन्मूलन का नारा लगाने वाले ही सबसे बड़े भ्रष्टाचारी निकल रहे हैं। उनके घरों में छापा मारो तो चाहे करोड़ों की अवैध सम्पदा बरामद हो जाए, लेकिन उन पर एफ.आई.आर. दर्ज होना ही कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती है। इसके बाद तो केस की तारीख पर तारीख पड़नी है, और आरोपी ज़मानत पर रिहा होकर फिर समाज का नेतृत्व करने का दम भरने लगता है। विरोधाभास का सितम यह कि ‘आरोपी अपराधी नहीं’ का स्वर्णिम सिद्धांत स्वीकार करके हम इनके नेतृत्व के हाथों फिर अपने भाग्य की बागडोर देते हैं, और धीरज के साथ किसी क्रांति के घटने का इंतज़ार करने लगते हैं। 

#यहां कहानियां अन्तहीन हो जाती हैं