त्यागी और सत्यवादी
किसी गांव में एक साधु अपने सभी चेलों के साथ आ धमके। और, वहीं ठहर गए। चेलों ने गांव वालों से साधु की खूब बड़ाई की और कहा, ‘हमारे साधु महाराज महान त्यागी और सत्यवादी हैं।’
धीरे-धीरे साधु की ख्याति आस-पास के इलाके में भी फैल गयी। फिर साधु महाराज के दर्शन के लिए लोगों की भीड़ दिन-दूनी रात-चौगुनी बढ़ने लगी। श्रद्धालु भक्त लोग दूर-दूर से आकर कीमती चीज़ें उपहार में दे जाते।
बहुत दिन गुजरे। एक ही गांव में साधु महाराज आखिर कब तक टिके रहते? जगह बदलना जरुरी था। अत: जब उनकी विदाई की घड़ी करीब आ गयी तो एक श्रद्धालु भक्त जो उनके दर्शन किये बिना किसी भी दिन भोजन ग्रहण नहीं करता था, उन्हें काफी दूर छोड़ने के लिए आया और वापसी से पहले उसके मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उसने साधु से कहा-‘महाराज, मैं कुछ पूछना चाहता हूं।’
‘ज़रुर पूछो।’ वह बोले।
‘आप महान त्यागी हैं, आपके चेलों ने हमें बताया। मगर आपने क्या त्याग किया है, यह आजतक मैं नहीं जान सका हूं। कृपया बताकर मेरी जिज्ञासा शांत कीजिए।’ भक्त ने सरल भाव से निवेदन किया।
साधु के चेहरे पर गंभीरता आ गयी। फिर वह बोले, ‘जानते हो, दुनिया में सबसे महान चीज क्या है?’
‘नहीं मालूम।’
‘वह है-सत्य।’ साधु ने स्वयं जवाब दिया।
‘तो फिर?’
‘सहसा तुम विश्वास नहीं करोगे। मैंने उसी महान सत्य का त्याग किया है।’ कहकर साधु भक्त के चेहरे पर उठने वाली प्रतिक्रिया का सूक्ष्म निरीक्षण करने लगे।
‘ऐं! ऐसी बात है?’ भक्त एकाएक इस तरह चीख उठा मानो किसी जहरीले बिच्छू ने उसे डंक मार दिया हो।
‘सच कहता हूं,’ कुटिल मुस्कान के साथ साधु फिर बोले।
‘फिर आप सत्यवादी कैसे हुए?’ भक्त ने चिढ़कर पूछा।
‘मैंने सत्य का त्याग कर दिया है, यह भी तो एक सत्य है और इस सत्य तथ्य को मैं बिना किसी हिचकिचाहट के तुम्हारे सामने स्वीकार कर रहा हूं तो मैं सत्यवादी हुआ न? भला इससे बढ़कर मेरी सत्यवादिता का दूसरा उदाहरण क्या हो सकता है।’ कहकर साधु महाराज चुप हो गए।
भक्त जड़वत् खड़ा रहा। काटो तो खून नहीं। (सुमन सागर)



