लोकतंत्र में ‘हाईकमान’
लोकतंत्र में जनता द्वारा चुना गया राजनीतिक व्यक्तित्व एक महत्त्वपूर्ण इकाई का दर्जा रखता है। उसे लोगों की मानसिक दशा को समझ कर आगे जाकर आवाज़ उठानी होती है, लेकिन कई बार देखा गया है कि ‘हाईकमान’ से मुनासिब संकेत पाये बिना, वे महानुभाव एक शब्द भी कह नहीं पाते। इसे सच्चे लोकतंत्र की अवहेलना नहीं तो और क्या कहेंगे। जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसे हमारे संविधान ने दी है, उसके प्रति भी न्याय कर पाना कठिन होता चला जाएगा, अगर सभी सदस्य पहले ‘हाईकमान’ की दिलचस्पी का ही पूरा ध्यान रखेंगे।
कुछ ही दिन पहले भारतीय जनता पार्टी ने नितिन नवीन को पार्टी का राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष चुना। उन्हें युवा नेता माना गया। वह हैं भी। 45 वर्ष की आयु में इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी मिलना कोई इत्तेफाक नहीं। बिहार के बाहर इससे पहले शायद ही किसी ने उनका नाम सुना हो। लेकिन अब बहुत से लोग उन्हें बकायदा जानने का दावा कर रहे हैं और भाजपा का ‘उभरता सितारा’ नाम दिया जा रहा है। जब अध्यक्ष बनाने की कार्यवाही चल रही थी तब दूर-दराज के कोनों में भी उनका नाम नहीं था। अचानक लाटरी खुलने की तरह नाम घोषित कर दिया गया। नई दिल्ली में भव्य स्वागत हुआ। भाजपा के कार्यकर्ता और नेता उत्सवधर्मिता के साथ जुट गये। दबे स्वर में कहा भी गया कि उन्हें पहचानने में दिक्कत महसूस हुई।
इतना बड़ा पद और एकदम से आश्चर्यजनक चयन? इस चयन के खिलाफ पार्टी में असहमति का कोई स्वर कहीं भी सुनाई नहीं दिया। आप इसे अनुशासन की एक भव्य मिसाल कह सकते हैं। एक नेता ने कहा भी है। हम एक अनुशासित पार्टी हैं। अनुशासित? सही कहा। लेकिन क्या यह लोकतांत्रिक भी है? साफ दिख रहा है कि नवीन का चयन किसी आंतरिक विमर्श/चयन से नहीं निकला अपितु यह हाईकमान द्वारा तय किया गया है, जिस फैसले के आगे सभी नतमस्तक हैं।
केवल भाजपा नहीं, कांग्रेस में भी इसी तरह का चलन देखा गया है, जब बेंग्लुरू में इस सवाल पर हलचल मची कि सिद्धारमैया मुख्यमंत्री बने रहें या फिर उनकी जगह डी.के. शिवकुमार को लाया जाये। 2022 की घटना याद कर सकते हैं तब कांग्रेस का ‘हाईकमान’ अशोक गहलोत को पार्टी अध्यक्ष पद सम्भालने के लिए राजी नहीं कर पाया था। आज शशि थरूर को पार्टी ठीक से पचा नहीं पा रही। वह पार्टी-लाइन से अलग विचार रखते हैं और इज़हार भी करते हैं। कांग्रेस हाईकमान का सिरदर्द तो है। गांधी परिवार से सवाल भी नहीं किया जा रहा। टकराव तो है लेकिन अनुशासित बात बहस-तलब होकर भी सामने नहीं है क्योंकि लोकतांत्रिक नहीं है। शशि थरूर कहीं बीच में लटक गये हैं। उनकी प्रतिभा का हनन हो रहा है। कांग्रेस परिवार असमंजस में हैं। खासकर गांधी परिवार।
जब तक अमित शाह चाणक्य की भूमिका में हैं और नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव की जय यात्रा जारी है, तब तक आंतरिक स्तर पर कोई घबराहट नहीं होगी। कहीं चर्चा नहीं होती कि कुछ लोकतांत्रिक हो रहा है या नहीं? पार्टी के भीतर संवाद की स्थिति है या नहीं? मुख्यमंत्री के चुनाव से लेकर पार्टी की रणनीति बनाने का पूरा काम अब ‘हाईकमान’ से शुरू और ‘हाईकमान’ तक खत्म होने की स्थिति है। राजस्थान और गुजरात में पहली बार के विधायकों को मुख्यमंत्री बना देने का निर्णय किसका था- ‘हाईकमान’ का। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रवैया भी इससे ज्यादा अलग नहीं था।



