काश ! आम आदमी पार्टी बड़ी गलतियों से बच सकती

दिल्ली में आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों की विधानसभा सदस्यता ़खत्म कर दी गई है। उन पर आरोप था कि उन्होंने विधायिका की सदस्यता के साथ-साथ संसदीय सचिव के रूप में लाभ के पद का भी उपभोग किया। पहली नज़र में यह मामला तकनीकी किस्म का लगता है, क्योंकि अगर दिल्ली की आधी-अधूरी विधानसभा के पास शक्तियां होतीं तो वह बड़े आराम से कानून बना कर संसदीय सचिव को लाभ के पद की श्रेणी से बाहर कर सकती थीं। पर वह कोशिश करने के बावजूद ऐसा नहीं कर पाई, और ये विधायक इस तकनीकी गिरफ्त में फंस गए। दूसरी नज़र से देखने पर यह भी लगता है कि जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने इन विधायकों को संसदीय सचिव मानने से इंकार ही कर दिया था (क्योंकि उनकी नियुक्ति के लिए उपराज्यपाल की स्वीकृति नहीं ली गई थी) तो फिर उन पर यह आरोप कैसे लगाया जा सकता है कि वे उस पद पर काबिज रहे? तीसरी नज़र इस सवाल की तऱफ ध्यान दिलाती है कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के बावजूद जब चुनाव आयोग ने इस मसले पर सुनवाई जारी रखने का निर्णय लिया तो फिर आयोग द्वारा जून, 2017 के बाद कोई सुनवाई क्यों आयोजित नहीं की गई, और बिना किसी सुनवाई के यह स़िफारिश राष्ट्रपति को भेज दी गई? ज़ाहिर है कि मोदी सरकार दिल्ली सरकार के पीछे पड़ी हुई है, और यह मामला इसका ताज़ा उदाहरण है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। यह प्रकरण आम आदमी पार्टी के राजनीतिक प्रयोग की एक बड़ी नाकामी स्पष्ट कर देता है। जब केजरीवाल और उनके साथियों ने 67 सीटें जीत कर इतिहास रचा था, तो अभूतपूर्व खुशी के उस माहौल में छिपी हुई एक विकट समस्या उनकी आंखों में झांक रही थी। ़कानून वे केवल छह मंत्री ही बना सकते थे, और उनके पास एक सुविकसित पार्टी भी नहीं थी। दरअसल, उस समय तक और मोटे तौर पर आज भी आम आदमी पार्टी स्वंयसेवकों के जत्थों का एक जमावड़ा ही थी। उस समय भी उसका संगठन तदर्थवाद का शिकार था, और आज भी है। उन परिस्थितियों में पार्टी की समस्या यह थी कि वे अपने विधायकों और अन्य नेताओं को कारगर और उपयोगी राजनीतिक कामकाज में किस तरह लगाएं। पार्टी ने अपने रैडिकल दावों के मुताब़िक कोई नया और लीक से हट कर तरीका खोजने के बजाय अन्य पार्टियों की सरकारों द्वारा अपनाया जाने वाला घिसा-पिटा और विवादास्पद हथकंडा ही अपनाया। उसने इक्कीस विधायकों को संसदीय सचिव बना दिया, और अपने लिए स्थायी किस्म की मुसीबत मोल ले ली। यह उस राजनीतिक नैतिकता की कसौटियों पर भी खरा नहीं उतरता था जिसकी दावेदारी करते हुए यह पार्टी सत्ता में आई थी। ध्यान रहे कि यह फैसला पार्टी ने अपने कार्यकाल के बिल्कुल शुरुआती दौर में लिया था। शायद साल भर बाद वह इस फैसले को लेने से पहले सौ बार सोचती। कुल मिला कर असाधारण जीत से पैदा हुआ अति-आत्मविश्वास, उसके भीतर पनपने वाले दम्भ और लोकतंत्र की संस्थागत संरचना के प्रति तिरस्कार की भावना ने इस पार्टी से ऐसा करवाया होगा। दिल्ली सरकार को अभी तीन साल भी पूरे नहीं हुए हैं, पर लगता ऐसा है कि जैसे उसने तीस साल पूरे कर लिए हों। इस छोटे से कार्यकाल में उसने न जाने कितने चुनाव लड़ लिए, न जाने कितने विवादों से गुज़री, और न जाने कितनी बहसों को जन्म दे दिया। एक तरह से महानगर आधारित यह छोटा-सा दल और उससे जुड़ा राजनीतिक प्रयोग हमारे लोकतंत्र की खामियों और ़खूबियों का आईना बन चुका है। इस आईने में जो छवियां दिखाई पड़ रही हैं, उनसे कुछ अहम सवाल उपजते हैं। मेरे ़ख्याल से उनमें सबसे अहम यह है कि लोकतंत्र में जब कोई दल पहला चरण पार करके दूसरे चरण में पहुंचता है, (यानी चुनाव जीतने के बाद उसे सत्ता मिल जाती है) तो उस दूसरे दौर में उसे राजसत्ता का इस्तेमाल किस तरह करना चाहिए? ध्यान रहे कि यह सवाल केवल आम आदमी पार्टी के संदर्भ में ही पहली बार नहीं पूछा जा रहा है। जब नब्बे के दशक में बहुजन समाज पार्टी को उत्तर प्रदेश में पहली बार सत्ता का स्वाद मिला था, उस समय भी मेरे जैसे प्रेक्षक ने पूछा था कि अब दलित ‘गुरु किल्ली’ (अम्बेडकर राजसत्ता को ‘मास्टर की’ कहते थे जो पंजाबी बोलने वाले कांशी राम की भाषा में ‘गुरु किल्ली’ थी) का क्या करेंगे? उनके प्रतिनिधियों का आचरण उन सरकारों से भिन्न किस प्रकार होगा जो दिग्गजों द्वारा नियंत्रित और संचालित पार्टियों की होती रही हैं? आज हमारे पास घटनाओं की पश्चात-दृष्टि है और हम जानते हैं कि बहुजन समाज पार्टी राजसत्ता का दूसरों से भिन्न इस्तेमाल करने में नाकाम रही। क्या आम आदमी पार्टी की गति भी यही होने वाली है? आ़िखरकार केजरीवाल की पार्टी भी दूसरी पार्टियों से ‘कुछ हट कर’ राजनीति करने के लिए मैदान में उतरी थी। इसलिए यह सवाल पूछा जाना ज़रूरी है। आम आदमी पार्टी के कुछ नकारात्मक पहलू ़खुद उसकी अपनी देन हैं। केंद्र सरकार की तरफ से उसके कामकाज में बहुत अड़ंगे लगाए गए, लेकिन ये समस्याएं उसका परिणाम नहीं हैं। इसी तरह अपने कोटे में आने वाली राज्यसभा की तीन सीटें भरने के सवाल पर भी यह पार्टी उस वायदे पर खरी नहीं उतर पाई जो उसने इस लोकतंत्र के साथ किया था। तीन में से दो सीटें उसने ऐसे तत्वों के हाथ में थमा दीं जिनका उस राजनीति से दूर-दूर तक नाता नहीं है जिसे करने के लिए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के गर्भ से इस पार्टी का जन्म हुआ था। पहली नज़र में देखने पर यही लगता है कि उसके ये दोनों राज्यसभा सांसद उन अनकहे उद्देश्यों को पूरा करने का काम करेंगे जिनका विरोध करने के लिए झाड़ू का निशान दिल्ली के आसमान में बुलंद हुआ था। पार्टी के इस दूसरे नकारात्मक पहलू में भी भाजपा या मोदी सरकार के दबाव की कोई भूमिका नहीं है। यह भी इस पार्टी की अपनी करनी ही है।  मुझे लगता है कि अगर इन दो संगीन (और एक हद तक अक्षम्य) ़गलतियों को एक तऱफ रख कर देखा जाए तो शहरी गवर्नेंस की एक नयी पार्टी के तौर पर आम आदमी पार्टी ने कुछ असाधारण सफलताएं भी हासिल की हैं। चालीस प्रकार की जनसेवाओं को दिल्ली के नागरिकों के दरवाज़े तक पहुंचाने वाली योजना पर अमल की शुरुआत एक ऐसी अनूठी उपलब्धि है जिसकी भारत के लोकतांत्रिक शासन में कोई और मिसाल नहीं मिलती। किसी और राज्य में इसे कल्पित तक नहीं किया गया है। इसी तरह से शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चों पर इस सरकार द्वारा किया गया काम भी उसके आलोचकों तक से प्रशंसा प्राप्त कर चुका है। इस सफलता के दो पहलू उल्लेखनीय हैं। पहला, इन निर्णयों को लेने और इन कामों को करने का अधिकार प्राप्त करने के लिए इस सरकार को उपराज्यपाल और केंद्र सरकार से काफी लोहा लेना पड़ा। दूसरी तरफ देश के अन्य राज्यों में गवर्नेंस का सबसे अधिक उपेक्षित अगर कोई क्षेत्र है तो वह यही है। भ्रष्टाचार और नाकारापन की बहुतायत और दूरंदेशी के अभाव में हर जगह स्वास्थ्य, शिक्षा और जनसेवाओं का कबाड़ा हो चुका है। अगर दिल्ली सरकार इस दिशा में कोई मिसाल कायम कर पाई तो वह सारे देश के लिए नमूना बन सकती है। आम आदमी पार्टी को जल्दी ही मिनी आम चुनाव में जाना होगा। उसकी राजनीतिक साख अगर बचेगी तो शहरी गवर्नेंस के क्षेत्र में हासिल की गई इन सफलताओं से ही बचेगी। काश! यह पार्टी राजनीति करने और सत्ता का इस्तेमाल करने के मामले में ये दो संगीन ़गलतियां करके अपना रिकॉर्ड दागदार न बनाती! अगर वह बच पाती तो राजनीति के कुहासे में आज उसका दामन सफेदी की चमकार मार रहा होता।