मोदी सरकार को लग सकता है मोमबत्तियों का सेंक

भारतीय जनता पार्टी की एक सांसद-प्रवक्ता ने अपनी सरकार और पार्टी के खिलाफउठाये जाने वाले सवालों की खिल्ली उड़ाते हुए कहा है कि पहले विपक्ष दलित-दलित किया करता था, और अब महिला-महिला कर रहा है। शायद उनका म़कसद यह कहने का था कि हम दलित संबंधी आरोपों का जवाब दे चुके हैं, और अब महिला संबंधी आरोपों के भी दे देंगे। यह रवैया तकरीबन वैसा ही है जैसा 2011-12 के दौरान कांग्रेस के प्रवक्ताओं का हुआ करता था। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हो या निर्भया प्रकरण, वे इसी प्रकार के हेकड़ी भरे जवाब दिया करते थे। नतीजा क्या निकला? भाजपा चाहे तो कांग्रेस के हश्र से सबक सीख सकती है। लेकिन सत्ता के मद में चूर राजनीतिक दल इतनी आसानी से आत्मालोचना करने के लिए तैयार नहीं होते। अगर ऐसा न होता तो पार्टी का आला कमान उन्नाव और कठुआ के घटनाक्रम में हस्तक्षेप करते-करते इतनी देर न कर देता। जो मोमबत्तियां दिल्ली के इंडिया गेट पर कभी कांग्रेस के ़िखल़ाफ जली थीं, उसी जगह उन्हें भाजपा के खिलाफ जलाया गया। तब उन्हें भाजपा ने जलवाया था, आज उन्हें कांग्रेस जलवा रही है। वह मसला भी दुष्कर्म और हत्या का था, यह मसला भी दुष्कर्म और हत्या का है। लेकिन दोनों के बीच अंतर केवल कांग्रेस और भाजपा की अदला-बदली का ही नहीं है। एक बड़ा अंतर और है। निर्भया प्रकरण में कांग्रेस सरकार उस तरह सहअपराधी की स्थिति में नहीं थी, जिस तरह से आज भाजपा कठुआ और उन्नाव के दुष्कर्म कांडों में दिखाई दे रही है। कांग्रेस के ऊपर उस समय यह आरोप नहीं था कि वह आरोपियों को बचाने की कोशिश कर रही है। उस समय राहुल गांधी की आलोचना यह हुई थी कि वे इंडिया गेट के प्रदर्शनकारियों का साथ देने के लिए सड़कों पर क्यों नहीं उतरे। अर्थात् उनके ऊपर मुख्य रूप से निष्ठुरता और संवेदनहीनता का आरोप था। इसलिए देखा जाए तो आज की ताऱीख में भाजपा तब की कांग्रेस के म़ुकाबले कहीं अधिक कमज़ोर स्थिति में है। उसकी इस कमज़ोरी के दो कारण प्रतीत हो रहे हैं। पहला, भाजपा का आलाकमान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को सौ ़फीसदी अपने नियंत्रण में करने में नाकाम लग रहा है। दूसरा, धर्म और जाति की दुहैरी शक्तियां जिन्हें भाजपा की राजनीति ने अपने पक्ष में गोलबंद कर लिया था, उसके हाथ से निकलती लग रही हैं।  कठुआ में धर्म के नाम पर दुष्कर्म के आरोपियों का बचाव किया गया, और उन्नाव में इसके पीछे जाति का खेल दिखाई दिया। दोनों ही जगह तकनीकी रूप से बचाव का औज़ार सीबीआई को बनाया गया। कहा गया कि सीबीआई को जांच दी जाए और जब वह कह दे तभी किसी को आरोपी माना जाए। केंद्र सरकार यह कह कर पल्ला झाड़ती नज़र आई कि ये तो राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मामला है, इसलिए उससे किसी तरह का जवाब न किया जाए। लेकिन आज की स्थिति और राज्य और केंद्र अलग-अलग इकाइयां नहीं रह गई हैं। जो राज्यों में होता है, वह केंद्र की किस्मत तय करता है और जो केंद्र करता है, उससे राज्यों में सत्ता की संरचना निश्चित होती है। मसलन, भाजपा पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी के साथ कश्मीर में गठजोड़ बनाये हुए है। यह केंद्र के निर्णय का नतीजा है। इसी तरह उत्तर प्रदेश पर योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट (आजकल उनके आलोचक बार-बार मीडिया में उनके असली जातिसूचक नाम की याद दिला रहे हैं) हुकूमत कर रहे हैं। यह भी केंद्र का फैसला है। 
भाजपा सभी तरह के चुनाव के ठीक पहले होने वाले दल-बदलों को बढ़ावा देगी- यह भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व का फैसला है। इसी फैसले के तहत तो उन्नाव के विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दलबदल करवा कर साल भर पहले भाजपा में शामिल किया गया था। यह वही कुलदीप सिंह सेंगर हैं जो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से भी विधायक रह चुके हैं। राजनीति की शुरुआत इन्होंने कांग्रेस से की थी। घाट-घाट का पानी पी कर वे भाजपा में आए। चूंकि वे उत्तर प्रदेश की राजनीति के ठाकुर घटक की एक मज़बूत हस्ती के ़खासुम़खास हैं, इसलिए साल भर के भीतर ही वे योगी सरकार के नाक के बाल बन गए। आज यही नाक का बाल सरकार और भाजपा की नाक कटाने की नौबत ला चुका है। ठीक इसी तरह दलबदल करवा कर अपना विस्तार करने पर आमादा भाजपा को पहले नहीं पता हो सकता था कि लाल सिंह को पार्टी में लेने का उसे यह ़खमियाजा उठाना पड़ेगा। ये लाल सिंह वही हैं जिनकी दुष्कर्म समर्थकों की पैरोकारी से भाजपा को शर्मिंदगी उठानी पड़ी है। भाजपा के लिए थोड़ी-सी ़गनीमत यह हुई है कि जिस नाबालिग लड़की का उन्नाव में दुष्कर्म हुआ, उसकी जाति, दुष्कर्म के आरोपी विधायक की जाति, उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर बड़े अ़फसरों की जाति और मुख्यमंत्री की जाति एक ही है। अगर आरोपी और आरोपित की जाति अलग-अलग होती, तो इस समय आरोपी की जाति के लोग सड़कों पर उतर चुके होते, और योगी सरकार को अलग तरह की समस्या का सामना करना पड़ रहा होता। लेकिन इसका एक दूसरा पक्ष भी है। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक रूप से जागरूक दूसरी जातियां, ़खासकर ब्राह्मण जाति, इस पूरे प्रकरण को सांस रोक कर देख रही है। योगी के सत्तारूढ़ होने के बाद उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर क्षत्रियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को ज़बरदस्त उछाल मिला है। अ़फसरशाही में समाज के इस हिस्से से आए अधिकारियों की उच्च स्तर पर नियुक्तियों की मीडिया में बड़े पैमाने पर चर्चा हुई है। योगी सरकार के इस इकतऱफापन पर स्वाभाविक रूप से द्विज समाज के अन्य हिस्सों में प्रतिक्रिया होगी ही। भाजपा जानती है कि इस तरह की प्रतिक्रियाएं आगे चल नुक्सानदेह रूप धारण कर सकती हैं। 
यह सही है कि किसी भी पार्टी का आलाकमान अपनी किसी राज्य सरकार या प्रादेशिक इकाई के कामकाज को ‘माइक्रोमैनेज’ नहीं कर सकता है। हो सकता है कि भाजपा भी धैर्य के साथ जम्मू इकाई और उत्तर प्रदेश सरकार के कदमों को धैर्य के साथ परख रही हो। लेकिन, अब उसके हमदर्द भी मान रहे हैं कि आलाकमान ने हस्तक्षेप करने में देर कर दी है। दरअसल, इस देर के पीछे एक कारण यह भी है कि योगी आदित्यनाथ सरकार चलाने के अपने तौर-तरीकों में केंद्र के हस्तक्षेप को नापसंद करते हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में चल रही ‘एन्काउंटर मुहिम’ के बारे में भी उनसे कहा गया था कि वे इसे संयमित करें, पर उन्होंने इस निर्देश को मानने से इंकार कर दिया। इसी कारण से मीडिया के विभिन्न हलकों में एक चर्चा यह भी है कि योगी सरकार के ़िखल़ाफ माहौल बनने की प्रक्रिया को केंद्र अपने लाभ के लिए भी इस्तेमाल कर सकता है। यानी एक तरह से जो टीवी चैनल मोदी और भाजपा के कट्टर समर्थक थे, वे भी उन्नाव के मसले पर कठोर आलोचना करते हुए दिख रहे हैं। इससे कइयों को लग रहा है कि जैसे मीडिया का इस प्रश्न पर रवैया घुमा-फिरा कर भाजपा की भीतरी राजनीति की अभिव्यक्ति भी हो सकता है। दूसरी तऱफ भाजपा कठुआ के मामले में जम्मू-कश्मीर की पंडित लॉबी द्वारा तैयार किये गये तर्क की शिकार भी हुई है। पंडित लॉबी का कहना था कि आस़िफा को तो इंस़ाफ दिया ही जाना चाहिए, पर उन पंडित स्त्रियों को भी इंस़ाफ मिलना चाहिए जिनका पहले दुष्कर्म किया जा चुका है। दरअसल, इस तरह के तर्क देने वालों को कितने भी ठीक लगें, लेकिन सार्वजनिक जीवन में जहां रोज़ राजनीतिक छवियां बनती-बिगड़ती हैं, ये प्रभावी साबित नहीं होते। जिस तरह निर्भया कांड की किसी अन्य दुष्कर्म कांड से तुलना नहीं की जा सकती, उसी तरह आस़िफा दुष्कर्म कांड की भी किसी अन्य दुष्कर्म कांड से तुलना नहीं की जा सकती। भाजपा का नेतृत्व अगर दूरंदेशी दिखाता तो उन्नाव के मसले को भी इतना नहीं उलझने देता, और न ही कठुआ के मसले को भी। नौबत इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जलने तक न पहुंचती। उन मोमबत्तियों की लौ से मनमोहन सरकार झुलस गई थी। इन मोमबत्तियों की लौ से मोदी सरकार झुलसेगी- इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए।