पराली को आग लगाना बंद करने संबंधी उचित योजनाबंदी की जाए

धान की पराली और अवशेषों को आग लगाये बिना सम्भालने का मामला काफी पेचीदा और गम्भीर बनता जा रहा है। किसान गेहूं की बिजाई समय पर करने के लिए पराली को आग लगाते हैं। चाहे ऐसा करना से खेत, मानव जाति और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है तथा कृषि के लिए पर्याप्त अच्छे खाद्य तत्व जल जाने के बाद प्राकृतिक स्रोतों का नुक्सान होता है। परन्तु किसान ऐसा करने के लिए मजबूर हैं। धान की बुआई की तिथि 20 जून तक बढ़ा देने से फसल समय पर नहीं पकती और उसको गेहूं की बजाये 20 नवम्बर से पहले करने के लिए समेटना असम्भव हो जाता है। यही कारण है कि इस वर्ष मंडियों में अब तक धान की आमद गत वर्ष की अपेक्षा कम है और जो फसल आई भी है उसमें नमी 21-22 प्रतिशत है, जबकि पर्याप्त नमी 17 प्रतिशत है। अब मौसम ठंडा होने के कारण इसमें से नमी की मात्रा भी धीरे-धीरे ही कम होकर 17 प्रतिशत पर आएगी। आग लगाने की प्रथा बंद करने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास कर रही है। पराली का रख-रखाव आग लगाये बिना या तो खेत में ही इसका प्रयोग करके किया जा सकता है या फिर इसको खेत से बाहर निकाल कर अन्य कार्यों के लिए इसका बेहतर प्रयोग किया जा सकता है। कृषि से पराली को निकाले बिना गेहूं की बिजायी के लिए कृषि और किसान कल्याण विभाग द्वारा हैप्पी सीडर तथा अन्य मशीनों का प्रयोग करने के लिए सबसिडी दी जा रही है। जिसके लिए केन्द्र से 269 करोड़ रुपए आया है। इसमें हारवेस्टर कम्बाइनों वालों को सुपर एस.एम.एस. लगाने के भी सबसिडी देने की व्यवस्था है। पराली और अवशेषों को आग लगाना रोकने के लिए सरकार द्वारा अलग-अलग ढंगों से किसानों पर दबाव डाला जा रहा है और दंड देने के डर से उनको परेशान किया जा रहा है। अलग-अलग विभागों के कर्मचारियों को क्षेत्र बांट कर गांवों में निश्चित किया गया है। कृषि के व्यवसाय में गांवों की जनसंख्या का बहुमत तथा कुल राज्य की आबादी के लिए 55-60 प्रतिशत लोग लगे हुए हैं और कृषि पंजाब की आर्थिकता का मुख्य केन्द्र है। आर्थिक परेशानियों से तंग आकर किसान आत्म-हत्याएं करने के लिए मजबूर हो रहे हैं। अब जो दंडों की पोटली का डर उनके सिर पर सवार है। उसके बाद किसान गेहूं की बिजाई के लिए संशोधित बीज तथा अन्य सामग्री एकत्रित करने, बिजाई की योजना तैयार करने और धान की बिक्री संबंधी भी रुकावट और परेशानी पैदा कर रही है।  पराली को सम्भालने के प्रबंध करने के लिए मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। सुपर एस.एम.एस. फिट कम्बाइनें या तो उपलब्ध ही नहीं और यदि उपलब्ध हैं तो कटाई महंगी कर दी गई है। हैप्पी सीडर तो बहुत कम ही किराये पर मिलते हैं। जिन किसानों ने पूरी कीमत देकर अन्य औजार जैसे कि चौपर, मल्चर, बेलर, उल्टावे हल आदि ले लिए हैं, उनको आज तक सबसिडी की राशि उपलब्ध नहीं हुई। उदाहरण के तौर पर संगरूर ज़िले के नारोवाल गांव में कुछ किसानों ने सबसे पहले यह औजार पूरी कीमत पर लिए। बार-बार कृषि विभाग के चक्कर लगाने के बाद भी उनके खातों में सबसिडी आज तक जमा नहीं हुई। सुपर एस.एम.एस. और हैप्पी सीडर जैसी बड़ी मशीनें किराये पर चल रही हैं और उनके मालिक तो इन मशीनों को पूरी कीमत पर भी खरीद सकते थे। क्योंकि वह तो व्यापारिक किराया चार्ज करते हैं। किसानों को दूसरे औजार लगभग सबसिडी से दी जा रही कीमत पर खुली मंडी में ही उपलब्ध थे। चाहे अब सबसिडी दिए जाने वाले निर्माताओं ने कीमतों में वृद्धि कर दी है। किसान नेताओं और संस्थाओं द्वारा यह सुझाव दिया जा रहा है कि यदि मशीनों पर सबसिडी देने वाली राशि कुछ और बढ़ा कर किसानों को फसल पर बोनस के रूप में दे दी जाती, तो बिजाई के एकड़ों के आधार पर अदा कर दी जाती, तो किसान  खुशी से पराली को आग लगाना बंद कर देते, क्योंकि इस प्रथा को बंद करने के बाद अवशेषों की सम्भाल के लिए आये अतिरिक्त खर्च की तलाफी हो जाती। सबसिडी का पैसा कभी भी किसानों तक मुकम्मल नहीं पहुंचा। कई स्थानों और गांवों में आग लगाना बंद करना संबंधी भेजे गए कर्मचारियों तथा किसानों के बीच टकराव भी हो गया। इतने बड़े क्षेत्र में दंड और जुर्माने देकर किसी बात को लेकर ज़बरदस्ती मुकम्मल करना सम्भव नहीं। पंजाब के किसानों ने अनाज के भंडार भर कर देश को आत्म-निर्भर किया और फिर निर्यात करने के भी योग्य बना कर विदेशी मुद्रा मुहैया की।  वर्ष 1960-61 से हरित क्रांति से भी पहले किसान पराली को आग लगाते आ रहे हैं। अब समस्या गम्भीर इसलिए बन गई कि उस समय धान की काश्त के नीचे सिर्फ 2.27 लाख हैक्टेयर रकबा था जो अब बढ़ कर 30 लाख हैक्टेयर से ऊपर हो गया। जब तक पराली जलाने उपरांत पैदा हुए धुआं दिल्ली पहुंच कर वहां के जन-जीवन को प्रभावित नहीं करता था, केन्द्र सरकार भी इस प्रथा को बंद करने के लिए कोई सहायता या योजनाबंदी नहीं कर सकी। कृषि और किसान भलाई विभाग द्वारा भी आधी शताब्दी तक इस संबंधी कोई कार्रवाई नहीं की गई। चाहे प्रत्येक व्यक्ति पराली की आग लगाने की प्रैक्टिस को बंद करने का समर्थक है परन्तु किसानों की मजबूरी के कारणों पर भी विशेषज्ञों और सरकार द्वारा नज़रसानी करने की ज़रूरत है। अगर इन कारणों को ढूंढ कर किसान के खर्चे की तालफी की ज़रूरत पूरी कर दी जाए तो आग लगाना बंद करवाने में सफलता प्राप्त हो सकती है। किसान भी आग लगाने के नुक्सानों से पूरी तरह अवगत हैं। चाहे सरकार द्वारा कोई इस संबंधी किसानों को तरगीब देने हेतु लगातार प्रयास नहीं किया गया। हरित क्रांति के आगाज़ के समय पिछले शताब्दी के 6वें दशक में किसानों ने कीमीआई खादों के प्रयोग का विरोध किया, परन्तु सामूहिक विकास लहर से जुड़े प्रसार कर्मचारियों ने खेतों में जा कर किसानों को यह सामग्री इस्तेमाल करने के लिए सहमत कर लिया। उस समय किसानों के साथ सामूहिक विकास लहर के अधीन कार्य कर रहे प्रसार सेवा कर्मचारियों का सीधा सम्पर्क था, जो आज सिर्फ कार्यालयों में कागज़ी कार्रवाई तक सीमित है, जो अब सरकार ने धान के अवशेषों को आग लगाना बंद करने संबंधी गांवों में अलग-अलग विभागों के कर्मचारी तैनात किए हैं, उनको किसानों के साथ व्यवहार और गांवों में प्रसार सेवा कार्य करने का कोई अनुभव नहीं। फिर भी इस वर्ष धान के अवशेषों को आग लगाने की घटनाएं कम होंगी, जिससे कम से कम दिल्ली तक प्रदूषण की लहरें नहीं पहुंचेगी। पराली की आग लगाने की प्रथा को भविष्य में मुकम्मल तौर पर खत्म करने के लिए सरकार की ओर से उचित योजनाबंदी किए जाने की ज़रूरत है तथा केन्द्र द्वारा किसानों को खुली आर्थिक सहायता उपलब्ध करने की। इस संबंध में गत सप्ताह चंडीगढ़ में हुए एक सैमीनार में किसानों के साथ लम्बे समय से जुड़े मुख्यमंत्री के मुख्य प्रमुख सचिव सुरेश कुमार ने ठीक तौर पर कहा कि लोकतंत्र के दौरान देश के अन्नदाता पर अत्याचार करने से कोई उपलब्धि प्राप्त नहीं हो सकती है और न ही ऐसा करना उचित होगा। इस संबंध में उचित योजनाबंदी और कृषि प्रसार सेवा को मज़बूत तथा सही पथ पर लाकर किसानों को सही तरगीब देने की ज़रूरत है, जिसके बाद मिशन की पूर्ति में नि:संदेह सफलता मिलेगी। 

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