बिन बादल बरसात

यहां क्रांतियां भाषणजीवी हो गई हैं, और महामारी से राहत की खबर उत्सव-धर्मी। मौसम इतना बेवफा हो गया है कि फाल्गुणी हवाएं लू का चेहरा ओढ़ कर आपसे हाथ मिलाती हैं, और नये निवेश के आंकड़े एक ऐसा भित्ति चित्र बनाते हैं, जिसकी पहचान की घोषणा काम न कर सकने की बेबसी की चादर ओढ़ आपके साथ गले मिलाती है।
ज़िन्दगी जीने का अर्थ विरोधाभास को निरन्तर वहन करना हो गया है, और सफलता प्राप्त करने की घोषणा एक ऐसा आंकड़ा जो जीवन में खोजने पर भी आपको कहीं नहीं मिलता। नहीं तो बताइए पचहत्तर वर्ष के आज़ादी उत्सव मनाने के बाद जब आप उसका शिखर वर्ष अमृत महोत्सव मनाने के लिए निकलते हैं, तो उपलब्धियों के नाम पर बरसों से अर्ध निर्मित सड़कें और अधूरे पुल आपका स्वागत इन शब्दों के साथ करते हैं कि ‘देश के केन्द्रीय और राज्य बजटों ने आत्म-साक्षात्कार किया तो पाया कि अभी देश को तेज़ी के साथ मूलभूत आर्थिक ढांचे के निर्माण की ज़रूरत है।’ हम इसका बिसमिल्लाह इन दीर्घतया योजनाओं से कर सकते हैं, जिनकी पूर्णता आपको कम से कम अगली एक चौथाई सदी में प्राप्त हो जाएगी। इसलिए फिलहाल अपनी तात्कालिक समस्याओं का समाधान अपने बलिदान के धीरज और एक सपनीले इंतज़ार में पाइए। 
बेशक हम उत्सवधर्मी हैं, और हमारी सफलताओं का आकलन भीड़ तंत्र के जयघोष से होता है। एक सौ चालीस करोड़ आबादी के इस देश में सबसे सरल काम है भीड़ जुटाना और सबसे आसान रास्ता है, जयघोष की ऊंची आवाज़। यह जयघोष किसी का सगा नहीं होता। जो नेता, जो दावा, जो घोषणा सपनों का अधिक आकर्षक बायस्कोप लेकर चली आयी, यह जयघोष उसी का अपना हो जाता है। ईवीएम मशीनों के बटन अपने दबने की करवट बदलते हैं, और सत्ता की कुर्सी पर चेहरे बदल जाते हैं, परन्तु उनके तेवर, घोषणायें या अंदाज़ नहीं बदलते। 
इसी माहौल में वही अंदाज़ रूप बदल-बदल कर तारी होता रहता है। पहले सत्ता अवधि के साढ़े चार साल ऐसे आये थे, जिनमें धनिक या बहुमंज़िली इमारतों और बड़े फार्म हाऊसों के दरीचों से अदृश्य कर्णधार ठोस परिवर्तन की बात करते थे। वक्त बीत गया, टूटते फुटपाथों और परित्यक्त झुग्गियों का फटेहाल आदमी वहां का वहां ही खड़ा रह गया, तो एक सौ ग्यारह दिन में सौ घोषणाओं की बरसात आयी, इस आत्म-प्रशस्ति के साथ कि देखो, गणित के सवाल हल करने के तरीके बदल गये हैं। साढ़े चार साल से सौ दिन अधिक सार्थक होते हैं। इनकी ताबड़तोड़ घोषणाएं आपका जीवन बदल सकती हैं इसलिए घोषणाओं के इस मौसम को चिरन्तन बना देने के लिए इसी मौसम को दोबारा बने रहने का अवसर अपने वोट से दीजिए, लेकिन यह मौसम तो बिन बादल बरसात की तरह हमेशा लगता है। आया और किसी को भिगोये बिना चला गया। इसलिए चाहे इसके उत्तरदायी चेहरे के गले में पुन: विजयश्री के हार नहीं पड़े। इन हारों ने उनका वरण किया, जिनकी आवाज़ आपकी ज़िन्दगी में बदलाव ला देने की सबसे ऊंची आवाज़ थी। 
बदलाव की यह आवाज़ ही तो हमेशा उन लोगों को लुभाती रही, जिनकी गरीबी आज भी उन्हें हत्याओं की तुलना में आत्महत्याएं करने के लिए अधिक प्रेरित करती है। लीजिए जनाब, मौसम के कर्णधार बदल गये, घोषणाओं का मौसम नहीं बदला। अब सौ नहीं, केवल तीस दिन में ही उनकी बारात सज गई। बीस दिन में ही पूरे राज्य में भ्रष्टाचार समाप्ति की घोषणा हो गई। इधर देश डिजिटल हो गया है। अब हर हाथ में मोबाइल है। इसे जेब में डाल लीजिये। कोई रिश्वत मांगे तो उसकी आडियो वीडियो रिकार्डिंग कीजिये। सीधे हमारे नम्बर पर भिजवा दीजिए। भ्रष्टाचार क्या, अब उसकी मां भी अपनी खैर नहीं मना पायेगी। 
जी हां, हथेली पर सरसों जमा लेने के इस माहौल में कौन किस की खैर मनाता है, कुछ पता नहीं चलता। आडियो वीडियो रिकार्डिंग कैसे हो? अति महत्वपूर्ण दफ्तरों में तो आपके मोबाइल घुसने से पहले ही बाहर रखवा लिए जाते हैं। और जहां यह नहीं चलता, वहां दबंगों के साये हैं। आप मोबाइल निकालिये तो सही और अपनी प्रार्थना को नियम-कायदों की बेलौस ठंडी सड़क पर स्थगित होता हुआ पा लीजिए। जी हां, अब स्थगित हो जाना ही तो इस समाज का मुक्ति मार्ग बन गया है। अभी आपके अच्छे दिनों की आमद तो मूलभूत ढांचे का निर्माण कर लेने के लिए स्थगन अवधि के हवाले हो गई, और हमारा बेहतर जीवन जीने का उत्सव अमृत से शतकीय उत्सव में तबदील हो गया। आइए, इंतज़ार करें।