क्या इतने समय बाद कश्मीरी पंडितों को मिलेगा न्याय ?

जम्मू-कश्मीर में 1980 के आखिर और 1990 के दशक की शुरुआत में कश्मीरी पंडितों का आतंकियों ने नरसंहार किया। कश्मीरी पंडितों को मारा गया, उन्हें घर-बार छोड़कर पलायन करने को मजबूर किया गया। उस वक्त राज्य में नेशनल कॉन्फ्रैंस की सरकार थी। फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। फारूक से इसी बारे में एक टीवी चैनल में इंटरव्यू के दौरान सवाल पूछा गया, तो वो भड़क गए। पहले कहते रहे कि इस बारे में बात न की जाए तो ठीक रहेगा। जब एंकर ने सवाल पूछना जारी रखा और नदीमर्ग नरसंहार का मुद्दा उठाया, तो फारूक नाराज होकर इंटरव्यू छोड़कर चले गए। चैनल की एंकर ने उनसे पूछा था कि जब टीकालाल टपलू, जस्टिस नीलकंठ गंजू और प्रेमनाथ बट की हत्या हुई, आप मुख्यमंत्री थे। आपने क्या एक्शन लिया? बस, इसी से फारूक भड़क गए। उन्होंने कहा कि आपने मुझे क्या इस मुद्दे पर बात करने के लिए बुलाया है? इसके बाद भी सवाल पूछने का सिलसिला जारी रहा तो फारूक ने उनको भाजपा का प्रतिनिधि बताया और माइक उतार कर चलते बने। 
बता दें कि 21 अगस्त को जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने इसी नदीमर्ग नरसंहार मामले को फिर से खोलने का आदेश दिया है। उस घटना में 2 बच्चों समेत 24 लोगों को आतंकियों ने कतार में खड़ा कर गोलियों से भून दिया था। 
गौरतलब है कि 23 मार्च, 2003 अतीत की किताब का वह मनहूस पन्ना जिसमें दर्ज है 24 कश्मीरी पंडितों की एक साथ टार्गेट किलिंग। इस टार्गेट किलिंग को भारतीय सेना को बदनाम करने की साज़िश के तौर पर भी जाना जाता है क्योंकि, नदीमर्ग नरसंहार को अंजाम देने वाले आतंकियों ने भारतीय सेना की वर्दी पहनी हुई थी। इसके बाद यह भी दावा किया गया था कि भारतीय सेना ही जम्मू-कश्मीर का माहौल खराब करने के लिए ऐसे नरसंहारों को अंजाम देती है। नदीमर्ग नरसंहार ने 90 के दशक में आतंक का कहर झेलने वाले कश्मीरी पंडितों के पुराने जख्मों को फिर से हरा कर दिया था। आइए, जानते हैं नदीमर्ग नरसंहार की खौफनाक दास्तान।
क्रमवार घटना को देखें तो 90 के दशक में घाटी का माहौल अचानक ही बदल गया था। उस दौरान कश्मीरी पंडितों पर इस्लाम के नाम पर जो कहर टूटा था, वो आज भी जारी है। 90 के दशक में सैकड़ों कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और लाखों के पलायन के बाद लम्बे समय तक घाटी का माहौल ज़हरीला रहा। महिलाओं और बच्चियों से दुष्कर्म की घटनाओं और लगातार होते रहने वाले नरसंहारों ने बचे हुए हिंदुओं को घाटी से पलायन के लिए मजबूर कर दिया। 
नदीमर्ग नरसंहार में इकलौते जिंदा बचे गवाह मोहन लाल भट के अनुसार रात को करीब साढ़े 10 बजे हम सभी सो रहे थे। अचानक बाहर से शोर सुनाई देने लगा। तोड़-फोड़ और घरों की खिड़कियां बंद करने की आवाजें आने लगीं। मैंने दरवाजे की ओट लेकर देखा, तो सामने सेना की वर्दी में कुछ लोग खड़े थे। मेरी मां ने उनसे हमें जिंदा छोड़ देने को कहा, लेकिन आतंकियों ने गोलियां बरसा दीं। मोहन लाल भट के पूरे परिवार को आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया।  मोहन लाल भट ने बातचीत में आरोप लगाया कि सरकार ने नरसंहार के बाद कश्मीरी पंडितों को नदीमर्ग गांव छोड़ने से रोकने के लिए बाड़ाबंदी कर दी। 
जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने अब दो दशक पुराने नदीमर्ग नरसंहार केस को फिर खोलने का फैसला किया है। इस नरसंहार के बाद जैनापुर पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज किया गया था। जांच के बाद सात लोगों के खिलाफ  आरोप तय किए गए थे। पुलवामा सैशन कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की गई थी जिसे बाद में शोपियां सैशन कोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया ता। 
इस दौरान अभियोजन पक्ष ने कोर्ट में आवेदन किया कि कई गवाह कश्मीर से बाहर जा चुके हैं और जान के खतरे को देखते हुए गवाही देने के लिए वापस नहीं आना चाहते हैं। 2011 में हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया था। 2014 में इस मामले में नई याचिका दाखिल की गई थी। इस याचिका में मामले की नए सिरे से सुनवाई या पलायन कर चुके गवाहों को जम्मू की किसी अन्य अदालत में बयान दर्ज कराने की अपील की गई थी जिसे खारिज कर दिया गया था। इसके बाद राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था जिसमें फिर से हाईकोर्ट में याचिका दाखिल करने को कहा गया था। हाल ही में हुई सुनवाई में जस्टिस संजय धर ने हाईकोर्ट के पुराने फैसले को वापस लेते हुए पुनरीक्षण याचिका दाखिल करने का आदेश दिया है। इस मामले में अब अगली सुनवाई 15 सितम्बर, 2022 को होगी। देखना है कि देर से ही सही, कश्मीरी पंडितों को क्या न्याय मिलेगा? यदि नेता सच का सामना नहीं कर सकते तो न्याय का सामना कैसे कर पाएंगे?
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