योग्य लाभार्थियों को ही मिले मुफ्त राशन

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इसी सप्ताह देश के गरीब लोगों की भूख, पीड़ा और अभावों को महसूस करते हुए कहा है कि हमारी संस्कृति है कि कोई भी भूखा न सोये। न्यायमूर्ति एम.आर. शाह और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने केंद्र को निर्देश दिया कि श्रम पोर्टल पर पंजीकृत प्रवासी और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या के साथ ताज़ा सूची जमा करें। पीठ ने यह भी कहा कि यह सुनिश्चित करना केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत देश के अंतिम व्यक्ति तक अन्न पहुंचे। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हम ऐसा नहीं कह रहे कि केंद्र सरकार कुछ नहीं कर रहा, कोविड के दौरान केंद्र सरकार ने लोगों तक अनाज पहुंचाया है और  सुनिश्चित हो कि यह आगे भी जारी रहेगा। सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्त प्रशांत भूषण ने यह भी कहा कि 2011 की जनगणना के बाद देश की आबादी बढ़ गई है। उसके साथ ही खाद्यान्न सुरक्षा कानून के अंतर्गत अन्न पाने वाले लाभार्थियों की गिनती भी बहुत बढ़़ी है। उन्होंने यह आशंका ज़ाहिर की कि अगर भारत सरकार गंभीरता से खाद्यान्न सुरक्षा को लागू नहीं करेगी तो देश के बहुत से लोग भूखे रहने को मजबूर हो जाएंगे। 
अफसोस की बात है कि एक तरफ  सरकार यह कहती है कि पिछले कुछ वर्षों में प्रति व्यक्ति आय बढ़ गई है, लेकिन वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत नीचे आ गया है। पिछले सर्वेक्षण से भारत अब 6 अंक नीचे आ गया है और विश्व के 121 देशों की सूची में भारत का स्थान 107 हो गया है।  ऐसा लगता है कि भारत सरकार का यह कहना सत्य है कि वैश्विक सूचकांक में भारत की छवि खराब करने के लिए 107वें स्थान पर दिखाया गया है क्योंकि श्रीलंका में भूख त्रस्त जनता ने विद्रोह कर दिया। 
पाकिस्तान में अन्न का अभाव और अति महंगाई है।  पता नहीं कैसे वैश्विक भूख सूचकांक तैयार करने वालों ने भारत का स्थान इन देशों से भी नीचे दिखा दिया। नेपाल और म्यांमार का स्थान भी ज्यादा ऊंचा दिखाया है, जिसे स्वीकार करना बहुत कठिन लगता है। सच यह भी है कि भारत सरकार का यह दावा भी बहुत ठीक नहीं कि भारत के नागरिकों की आय पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी है। समाज का एक वर्ग अवश्य ऐसा है जो अमीर से ज्यादा अमीर हो गया। 2002, 2007 और 2011 में जो लोग सात आठ हज़ार रुपये महीना ही कमा रहे थे, वे अब भी उतना ही कमा रहे हैं। महंगाई बढ़ गई है। अन्य चीज़ों की बात ही छोड़ें, आटा, दाल, घी महंगा है। सरसों का तेल जो कभी सौ रुपया किलो के निकट भी नहीं गया था अब 200 रुपये के आस-पास है। आम आदमी को दिन में तीन बार आटा किसी न किसी रूप में खाना ही होता है। आटे की कीमत ही अब तीस रुपये किलो से अधिक हो गई है। जो बेचारा पांच सात हज़ार रुपये में पांच सदस्यों का परिवार पालता है, किराये के मकान में रहता है, गैस सिलेंडर 1100 रुपये का खरीदता है, वह कैसे यह मान लेगा कि वह पेट भरकर खा सकेगा या उसकी सरकारी आंकड़ों के अनुसार आय बढ़ गई है। क्या सरकार और यह आंकड़े इकट्ठे करने वाली सरकारी सर्वेक्षण संस्थाएं नहीं जानतीं कि पूरे देश में ही ठेके की नौकरी करने वाले सिसक-सिसक कर जी रहे हैं। वे जीवन की बुनियादी आवश्यकताएं ही पूरा नहीं कर पाते तो परिवार की अन्य इच्छाएं कैसे पूरी करेंगे। सरकारी सस्ता या मुफ्त राशन भी सब तक नहीं पहुंचता। ऐसे बहुत-से लोग हैं जो राजनीतिक पहचान के कारण योग्य लाभार्थी न होते हुए भी सरकारी राशन ले रहे हैं।
यह सत्य है कि जहां दुनिया के गरीब देशों के 83 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, उनमें से केवल भारत के ही 19 करोड़ से ज्यादा लोग हैं और यहां खाना बर्बाद भी होता है। चीन के बाद भारत दूसरा ऐसा बड़ा देश है जहां खाद्य पदार्थ बर्बाद होते हैं। भारत में 6.87 करोड़ टन खाना प्रतिवर्ष बर्बाद हो जाता है, जिसकी कीमत लगभग 92 हज़ार करोड़ रुपये है। एक बार सुप्रीम कोर्ट के एक माननीय न्यायाधीश ने कहा था कि अगर सरकार के पास अन्न की संभाल के लिए आवश्यक भंडारण का प्रबंध नहीं है तो यह अन्न गरीबों में मुफ्त बांट दिया जाना चाहिए। हर व्यक्ति को भर पेट भोजन मिले और अगर वह काम करता है तो काम के पूरे दाम भी मिलें। सरकारों को हर ज़रूरतमंद का पेट भरने के लिए प्रबंध करना ही चाहिए परन्तु इसका दुरुपयोग न हो। योग्य लाभार्थी ही मुफ्त राशन पा सकें, यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है। वैसे जो अनाथ, अपाहिज, बेसहारा हैं, उनको मुफ्त राशन दिया जाना चाहिए। राशन ही नहीं, भोजन देना चाहिए पर जो लोग मेहनत करते हैं, कमाते हैं, उनको पूरा वेतन मिले और देश में महंगाई को नियंत्रित किया जाए। मुफ्त नहीं, सस्ता दें। इससे सरकार पर बोझ भी कम पड़ेगा। 
एक बार पुन: उच्चतम न्यायालय के आदेश, निर्देश या निर्णय जो भी है, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है। अब आवश्यक है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि हर ज़रूरतमंद व्यक्ति तक पेट भरने के लिए अन्न पहुंचेगा और एक काम सरकार को और करना होगा कि हर हाथ को काम दे और काम का पूरा दाम दे। काम करवाना और वेतन के नाम पर शोषण करना, किसी भी सभ्य समाज की निशानी नहीं।