अन्यत्र उपयोग करें 

एक लेखक जो नय-नये संपादक बने थे, उनको एक अजीब सी ठसक थी। ‘अन्यत्र उपयोग करें’ लिखने की। उनके पास रचनाएं थोक के भाव में आती थीं। लिहाजा हर रचना के साथ ये तुरंत ही लेखक को जबाव लिखकर भेज देते कि आदरणीय/आदरणीया आपकी रचना मिली। लेकिन ये रचना हमारी पत्रिका के अनुकूल नहीं है। इसलिए इसका उपयोग आप अन्यत्र कर लें। अक्सर वो रचानाओं को बिना पढ़े ही लेखकों को लौटा देते थे। इधर इनकी हालत इतनी खराब हो गई कि थी कि वे सोते में भी यही जबाब लिख रहे होते थे कि आप इस रचना का अन्यत्र उपयोग करें। खैर: लेखक जी वैसे तो शुरु-शुरु में लेखक ही थे। बाद में उनको संपादक बनने का शौक चर्राया। तो वे संपादक भी बन गये। खैर: अभी लेखक जी की बात करतें हैं। दरअसल लेखक जी अपने आपको शहर का बहुत बड़ा लेखक मानते थे। कुछ क़ागज चींद जो उनके दोस्त बन गये थे। उनके साथ उन्होंने एक गुट बना लिया था। शहर के एक सडियल किस्म के कॉफी हाऊस में उनकी बैठकी घंटों होती थी। दिन भर वे जनता के सुख-दु:ख की कहानी सोचते/लिखते। जनता- जनार्दन के दु:ख से दु:खी होकर कवितायें लिखते। ये जो लेखक जी और इनके दोस्तों की टीम थी। देश की नाम चीन पत्रिकाओं को अपनी कविताएं और कहानियां चेंपते। तो इनकी सड़ी गली और नीरसता से भरपूर कहानियों से नाखुश होकर संपादक इनकी रचनाओं को लौटा देते थे। कालांतर में जब ये थोक के भाव में कहानियां, कवितायें, ़गज़लें, हाइकु और लघुकथाएं भेजते और ऐसा देखकर संपादकों को आखिर में दया आ जाती और वो दु:खी मन से लेखक महोदय को छापते थे। अब लेखक जी की अकड़ देखते ही बनती थी। धीरे-धीरे लेखक जी का आत्मविश्वास बढ़ता गया और लेखक जी जो पहले से ही बहुत बेगारी किस्म के थे और जो दिन भर कॉफी हाऊस में अपने निट्ठले साथियों के साथ घंटों बैठकी जमाते थे। कॉफी हाऊस का मालिक जो इससे आजिज आ गया था। एक दिन उसने इस निकम्मे लेखक जी और उनकी टीम को गरियाते, ठेलते ढकेलते बाहर भगा दिया। दरअसल लेखक जी और उनकी टीम चार कप चाय पीती और 5-5 घंटे जगह घेरती। इससे कॉफी हाऊस के दुकानदार की दुकानदारी खराब होती। फलस्वरूप इस टुच्चे लेखक जी और उनकी टीम को एक दिन धकियाते हुए दुकानदार ने बाहर धकेल दिया था। अब लेखक मँडली फुटपाथ के चाय दुकान पर जहां एक पीपल का भारी पेंड़ था। उसके नीचे अपनी मंडली टिकाती खैर : जब रचनायें बड़ी पत्रिकाओं में छपने लगी तो लेखक जी अपने को तीस मार खान समझने लगे। और अब कागज़ को घंटों काला करने लगे। ढिबरी के आगे वे और ज्यादा आंखें फोड़ने लगे। अब जहां 4-5 घंटे की साहित्य चर्चा वो करते थे। वहां वे दसियों घंटे की साहित्य चर्चा करने लगे। वे जिनसे भी मिलते अपनी कविता सुनने का आग्रह करने लगते। वो लोगों को पकड़-पकड़ कर कहानियां, कवितायें, व्यंग्य ठेलते। वो अपनी कविताएं लिख-लिख कर सत्ता को ललकारते। सत्ता के पँगु होने की बार-बार दुहाई देते। इधर तो वे सत्ता को ललकराते। जनता का दु:ख-दर्द कुछ इस कदर लिखते कि कवितायें लिखते-लिखते खुद भी रोने लगते। वो अजीब थे। एक कहावत है कि पहले घर में चिराग जलाना चाहिए। फिर मंदिर में चिराग जलाना चाहिए, लेकिन चिराग से बात याद आई। जहां चिराग होता है। ठीक उसके नीचे अंधेरा होता है। उनके यहां भी कुछ ऐसा ही था। उनको जनता का दु:ख दर्द तो दिखाई देता लेकिन उनको अपने घर परिवार का दु:ख-दर्द दिखाई नहीं देता। पत्नी और बच्चे दाने-दाने को तरसते। पढ़ाई-लिखाई, किताब-पेंसिल, दवा-दाऊ की बात करना तो जैसे हनुमान जी तरह हिमालय से संजीवनी बूटी लाने के समान था। वैसे तो लेखक जी घरेलू हिंसा के सख्त खिलाफ थे और अखबारों में इस विषय पर लंबे-लंबे लेख भी लिखते थे। लेकिन, वो हमेशा घरेलू हिंसा करते। पत्नी और बच्चों को धोबिया पछाड़ मार मारते। सप्ताह दस दिन में ये क्रम बार-बार चलता। उनकी पत्नी उनके इस कुंठित साहित्य-साधना के बिल्कुल खिलाफ थी। दरअसल लेखक जी की साहित्य साधना ने घर का माहौल बहुत बिगाड़ दिया था। इधर लेखक जी को एक पत्रिका निकालने की खब्त सवार हो गई थी।
ऐसी कि उनको अपनी पत्रिका को रातों-रात चर्चित कर देना था। इसलिए वो अपने संपर्क के लोगों को ही अपनी पत्रिका में जगह देते या छापते। कुछ देश- विदेश के चर्चित नामों पर उनकी कृपा इस तरह बरसती की बस बरसती ही रहती। नये लेखक उनकी कृपा रूपी जल कभी नहीं पी पाते। ये जो बड़े-नाम थे। बार-बार लेखक जी उनको अपनी पत्रिका में छापते। दरअसल लेखक जी थ्री-सीक्सटी डिग्री पर ही घूमते रहते और बार-बार एक ही नाम को रीपिट करते रहते। ऐसा करके वो अघाते नहीं थे। बल्कि अपने आपको धन्य मानते थे। 
या फिर ऐसे लोगों को छापते जो उनको मोटा चंदा पत्रिका के लिए देते थे। या  ऐसे लोगों को जो वहाटसैप और फेसबुक पर उनकी चिंदी रचना की भी वाहवाही करते उसको अपनी पत्रिका में भरपूर जगह देते। 5-5 के लेख अपने चहेतों का छापते। खैर यह लेखक जी की एक कुंठा थी। जब वे शुरू-शुरू में रचनायें भेजते थे तो उनकी रचनायें खेद ये कहकर लौटाई जाती थी कि इस रचना का आप अन्यत्र उपयोग करें। खेद है आपकी रचना का उपयोग इस पत्रिका में नहीं हो सकेगा। वो प्राय: अपने यहां आने वाली हर रचना के साथ ही ऐसा करते। दरअसल उनको एक दम प्योर साहित्यिक रचना चाहिए थी जिससे उनकी पत्रिका उच्च कोटि की बन सके। अपने मुंहलग्गूओं को प्राय: वे हर अंक में जगह देते ताकि उनका यशोगान होता रहे। वो नारीवाद, वामपंथ, दक्षिणपंथ, प्रगतिशील आदि वादों पर अपनी राय जाहिर करते रहते और उसको विभिन्न समाचार पत्रों को भेजते रहते। इस तरह से नये-नये वादों पर नकारात्मक प्रतिक्रियाएं देकर वो चर्चा में हमेशा बने रहना चाहते थे। चर्चा में बने रहने के उनके पास अचूक-अचूक उपाय थे। एक बार एक पत्रिका का लोकार्पण होना तय हुआ। तय समय में तय तिथि को लोकार्पण का समय निश्चित हुआ। लेखक जी अब चूकि संपादक भी थे। इसलिए पत्रिका के लोकार्पण के समय उनको मुख्यातिथि नियुक्त किया गया था। दर्शक-दीर्घा खचाखच भरा हुआ था। तय समय पर लेखक जी ने पत्रिका का लोकार्पण किया। लेकिन जैसे ही पत्रिका को उन्होंने खोला उनका मन खट्टा हो गया। दरअसल और लेखकों के नाम के सबसे नीचे लेखक/संपादक जी का नाम था जो शायद प्रिंटिंग वाले की गलती से हो गया था। वो इस पर इस तरह क्षुब्ध हुए और माइक का गला चीखने लगा। वे आयोजकों को बुरा-भला कहने लगे। सम्मानित साहित्य सेवियों का दिल बल्लियों उछलने लगा। लगा कि आयोजक गश खाकर गिर जायेंगे। लेखक जी का कहना था कि जानबूझकर आप लोगों ने मुझे अपमानित करने के लिये इस तरह का आयोजन किया है। मेरे जैसे अति लोकप्रिय और प्रतिष्ठित कवि की रचना सबसे आखिर में प्रकाशित करने की आप लोगों की हिम्मत कैसे हुई। आप लोगों ने ऐसा साजिश के तहत किया है। तो जैसे-जैसे लेखक जी वरिष्ठ होते जा रहे थे। कुंठित भी होते जा रहे थे। पता नहीं उनको ऐसा क्यों लग रहा था कि सारे लोग उनके खिलाफ साजिश कर रहें हैं। और जहां-जहां भी साजिश की जा रही है। उसमें वो शामिल हैं। कहते हैं कि दुधारू गाय की लोग लात भी बर्दाश्त करते हैं, लेकिन जो बिना वजह चिढ़े उससे लोग दुरी बना लेते हैं। ऐसा ही लेखक जी के साथ हुआ था। अब लोगों ने उन्हें किसी भी साहित्यिक आयोजन में बुलाना लगभग बंद कर दिया है। बंद नहीं तो कम-से-कम कम तो कर ही दिया था। लेखक जी अब अपने घर पर ही सीमित होकर रहते हैं। उनको लगता है कि जर्रा-जर्रा उनके लिये साजिश कर रहा है! 

-मेघदूत मार्किट फुसरो ,
बोकारो (झारखंड), पिन-829144